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Monday, April 30, 2012

हम किरपा के बदले दसबंद नहीं देंगे आपको..




बहुत दिन बाद कल रतिराम जी की दूकान से पान मंगवाया. पान खाना तो मैंने छोड़ दिया है लेकिन हमारे एक मित्र मिलने आये तो मैंने सोचा कि उनके लिए मंगवा लेते हैं. उनके लिए आएगा तो मेरे खाने का भी बहाना बन जाएगा. कुछ खाने के लिए बहाना बनाने का काम हम केवल पान के केस में करते हैं. मिठाई के केस में ऐसी बात नहीं होती. मिठाई न खाने की अभी तक वजह भी नहीं बनी है. लिहाजा उसके लिए बहाने बनाने की जरूरत नहीं रहती. मेरा ऐसा मानना है कि मिठाई खाना सहज मानव स्वाभाव है और ऐसा करते हुए मनुष्य सहजता के चरम पर रहता है.

ऑफिस से राजू को पान लाने के लिए भेजा गया. पान देते हुए रतिराम जी ने उससे पूछा; "है अफिसे में?"

वो बोला; "हाँ, इसीलिए तो पान लाने भेजे हैं. नहीं तो मैं थोड़ी न पान खाता हूँ."

रतिराम जी बोले; "ई बताने का जरूरत हैं का? आ तुम खाते हो कि नहीं, हमसे का लेना-देना? जेतना पूछे हैं ओतना का जबाब देने में का जान निकलता है? कहीं अईसा त नहीं कि बात को तान के बड़ा करने का काम तुम भी करने लगे हो? ऊ करते हैं त ओनका सोहाता है. ऊ ब्लाग लिखते हैं. बाकी तुम काहे कर रहे हो?"

राजू बोला; "नहीं मेरे कहने का मतलब वह नहीं था."

रतिराम बोले; "मतलब त हमको भी बुझाता है. बुझाता है कि तुम भी ओनका तरह ही बात को खीचने का प्रैक्टिस शुरू कर दिए हो. हमको देखकर तुमको एही न बुझाता है कि हमको खाली कत्था घिसने आता है? त सुनो बाबू, एही रतिराम जी चूना भी घिसते हैं. हमरा एगो सलाह मानो, आ सुनो. ई सब काम के चक्कर में मत पड़ो. पता चला ब्लाग लिखने लगे औउर कौनो काम के न रहे."

इस अचानक हुए हमले की उम्मीद राजू को नहीं रही होगी. वे हड़बड़ाकर कर बोला; "नहीं-नहीं, हम तो अपने काम से काम रखते हैं. "

रतिराम बोले; "सही करते हो. बाकी अपना काम से काम छोड़कर ब्लाग-फ्लाग लिखने-फिखने के चक्कर में पड़ोगे त कौनो काम के नहीं रहोगे. अच्छा सुनो, आ मिसरा जी कहना कि हम दुपहरे आयेंगे. हमरा एगो काम है."

राजू ने राजू-रतिराम संवाद का वर्णन कर डाला.

कुछ देर तक मैंने यह अनुमान लगाने की कोशिश की कि रतिराम जी हमसे क्यों मिलना चाहते हैं? एक बार मन में आया कि जब आयेंगे तो पता चल ही जाएगा इसलिए इस बात को छोड़ दिया जाय. फिर मन में यह आया कि छोडें क्यों? वैसे भी अगर अपने पास समय है तो फिर अनुमान लगाने में कोताही काहे बरती जाय? ऊपर से दोपहर का लंच करने के बाद मुँह में पान भी पड़ गया है. मुँह में पान रहता है तब सोचने के लिए एकाग्रता का निर्माणकार्य बड़ा ईजी रहता है. ऐसे में अनुमान नहीं लगाना माने कर्त्तव्य से मुँह मोड़ लेना होगा. आज की तारीख में अनुमान लगाने से मनोरंजक कोई काम नहीं है. यह पेड़ लगाने से सहल है और किसी को काम पर लगाने से बहुत सहल. यही कारण है कि दुनियाँ में अनुमानों की संख्या बढ़ती जा रही है और पेड़ की संख्या घटती जा रही है. काम करने वालों की संख्या और भी घटती जा रही है.

