Show me an example

Saturday, August 11, 2012

भरत और बाघ...कालिया मर्दन




भरत और बाघ


ऋषि दुर्वाशा के शाप का यह असर हुआ कि महराज दुष्यंत ने शकुंतला को पहचानने की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया. नदी में अंगूठी गिरने के कारण देवी शकुंतला की स्थिति और दयनीय हो गई थी. वे एकबार फिर से महराज को याद नहीं दिला सकीं कि कैसे दोनों ने ऋषि कन्व के आश्रम में गन्धर्व विवाह किया था. कुल मिलाकर जब मामला हाथ से निकल गया सा प्रतीत हुआ तो देवी शकुंतला को वापस लौटना पड़ा. वे पहले की तरह ही ऋषि के आश्रम में रहने लगी. उनका पुत्र भरत अब बड़ा होने लगा था.

अब उसकी उम्र खेल-कूद की हो गई थी इसलिए उसने खेल-कूद शुरू कर दिया था.

उधर एक दिन रोज-रोज के राजकीय झमेलों से त्रस्त महराज दुष्यंत फिर से आखेट के लिए अपनी सेना लेकर निकले. उनको उन्ही जंगलों से गुजरना था जिसमें देवी शकुंतला अपने पुत्र के साथ रहती थीं. उन्हें पता था कि इसी जंगल में उनका मिलन अपने पुत्र भरत से होगा. वे जब जंगल में पहुंचे तो उन्होंने ने देखा कि बालक भरत तो है लेकिन इस बार वह बाघों के साथ नहीं खेल रहा. इसबार वह गिलहरियों के साथ खेल रहा था और उन गिलहरियों के दांत गिन रहा था.

महराज को बहुत क्रोध आया. उन्होंने वहीँ से पुकारा; "शकुंतले..शकुंतले."

महाराज की पुकार सुन देवी शकुंतला ने उन्हें पहचान लिया. वे प्रसन्न होकर दौड़ती हुई आईं. उन्हें देखते ही दुष्यंत ने प्रश्न किया; "यह क्या शकुंतले? हमारा पुत्र भरत, जिसे बाघों के साथ खेलना चाहिए था, जिसे बाघों के दांत गिनने चाहिए थे वह गिलहरियों के साथ खेल रहा है और उनके दांत गिन रहा है? ऐसा अनर्थ क्योंकर भला?"

देवी शकुंतला ने धैर्य के साथ कहा; "हे आर्यपुत्र, वैसे तो आप राजा हैं परन्तु आपको अपने ही राज्य के बारे में कुछ नहीं पता. तो हे आर्यपुत्र आप जानना ही चाहते हैं कि ऐसा अनर्थ क्यों हुआ तो सुनिए. जब हमारा पुत्र एक वर्ष का हुआ उसी समय आपके राज्य में बाघों की संख्या घटकर एक हज़ार चार सौ ग्यारह रह गई थी. उनमें से केवल दो बाघ इस जंगल में रहते थे. जबतक वे थे, तबतक तो पुत्र भरत उनके साथ खेलता था. उन्ही के दांत गिनता था. परन्तु जबतक वह चार वर्ष का हुआ, ये दो बाघ भी शिकारियों ने मार दिए. ऐसे में अब यह गिलहरियों के दांत नहीं गिनेगा तो क्या पक्षियों के दांत गिनेगा?"

महराज दुष्यंत अपने राज्य में हुए बाघों के इस संहार के बारे में कुछ नहीं कह सके. वे अपने सेनापति के साथ यह विमर्श करने लगे कि ऐसा क्या किया जाय कि उनके राज्य में फिर से बाघ दिखाई देने लगें.

कालिया मर्दन


कालिया मर्दन का समय आ गया था. श्रीकृष्ण कई दिनों से सोच रहे थे कि उन्हें एक दिन कालिया मर्दन करके "यदा यदा ही धर्मस्य....." को फिर से सिद्ध करना है. उन्होंने मैया यशोदा से गेंद बनवाई और एक दिन अपने सखाओं के साथ यमुना किनारे चल दिए. उन्हें पता था कि सखाओं के साथ गेंद खेलनी है और किसी बहाने उसे यमुना में डालना है जिससे उन्हें यमुना में घुसकर कालिया मर्दन का अवसर मिले. वे गेंद खेलने लगे. कुछ देर बाद उन्होंने गेंद को यमुना में फेंक डाला. सारे उपक्रम करके वे यमुना में घुस गए.

उन्होंने डुबकी तो लगाईं परन्तु इसबार उन्हें कालिया नाग कहीं दिखाई न दिया. बहुत प्रयास के बाद भी जब उन्हें वह नहीं मिला तो उन्हें यह चिंता होने लगी कि कहीं कालिया किसी और नाग का शिकार तो नहीं हो गया? उन्होंने यमुना की तलहटी से ही आवाज़ लगाईं; "कालिया... कालिया..."

उनकी पुकार की प्रतिध्वनि पाताललोक तक जाने लगी. प्रतिध्वनि श्रीकृष्ण के मित्रों तक भी पहुंची जिन्हें एकसाथ कई बार सुनाई दिया; "कालिया..कालिया...कालिया...कालिया..या.. या "

श्रीकृष्ण के मित्र भी चिंतित हो उठे. उन्हें इस बात का भय नहीं था कि कालिया श्रीकृष्ण पर आक्रमण कर देगा. उन्हें पता था कि उनका कान्हा कालिया को काबू कर लेगा और कुछ देर बाद ही उसके फन पर खड़ा हो मुरली बजाते हुए प्रकट होगा. बाद में कालिया नाग कान्हा से अपने जीवन की भीख मांगेगा और कान्हा उसे जीवनदान देकर वहाँ से विदा करेंगे. परन्तु ऐसा नहीं हुआ.

उधर कालिया नाग की खोज में श्रीकृष्ण नागलोक तक पहुँच गए. वहाँ उन्हें कालिया मिला. उसने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया. श्रीकृष्ण ने उससे पूछा; "यह क्या कालिया? आजकल तुम यमुना में नहीं रहते? यमुना छोड़कर नागलोक में आ बसे हो? मैंने तो सोचा था कि आज मैं तुम्हारा मर्दन कर अपने उस धर्म का पालन करूँगा जिसके लिए मैंने अवतार लिया है."

श्रीकृष्ण की बात सुनकर कालिया दुखी मन से बोला; "हे कान्हा, आप तो अन्तर्यामी हैं. आप ही बताइए कि मैं एक तुच्छ नाग, यमुना में कैसे रहूं? उस यमुना में जिसमें अब जल नहीं बल्कि हरियाणा, दिल्ली और आगरा की गन्दगी भरी हुई है? हे कान्हा, आप तो यमुना में कूद गए क्योंकि आप भगवान हैं लेकिन मैं कैसे रहता जब वहाँ रहने से मुझे मेरी मृत्यु साफ़ दिखाई दे रही थी? अब तो यमुना में भरे रसायनों और विष के कारण मेरा अपना विष भी जाता रहा. जब मुझे प्रतीत हुआ कि अब वहाँ रहना मेरी मृत्यु का कारण बन सकता है तो मैंने यहाँ नागलोक में शरण ले ली."

श्रीकृष्ण की समझ में नहीं आ रहा था कि वे कालिया से क्या कहें? कुछ ही देर में मित्रों के साथ अपने घर की ओर चले जा रहे थे.

Thursday, August 9, 2012

समुद्र-मंथन री-विजिटेड




समुद्र मंथन हो रहा था. देवताओं और असुरों के बीच वासुकी की खींचा-तानी चल रही थी. मंदिराचल पर्वत समुद्र में ऊपर-नीचे हो रहा था. लाखों दर्शक देख रहे थे. न्यूज चैनल वाले रात-दिन रिपोर्टिंग करने में लगे थे. हर चैनल के संवाददाता मौजूद थे. इन संवाददाताओं को न तो दिन का चैन था और न ही रात का आराम. इधर ये घटना-स्थल से रिपोर्ट कर रहे थे तो उधर ऐंकर लोग़ अपने-अपने टीवी स्टूडियो में बैठे सयाने और बुद्धिजीवियों के साथ समुद्र-मंथन की एनालिसिस किये जा रहे थे. ज्यादातर सयाने इस बात से नाराज़ थे कि असुरों के साथ धोखा हो रहा है. कि उन्हें वासुकी के फन की तरफ वाला हिस्सा पकड़ने के लिए क्यों दिया गया?