यह सब सोचते हुए मैं शुरू हो गया. एक बार के लिए सोचा कि बेटे की पढ़ाई के बारे में कुछ होगा? मैं बस सोचता जा रहा था. इस सोच को तब विराम मिला जब यह याद आया कि उनका बेटा तो आजकल मोटरसाइकिल चलाने की प्रैक्टिस करता है. पिछले साल वह डांस रिअलिटी शो में जाना चाहता था. अब उसने उस विचार का त्याग दिया है और अब वह रोडीज में जाना चाहता है. उस सोच को विराम मिला तो यह सोच मन में उभरी कि रतिराम जी के दिमाग में कहीं दूसरा बिजनेस शुरू करने की बात फिर से तो नहीं हलचल मचा रही? यह भी सोचा कि शायद यह पूछने आ रहे हों कि कहीं चाय-पान दूकान पर भी तो सर्विस टैक्स लागू नहीं हो गया? या फिर ऐसा तो नहीं कि रतिराम जी शेयर में इन्वेस्ट करना चाहते हैं? अनुमान और लगते लेकिन तब तक एक फ़ोन आ गया. पिछले कई वर्षों में अनुमान लगाने के रास्ते में फोन सबसे बड़ा रोड़ा बनकर उभरा है.

खैर, मैंने फोन रिसीव किया. पता चला आज चैताली ने नहीं बल्कि नेहा ने फोन किया था. उसने मुझे बताया कि मैं उनकी बैंक का एक क्रेडिट कार्ड होल्ड करता हूँ. मैंने यह बात कबूल कर ली. इसके बाद नेहा जी ने सूचना दी कि चूंकि मैं एक क्रेडिट कार्ड होल्ड करता हूँ इसलिए बैंक ने मुझे एक ऐसा लोन देने का फैसला किया है जिसके लिए मुझे कोई डोकुमेंट देने की ज़रुरत नहीं है. लोन पचास हज़ार से डेढ़ लाख तक मिल सकता है. और वह भी बहुत ही नॉमिनल इंटेरेस्ट रेट पर. मैंने रोज की तरह उन्हें बताया कि मुझे लोन मंज़ूर नहीं है. उन्होंने मुझे थैंक्स कहते हुए फोन काट दिया. मैंने भी फोन काट दिया. इस आशा के साथ कि कल निहारिका जी फोन करके फिर बतायेंगी कि "सर, आप मेरे बैंक का एक क्रेडिट कार्ड होल्ड करते हैं." मैं कहूँगा; "हाँ." और वे मुझे बैंक द्वारा लोन दिए जाने का फैसला सुनाएंगी और मैं उस लोन को डिक्लाइन कर दूंगा.

इस आशा के साथ कि नेहा जी फिर दो दिन बाद फोन करेंगी.

यह सब चल ही रहा था कि पता चला रतिराम जी आफिस में प्रवेश कर चुके हैं. वे आये. वे बैठे. वे वापस नहीं गए.

मैंने पूछा; "कैसा चल रहा है धंधा?"

वे बोले; "ओइसे ही जईसा चलता है. हमरे धंधा में में कौनो कमी नहीं है. चाह पीयो और पान खाओ. एही से देश है."

मैंने कहा; "अब तो चाय भी राष्ट्रीय ड्रिंक बन गई है."

वे बोले; 'का आप भी मजाक करते हैं? ई सब सरकारी चिरकुटई है. आ सरकार उसको राष्ट्रीय ड्रिंक बनाये आ चाहे अंतर्राष्ट्रीय, चाह तो चाह ही रहेगी."

मैंने कहा; "और क्या हाल है? आपका फेसबुक पेज कैसा चल रहा है? उसको बनाने के बाद पान की बिक्री बढ़ी कि नहीं?"

वे बोले; "आ उसको त ऐसेही बना दिए थे. ऊ सब तो मौज का बात है. बाकी ई फेसबुक और ट्विटरवा दुन्नो का ओही काम है जो चाह-पान का है. पब्लिच्क को बिझाये रखने का साधन है ई सब."

मैंने कहा; "नहीं ऐसी बात नहीं है. अब तो सोशल मीडिया पावरफुल हो गया है. इसको इस्तेमाल करके अब तमाम लोगों के ऊपर प्रेशर बना रहे हैं लोग़?"

वे बोले; "आ देखिये मिसिर बाबा, के किसको इस्तेमाल कर रहा है ई के जानता है? आ आप सोच रहे हैं कि पब्लिक सब इसको इस्तेमाल कर रहा है. हमरा नजरिया तनि अलग है इसपर?"

मैंने कहा; "मतलब?"

वे बोले; "आ आज से दस साल बाद ई भी त पता चल सकता है कि पब्लिक सब सोशल मीडिया का नहीं बल्कि सोशल मीडिया पब्लिक सब का इस्तेमाल कर रहा था. आ मिसिर बाबा, हमरा मन में बहुत बार ई आता है कि ई सब देकर पब्लिक को बिझा दिया गया है. पब्लिक सब बिझी रहेगी त सड़क पर नहीं आएगी. आलसी बना दे रहा है सब मिलकर आपलोगों को. अच्छा आप ही एक बात बोलिए? आपको लगता है कि ई सब चोचला पहिले होता त का इतिहास का बड़ा-बड़ा क्रान्ति सब होता? सोचिये कैसा सीन मिलता देखने को? फ्रांस का ही क्रांति ले लीजिये. उधर फ्रांस का रानी कहती कि पब्लिक के पास रोटी नहीं है त ई सब केक काहे नहीं खाता? आ इधर ट्विटर वाला पब्लिक सब रनिया का मजाक उड़ा देता. हजारों ट्वीट निकलता आ उसके से लाखों रि-ट्वीट. मामला ओही रफा-दफा हो जाता. उधर राजा देखता कि ट्विटर पर हज़ार लोग़ बिरोध कर रहा है त ऊ भी अपना पईसा-ओईसा खर्च करके अपना हज़ार ट्वीट करने वाला को बईठा देता. दुन्नो तरफ का ट्वीटर सब सिर-फुटव्वौल करता रहता औउर रजवा अपना राज."

मैंने कहा; "नहीं मेरा मानना है कि तब भी क्रांति ट्विटर से होती."

मेरी बात सुनकर रतिराम मुस्कुरा दिए. बोले; "आप भी बहुत भोले हैं. बाकी आपका गलती नहीं है. आपका जईसे ट्विटरवा पर खीच-पिच करने वाला सब एही सोचता है. देख नहीं रहे राष्ट्रपती जी ने ज़मीन लौटा दिया त कईसा जशन मना रहा है सब? आ हमको लगता है कि बात दुसरा है. ऊ आपलोग कहते हैं न कि वार जीतने के लिए ऊ का कहते हैं...देखिये याद नहीं आ रहा है. हाँ, वार जीतने के लिए कभी-कभी बैटिल हारना पड़ता है. त ई एही बात है. खैर जाने दीजिये. ई सब त चलता ही रहेगा. हम जो काम से आये हैं ऊ सुनिए."

मैंने कहा; "हाँ बोलिए, क्या काम है?"

वे बोले; "हम सोच रहे थे एक ठो टेक्सी निकलवा लें. थोड़ा पईसा हम जुटाए हैं. थोड़ा बैंक से लोन ले लेंगे. आपका अगर हमरा पेपरवर्क करवा देते बड़ा किरपा रहता. हमरा कहने का मतलब ऊ बाबाजी वाला किरपा नहीं चाहिए हमको."

मुझे हँसी आ गई. वे बोले; "हंसिये मत. आ ई बोल के हम किलीयर कर दिए हैं कि हम किरपा के बदले दसबंद नहीं देंगे आपको."