एक-एक करके रत्न वगैरह निकाले जा रहे थे. कुछ न्यूज चैनलों ने गंभीरता के साथ सर्वे भी शुरू कर दिया था. कुछ ने जनता को इस बात के लिए ललकारना शुरू कर दिया था कि जनता एस एम एस भेजकर बताये कि आगला रत्न क्या निकलेगा? किसको मिलेगा? अंत में किसकी जीत होगी? वासुकी के फन से निकलने वाले विष से कितने असुर मरेंगे वगैरह वगैरह.

बढ़िया रत्नों को भगवान विष्णु के पास पहुंचाया जा रहा था. जब उनके पास शंख पहुंचाया गया तो उन्होंने उसे बजाकर देखा कि उसकी आवाज़ कहाँ तक पहुँच रही है. चन्द्र निकला तो उसे भगवान शिव के पास पहुँचाया गया और उन्होंने चन्द्र को अपने माथे पर रखकर पार्वती जी से पूछा कि वे देखने में कैसे लग रहे हैं? उनके माथे पर चन्द्र फब रहा है या नहीं? उधर ऐरावत पाकर इन्द्र फूले नहीं समा रहे थे.

जब हलाहल निकला तो टीवी न्यूज चैनल के संवाददाताओं ने अपनी आवाज़ की डेसिबल बढ़ाते हुए रिपोर्टिंग शुरू कर दी. सारे संवाददाता एक ही सवाल कर रहे थे कि अब हालाहल को कैसे संभाला जाय? कौन है वह जो इस हालाहल से इस विश्व की रक्षा करेगा? भगवान शिव ने जैसे ही हालाहल को लेकर अपने मुँह से लगाना चाहा एक न्यूज चैनल के कैमरामैन ने उनसे रिक्वेस्ट कर डाला कि; "हे भगवन, बस एक मिनट के लिए हालाहल से भरे पात्र को अपने मुँह के पास रोक देते तो फुटेज बढ़िया आता."

नंदी जी इस संवाददाता की बात सुन रहे थे. उन्होंने नाराज़ होकर उसे एक सींग दे मारा. संवाददाता वहीँ बेहोश हो गया. इसके बाद पूरी कवरेज का मुद्दा ही बदल गया. अब मुद्दा समुद्र-मंथन के कवरेज से निकल कर मीडिया के साथ होने वाली तथाकथित बदसलूकी पर आ गया. खैर, भगवान शिव ने हालाहल को मुँह से लगाया और पी गए. पार्वती जी ने उन्हें याद दिलाया कि वे कृपा करें और हालाहल को गले से नीचे न उतरने दें. भोले शंकर ने उन्हें अनुगृहीत किया तब वे जाकर शांत हुईं.

अबतक बाकी सबकुछ निकल चुका था. अब बारी थी अमृत के निकलने की. सभी इस बात की सम्भावना से खुश हो रहे थे कि बस थोड़ी ही देर में धनवंतरि जी हाथ में अमृत का घड़ा लिए निकलेंगे. जैसे-जैसे समय नज़दीक आता जा रहा था कि संवाददाताओं और कैमरा थामे लोग़ उत्साहित हुए जा रहे थे. एक टीवी स्टूडियो के ज्योतिषाचार्य ने यह भविष्यवाणी कर रखी थी कि कितने बजकर कितने मिनट पर आयुर्वेदाचार्य धनवंतरि अमृत कलश थामे निकलेंगे. सबकी साँसे रुकी हुई थी. क्या इस बार भी देवतागण कोई चाल चलकर अमृत हथिया सकेंगे? कहीं इस बार ऐसा तो नहीं होगा कि असुरों के राजा कोई चाल चल देंगे? क्या भगवान विष्णु इसबार भी अमृत देवताओं को दे सकेंगे? पूरा विश्व टीवी के सामने से नज़रें हटा नहीं पा रहा था.

मंथन होते-होते अचानक देवता और असुर देखते क्या हैं कि समुद्र से भगवान धनवंतारि की जगह मुकेश खन्ना निकले. उनके हाथ में डायबा-अमृत का एक पैकेट था. उन्हें देखते ही देवताओं और असुरों के चेहरे मुरझा गए. देवताओं ने मुकेश खन्ना से पूछा; "हे मनुष्य तुम कौन हो? और यहाँ क्या कर रहे हो? हमसब को तो भगवान धनवंतरि के अमृत-कलश के साथ निकलने की अपेक्षा थी परन्तु यह क्या?"