मैंने इंतजाम कर दिया है. रतिराम जी की टैक्सी जल्द ही निकल जायेगी सड़क पर.

Monday, April 16, 2012

ट्वीटपथ, ट्वीटपथ, ट्वीटपथ




एक पैरोडियात्मक ट्विटर गान बांचिये.

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ट्वीट हों छोटे-बड़े
या हों ड्राफ्ट में पड़े
एक भी आर टी
मांग मत, मांग मत, मांग मत
ट्वीटपथ, ट्वीटपथ, ट्वीटपथ

होवे चाहे सुप्रभात
चाहे हो क्रिकेट की बात
ट्वीटर की हैंडल
टांग मत, टांग मत, टांग मत
ट्वीटपथ, ट्वीटपथ, ट्वीटपथ

आर टी मिले नहीं
मुख कभी खिले नहीं
ट्वीट किये चलता जा
भाग मत, भाग मत, भाग मत
ट्वीटपथ, ट्वीटपथ, ट्वीटपथ

सुबह शाम ट्वीट कर
आफिस हो चाहे घर
बैकलॉग भूल जा
जाग मत, जाग मत, जाग मत
ट्वीटपथ, ट्वीटपथ, ट्वीटपथ

फालोवर्स काऊंटिंग
प्रेशर इज माऊंटिंग
सभी को अट्रैक्ट कर
झटपट, झटपट, झटपट
ट्वीटपथ, ट्वीटपथ, ट्वीटपथ

Saturday, April 14, 2012

विधायक जी




वे एक बार फिर से विधायक चुन दिए गए हैं. शहर से निकलने वाले अखबार के पेज चार पर छपे हर विज्ञापन में उनकी तस्वीर है. तस्वीर के दोनों तरफ दो और तस्वीरें हैं. इन तीन तस्वीरों के नीचे कुछ और तस्वीरें. जिस तरह से उनकी तस्वीर को बाकी तस्वीरों ने घेर लिया है उसे देखकर लग रहा है कि उनकी तस्वीर कोई तस्वीर नहीं बल्कि गठबंधन वाली कोई सरकार है और बाकी की तस्वीरों ने बिना शर्त समर्थन देते हुए उसे थाम रखा है. वैसे कभी-कभी यह भी लगता है जैसे उन्हें थामने का महत्वपूर्ण काम उनकी मूंछों ने कर रखा है. बाकी की छपी तस्वीरें सारी साइड हीरो के रोल में हैं. लीड रोल में तो जी मूंछें ही हैं.

ये विज्ञापन इस बात की सूचना देते हैं कि उनकी जीत ऐतिहासिक है. शायद इसलिए कि जेल में रहते हुए विधायक जी तीसरी बार चुन दिए गए हैं. उनके समर्थकों को शायद इस बात पर विश्वास है कि हजारों वर्ष पहले मथुरा की जेल में हुई सबसे बड़ी ऐतिहासिक घटना के बाद जनता द्वारा उनका चुन दिया जाना भारतवर्ष के इतिहास में दूसरी सबसे बड़ी ऐतिहासिक घटना है.

छपी तस्वीरों में बने उनके चेहरे पर विनम्रता के सारे लक्षण हैं. जुड़े हुए हाथ. शालीन चेहरा. विनम्र कुर्ते का विनम्र कालर. विनम्र पोज और विनम्र ही चश्मा. यहाँ तक कि अँगुलियों में पड़ी अगूठियाँ भी कुछ कम विनम्र नहीं दिख रही. विनम्रता का हाल यह है कि महाराणा स्टाइल वाली उनकी मूंछें तक विनम्र लग रही हैं. मानो धमकी दे रही हों कि मैं तो ऐसे ही विनम्र दिखूंगी, जाओ जो उखाड़ना हो, उखाड़ लो. कुल मिलाकर मूंछों की विनम्रता ऐसी कि शायद ही कोई इन मूंछों से आँखें मिलाने की हिम्मत कर सके.