मुकेश खन्ना ने कहा; "देवताओं को मुकेश खन्ना का प्रणाम स्वीकार हो. हे देवों, अब तीनो लोक में अमृत के नाम पर डायबा-अमृत ही मिलता है. टीवी पर बिकने वाली सभी अयुर्वेदिक औषधियों की तरह यह भी दुर्लभ जड़ी-बूटियों से बना है."

उसके बाद वे देवराज इन्द्र से मुखातिब हुए और बोले; "हे देवराज, डायबा अमृत को बनानेवाले आयुर्वेदाचार्य भी भगवान धनवंतरि से ज़रा भी कम नहीं हैं. और हे देवराज, ये असुर तो इधर-उधर खुराफात करके हाथ-पाँव चलाते रहते हैं परन्तु हे देव, आप तो अपने महल से निकलते भी नहीं, केवल आराम करते रहते हैं. ऐसे में आपको..............."

मुकेश खन्ना डायबा-अमृत के गुण बताते जा रहे थे और देवता और असुर मुँह लटकाए सुने जा रहे थे.

Tuesday, August 7, 2012

ट्वीटर का आह्वान!




यह सवा सौ ग्राम की तुकबंदी ट्वीट-योद्धा का आह्वान कर रही है. आप बांचिये और अगर ट्विटर पर हैं तो इस आह्वान को सुनते हुए लग जाइए:-)

.....................................................

पूरब में सूरज उगा, जग उठा दिन अब,
अलसाई आँखें मलकर खोलोगे कब?
ट्वीटाधिराज बिस्तर से अब उठ जाओ,
स्मार्टफ़ोन पर को झट से हाथ लगाओ
पढ़ लो पहले जो टी एल है बतलाती,
मत ध्यान करो गर कोयल भी हो गाती
मन करे अगर तो गुडमोर्निंग कह डालो,
बदले में गुड़-डे वाली कुछ विश पा लो
चिंता कर डालो देशभक्त बन जाओ,
झट अपने दल का खूब समर्थन पाओ
अन्ना को गाली, रामदेव को रगड़ो,
गर मिलें सपोर्टर उनसे फट से झगड़ो
सोनिया माइनो, मनमोहन को गाली,
आरटी भी ले लो और साथ में ताली
दो यूं कुतर्क राहुल महान हो जायें,
सड़ियल ट्वीटें भी स्वीट-तान हो जाए
जिसको भी चाहो पेड-न्यूज बतलाओ,
अपने लोगों से खुब आशीष कमाओ
स्वामी जवाब दें फट आर टी कर डालो,
दूसरों की टाइम-लाइन को भर डालो
खबरों की लेकर लिंक उन्हें झट ठेलो,
फालोवर्स की तारीफ फटाफट ले लो
फैसला सुनाओ धर्म तुम्हारा बढ़िया,
कोई जो करे अपोज उसे कह घटिया
अपने रस्ते पर बस चलते ही जाओ,
जो करें विरोध उन्हें चिरकुट बतलाओ
कुछ पत्रकार को बतलाना तुम हालो,
पर कभी न करना उनको तुम अनफालो
फिर उसकी कोई घटिया ट्वीट पकड़कर,
और ट्रोल करो फिर उसको रोज रगड़कर
बतलाओ सबको मीडिया बिका हुआ है,
इनपर ही भ्रष्टाचारी टिका हुआ है
पर लिंक उसी मीडिया वाली तुम लेना,
उसको चाहे जितनी गाली तुम देना
कुछ कर डालो कि ट्वीट-क्रान्ति आ जाए,
और ट्वीट तुम्हारे लाखों आर टी पाए
हर मुद्दे को पकड़ो टांगों से, खींचो,
और बीच-बीच में ट्वीट-मुट्ठियाँ भींचो
ललकारो अपने दुश्मन को दो गाली,
कोई भी ट्वीटिंग-बुलेट न जाए खाली
छेड़ो तुम दलित-विमर्श जो आये मन में,
फिर दौड़ो जैसे कोई चीता वन में
स्त्री-विमर्श मोहताज रहे ट्वीटों की,
जो गाली दें ऐसे लम्पट, ढीठों की
आसाम की चाहे हों यूपी की बातें,
चाहे नेता की हों घातें-प्रतिघातें
हों यूपी वाली सिस्टर जी के हाथी,
या जो थे कलतक नेताजी के साथी
हों ज़रदारी या फिर बाराक ओबामा,
चाहे हों देसी सिब्बल, दिग्गी मामा
झट ट्वीट-एक्शन सबपर ही कर डालो,
जिससे सब पढ़ें जो करते तुमको फालो
लेकर शस्त्रों को ट्वीटक्षेत्र में जाओ,
भारत-गौरव अब राष्ट्रप्रेम दिखलाओ