एक विज्ञापन में छपी तस्वीरों के ऊपर संस्कृत का श्लोक टीप दिया गया है जिसे देखकर लग रहा है कि इस श्लोक को विधायक जी को पवित्र बनाने के काम में लगा दिया गया है और वह आज काम पूरा करके ही लौटेगा.

इन तस्वीरों के अलावा इस पेज पर छोटे कालम के तीन समाचार छपे है. एक के अनुसार हनुमान मंदिर के पास शनिवार को बाइक के धक्के से एक युवती गंभीर रूप से घायल हो गई. दूसरे समाचार के अनुसार श्रम विभाग द्वारा चलाये जा रहे बाल श्रम विद्यालय अब सबेरे साढ़े सात बजे खुलेंगे और तीसरे के अनुसार थाना क्षेत्र अंतर्गत अवैध ढंग से बेंची जा रही सीमेंट पकड़ी गई.

विज्ञापनों के बीच छपे ये समाचार इस कागज़ को अखबार का पेज बना रहे हैं.

उनकी जीत की ख़ुशी में उनकी 'फैमिली' ने सहस्त्र चंडी पाठ का आयोजन किया है जिसमें उनकी पार्टी के दो नंबर वाले दो नेता आये हैं. इनमें से एक को द्वारिकाधीश का भाई शायद इसलिए करार दिया गया है ताकि विधायक जी को सुदामा बताया जा सके और उनके गाँव-घर को सुदामानगरी. मूछों वाले सुदामा विज्ञापनों में खूब फब रहे हैं. इन विज्ञापनों के प्रायोजक इलाके के साइड नेता, उप नेता, नरम नेता, गरम नेता, व्यापारी नेता, जिला परिषद् के सदस्य वगैरह हैं. देखने से ये लोग़ विधायक-प्रेमी मालूम होते हैं.

विधायक जी की फैमिली ने इलाके की जनता का आभार प्रकट किया है. उधर जनता ने विधायक जी का आभार प्रकट किया है. उधर विधायक जी ने जनता को धन्य बताया तो लगे हाथ जनता ने भी विधायक जी को धन्य करार दे दिया. दोनों एक-दूसरे को धन्य बता रहे हैं. दोनों को देख कर लग रहा है कि आसमान में खड़े देवता इस समय इनके ऊपर पक्के तौर पर पुष्पवर्षा कर रहे होंगे. इन दोनों 'पार्टियों' की धन्यता मिलकर लोकतंत्र को धन्य बना रही है. इस तरह पूरा इलाका पिछले एक महीने से धन्य हुआ जा रहा है.

कुल मिलाकर चुनाव के बाद इस धन्य मौसम में इलाके की धन्यता नदी खतरे के निशान से ऊपर बह रही है.

फैमिली का नागरिक अभिनन्दन रोज हो रहा है. सोमवार को अभिनन्दन हो लिया तो लोग़ मंगलवार का कार्यक्रम बन रहा हैं. बुधवार, वृहस्पतिवार और शुक्रवार भी पीछे नहीं हैं. आलम यह है कि विधायक जी की 'फैमिली' हफ्ते के सातों दिन बुक है. फैमिली के लोग़ वक्तव्य दे रहे हैं और अखबार उन्हें छाप दे रहे हैं. अखबार भी बेचारे क्या करें? वक्तव्य मिले या विज्ञापन, छापने के लिए ही मिले हैं.

एक रोज नागरिकों ने मिलकर विधायक जी की बेटी को ३४ किलो की माला पहना दी. चार लोग़ माला पकड़कर खड़े हुए तब जाकर फोटो खींची जा सकी. एक और अभिनन्दन में उनकी पत्नी को चाँदी की तलवार भेंट कर दी गई. हाथ में तलवार उठाये उनकी फोटो देखकर लगा मानो वहीँ से छलांग लगाकर घोड़े पर सवार होंगी और अंग्रेजों से बदला लेने लन्दन तक घोड़ा दौड़ा देंगी.