ट्विटर एंथेम ट्वीटपथ ट्वीटपथ ट्वीट पथ पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कर सकते हैं. ट्विटर पर और ब्लॉग पोस्ट यहाँ, यहाँ और यहाँ क्लिक करके बांच सकते हैं.


Friday, August 3, 2012

दुर्योधन की डायरी - पेज १२१८




कल सुबह युवराज दुर्योधन की डायरी का यह पेज मिला जिसमें उन्होंने राजमहल में मनाये जानेवाले राखी के त्यौहार के बारे में लिखा है. आज टाइप करके पब्लिश कर रहा हूँ. बांचिये.

......................................................................

आज राजमहल में राखी का त्यौहार मनाया गया. सावन की पूर्णिमा आने ही वाली है, इस बात की सूचना सबसे पहले राजमहल के सर्वेंट क्वार्टर्स से मिलती है. पिछले हफ्ते से ही सारथियों और चारणों के घरों से टेपरेकॉडर्स पर राखी वाले गाने बजने शुरू हो गए थे. एक से बढ़कर एक गाने जिन्हें सुनकर राजमहल के राजकुमार मन ही मन खुश तो होते हैं लेकिन अपनी ख़ुशी का इजहार सार्वजानिक तौर पर नहीं करते. मुझे वह गाना बहुत पसंद है जिसमें बहन भाई को त्यौहार का भावार्थ समझाते हुए कहती है कि जिसे वह रेशम का तार समझ रहा है असल में वह बहन का प्यार है. यह गाना शायद किसी फ़िल्मी गीतकार ने लिखा है. गाने के बोल हैं; "इसे समझो न रेशम का तार भइया, ये है बहना का प्यार भइया..." या फिर "ये है राखी का प्यार भइया..." ऐसा ही कुछ है.

गाने के बोल मुझे पूरी तरह से याद हैं लेकिन लिख दूंगा तो लोग़ मुझे डाउन मार्केट युवराज समझेंगे और मुझे हे दृष्टि से देखेंगे. राजमहल के अलिखित नियम के अनुसार एक युवराज डाउन मार्केट भले ही हो लेकिन दीखना नहीं चाहिए.

इन फ़िल्मी गानों के अलावा राखी के त्यौहार का पता करीब पंद्रह दिन से बाज़ार में सजी राखी की सीजनल दूकानों से मिलती है. ये दुकानें अपने साज श्रृंगार से हमें सूचना देती हैं कि त्यौहार आनेवाला है. वैसे तो हर वर्ष हस्तिनापुर के सबसे बड़े सभागार को किराए पर लेकर तमाम व्यापारी एक राखी फेयर का आयोजन करते हैं लेकिन फुटकर दुकानों का रहना भी आवश्यक है. ये दुकानें न रहें तो प्रजा कहाँ से राखी खरीदेगी? आखिर राखी फेयर में बिकनेवाली राखियाँ सब खरीद भी तो नहीं सकते.

हर वर्ष दुशाला करीब सवा सौ राखियों का ढेर इसी फेयर से ले आती है. बाज़ार में सजी दुकानें भी देखने में बुरी नहीं लगती. दुकानें चाहे जैसी हों, राखियों की चमक इन दूकानों को चमकाए रखती है. राखी की दुकानें मुझे होली की याद दिलाती हैं. राखी के अलावा होली ही ऐसा त्यौहार है जो सीजनल दुकानें खोलने की सुविधा देता है और रंग और गुलाल के कारण उन दिनों भी चिरकुट से चिरकुट दूकान सुन्दर लगती है.

माताश्री ने मामाश्री को राखी बांधी. ये अच्छा है कि मामाश्री वर्षों से यहीं जमे हुए हैं और माताश्री को हज़ारों मील जाकर उन्हें राखी नहीं बांधनी पड़ती. कई बार यह बात मन में आती है कि मामाश्री का हस्तिनापुर में रहने का केवल यही एक फायदा है बाकी तो सब नुकशान ही नुकशान है. माताश्री द्वारा राखी बाँधने पर मामाश्री जो स्वर्ण मुद्राएं सगुन में देते हैं वह भी इसी राजमहल की होती हैं. जितनी मुद्राएं मामाश्री गंधार से बांधकर माइग्रेशन के समय ले आये थे, वे सारी तो न जानें कितने वर्षों पहले ही ख़तम हो गईं. हाल यह है कि त्योहारों पर वे बलराम हलवाई की दूकान से जो लड्डू मंगवाते है, उसके लिए भी मुद्राएं मुझे ही देनी पड़ती हैं.

कई बार मैंने सलाह दी कि किसी चारण को गांधार भेजकर नानाश्री से स्वर्ण मुद्राएं मंगवा लें तो बहाना बना देते हैं. यह कहते हुए मना कर देते हैं कि हस्तिनापुर से गांधार तक का रास्ता बहुत बड़ा और खतरनाक है. पता चला कि कोई चारण उधर से स्वर्ण मुद्राएं लादकर चला और खाइबर पास तक आते-आते लुटेरों ने मुद्राएं लूट लीं. आगे बोले कि खाइबर पास के आगे तो रास्ता और भी खतरनाक है. स्वात घाटी तो संसार के सबसे भयंकर लुटेरों से भरी पड़ी है. मैंने तो यह भी कहा कि नानाश्री मुद्राओं की रक्षा के लिए पूरी सेना भी तो भेज सकते हैं लेकिन मामाश्री ने एक और तर्क देकर मामले को वही रफा-दफा कर दिया. तर्क या कुतर्क देना तो कोई इनसे सीखे. वैसे भी कोई क्यों सीखेगा? मामाश्री मेरे हैं और मैं उनके साथ रहता हूँ तो मैं सीखूँगा न.

हस्तिनापुर में उनके रहने का कम से कम यह फायदा तो हो कि उनके तमाम तर्क-कुतर्क केवल मैं सीखूँ.

दुशाला ने हम भाइयों को राखी बांधी. पूरे वर्ष में यही एक दिन होता है राखी बंधवाते हुए दुशाला के प्यार को देखकर मन में आता है कि सारे छल-कपट, क्रूरता, लड़ाई, झगड़े, राजपाट, वगैरह छोड़-छाड़ कर हम भाई, माताश्री, पिताश्री शांति से रहें. जीवन में परिवार के साथ शांति से रहने से अच्छा कुछ नहीं है. राखी वाले दिन अपने भाइयों के लिए उसके मन में प्यार को देखकर हम भाइयों के मन से सारे छल-कपट कुछ क्षण के लिए ख़तम हो जाते हैं.

मुझे याद है, एक बार मैंने यह सुझाव मामाश्री को दिया. मैंने कहा कि पांडवों के साथ लड़ाई-झगड़े से अच्छा है कि हमसब शांति से रहें तो वे भड़क गए. बोले एक राजकुमार के ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं. बोले; "एक बात सदैव याद रखना भांजे, अपने उद्देश्य से भटकना मृत होने के समान है." जोश में आ गए और लगभग चिल्लाते हुए कहने लगे; "एक बात कभी मत भूलना भांजे, वर्षों से शेर की सवारी करने वाला युवराज जिस दिन शेर से उतरा, शेर उसे खा जाएगा."

उनके इस सदुपदेश पर कोई भांजा अपने मामाश्री क्या कह सकेगा? मैं चुप हो गया.

दुशाला ने आज राजमहल में राखी बाँधने का बढ़िया उत्सव आयोजित कर रखा था. गाने-बजाने का प्रोग्राम भी था. उसने कल शाम को ही हमें निर्देश दे रखा था कि मैं और बाकी के सारे भाई उसे राजमहल में एक ही जगह इकट्ठे मिलने चाहिए. ऐसा न हो कि कोई कहीं आखेट के लिए जंगलों में चला जाए और कोई बीयरपान करने. उसने तो सारथियों तक को कह रखा था कि अगर कोई भाई बाहर जाने का प्रोग्राम बनाये तो सारथी सबसे पहले उसे सूचित करें. कल शाम को उसने कहा; "भ्राताश्री, आचार्य बिंदु प्रकाश ने आदेश दिया है कि इस वर्ष वृषभ राशि वाले भाइयों को राखी बाँधने का शुभ मुहूर्त सुबह के दस बजे निकला है. इसलिए मैं चाहती हूँ कि आपसब राजमहल में ही रहें."

अजीब बात है. अब ये ज्योतिषी राशि के हिसाब से भी राखी बाँधने का मुहूर्त बताने लगे हैं. इन ज्योतिषियों के धंधे भी अजीब हैं.

खैर, हमसब ने राखी बंधवाई. राजकवि किसी कवि सम्मलेन में भाग लेने काशी गए हुए थे तो उसने उप-राजकवि से ही राखी गीत लिखवा लिया था. उप-राजकवि को भी क्या कहूँ? उन्होंने राखी-गीत में भी उन्ही शब्दों का प्रयोग किया जिनका प्रयोग वे वीर-रस की कविताओं में करते रहे हैं. मामाश्री की चापलूसी करके ये उप-राजकवि बने हैं लेकिन मैं कहता हूँ कि अयोग्य होने के बावजूद अगर सिफारिश करके एकबार आप कोई पदवी हथिया लेते हैं तो कोशिश करके अपने अंदर थोड़ा तो इम्प्रूवमेंट ले आयें लेकिन इन्हें कहाँ इस बात की समझ है? खैर, दुशाला ने अपनी सहेलियों के साथ उनका लिखा हुआ गीत गाया और उसके बाद राखी बांधी.

बाकी सब तो ठीक था लेकिन हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी उसे वही दिक्कत हुई. हर वर्ष राखी बांधते समय वह आधा लड्डू तो भाइयों को खिलाती है और बाकी का आधा खुद खाती है. आधे के हिसाब से हर वर्ष बेचारी को घंटे दो घंटे के अंदर ही पचास लड्डू खाने पड़ते हैं. देखकर तकलीफ होती है लेकिन कुछ किया भी तो नहीं जा सकता. ऊपर से इसबार बलराम हलवाई ने लड्डू बनाने के लिए जिस घी का इस्तेमाल किया वह मुझे थोड़ा घटिया लगा. एक तरफ तो यह बढ़िया घी का इस्तेमाल नहीं करता दूसरी तरफ हम भाइयों से कहता है कि राखी के दिन लड्डू खाते हुए हम सौ भाई अगर फोटो खिंचवा लें तो वह उन फोटो की होर्डिंग्स बनवाकर अपना विज्ञापन कर लेगा. लो कर लो बात. यह केवल लड्डू खिलाकर हम भाइयों से विज्ञापन करवाना चाहता है. इससे हमें क्या फायदा होगा? सारा फायदा तो इसका होगा. यह हमें बेवकूफ समझता है.

अरे अगर हमें फोटो खिंचवाना ही होगा तो हम प्रजा के बीच जाकर किसी आम आदमी के घर भोजन करते हुए फोटो खिंचवायेंगे और उसकी होर्डिंग लगवाएंगे कि इसके लिए विज्ञापन करेंगे?

खैर, त्यौहार बड़े मजे से मनाया गया. मैंने दुशाला को परफ्यूम भेंट किया. दुशासन ने उसके लिए अवंती से साड़ियाँ मंगवा रखी थीं. उसने उसे उपहार में साड़ियाँ दी. यह अलग बात है कि उसे ज्यादातर साड़ियों का रंग पसंद नहीं आया. दुशासन ने तुरंत अपने गुप्तचरों को आदेश दिया कि अगली बार जब अवंती से साड़ियों का व्यापारी हस्तिनापुर पधारे तो उसको किडनैप करके उसके पास जितनी भी साड़ियाँ हो, उसे दुशाला के सामने लाया जाय. बहन को जो साड़ियाँ पसंद आएँगी, वह उन्हें रख लेगी. आज उपहार के रूप में जो साड़ियाँ उसे पसंद नहीं आयीं, उस बात के लिए अवंती के साड़ी व्यापारी को दण्डित करने का एक ही तरीका है और वह ये है कि उसे साड़ियों की कीमत न दी जाय.

अब सोने जाता हूँ. कल सुबह जल्दी उठना है. मामाश्री ने आदेश दिया है कि कल हमसब को मिलकर लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मार देने के प्रोग्राम को अंतिम रूप देना है.