कुल मिलाकर बिकट लोकतंत्रीय महौल की सृष्टि हुई है. धन्यता के इस मौसम में हर कोई खुद को विधायक जी से जोड़ने के लिए कमर कसे दिखाई दे रहा है. उनसे जुड़ने के लिए हर कोई नए नए रास्ते तलाश रहा है. नई-नई कहानियां गढ़ी जा रही हैं.

"अरे, पप्पू के वियाह में आये थे. अरे हाँ, यही पप्पू. अपने भइया के बड़े लड़के. अरे चार-चार बाडीगार्ड. ये बड़े-बड़े. हाथ में स्टेनगन लिए हुए. बाकी खाना नहीं खाया उन्होंने. मन्त्र लिए हैं न. बाहर नहीं खाते. देवी भक्त इतने बड़े कि कोई मंगलवार नागा नहीं जाता था कि वो 'बिन्धाजल' बिन्ध्वासिनी के दरबार में दर्शन करने न जाते हों."

"बहुत कोशिश की सी आई डी ने पकड़ने की. बाकी कोई तरकीब काम नहीं आई. दिमाग ऐसा कि पुलिस को झांसा देना उनके बायें हाथ का खेल समझिये. एक बार रात को हमारी चाह दूकान पर आये. बोले बढ़िया चाह बनाओ. हाँ तो हमने भी जो चाह बनाई तो बोले कि महराज कलकत्ता घूमे, बम्बई घूमे, दिल्ली घूमे लेकिन ऐसी चाह कहीं नहीं मिलती."

"अरे, हमारे गुड्डू तो उन्ही की गाड़ी चलाते हैं. आजतक पुलिस, थाना, कोरट कहीं भी मेरा काम रुका नहीं. उन्ही की वजह से दरोगा भी सलूट मारता है गुड्डू को."

"अरे उनके कुत्ते ने मुझे काट लिया था. एक बार क्या हुआ कि हम मिलने गए उनके घर पर. देखते क्या हैं कि ओसारे में कुत्ता बैठा. कुत्ता तो क्या स्साला देखने में पूरा शेर. इधर हम ओसारे में घुसे उधर वोह भौंका. उधर हा हा करते करते यही जांघ में दांत घुसा दिया. वो तो उनका बाडीगार्ड पकड़ा नहीं होता तो किलो भर मांस निकाल लेता की. हाँ तो फिर तुरंत फोन करके डाक्टर बुलाये. चौदह इंजेक्शन लगा था."

कुल मिलाकर उन्हें जानने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. किसी न किसी चाय-पान की दूकान पर कोई न कोई दूर का रिश्तेदार मिल ही जाएगा. मौसी की जेठानी के छोटे लड़के के बड़े स्साले से लेकर साढू के साले के नाती तक हर जगह विराजमान हैं. अब उनके ऊपर चल रहे मुक़दमे हटाने की मांग भी उठने लगी है.

साथ ही उठ रहा है भारत का लोकतंत्र.

Monday, April 2, 2012

भारतीयता का रेखाशास्त्र




गरीबी की रेखा खींच दी गई. खिंचाई के बाद जो लोग़ रेखा के नीचे मिले उन्हें गरीब करार दे दिया गया. रेखा के ऊपर बरामद हुए लोगों को शायद अमीर करार देने का प्लान भी बना होगा लेकिन बाकी मुद्दों की तरह इस मुद्दे पर भी ऐन मौके पर सरकार पीछे हट गई होगी. पहले प्लान यह था ३२ रूपये वाली रेखा के नीचे जो लोग़ मिलेंगे उन्हें गरीब पुकारा जाएगा लेकिन शायद योजना आयोग को लगा कि ३२ रुपया में से तो गरीब कुछ बचा भी लेगा और उसमें से कुछ निवेश वगैरह कर देगा तो फिर इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को उसके इनकम का भी हिसाब-किताब रखना पड़ेगा लिहाजा ३२ रूपये को घटा कर २८ रूपये कर देना ही श्रेयस्कर है.

तो २८ रूपये वाली इस रेखा की खिचाई इसलिए की गई ताकि गरीबी और गरीबों को सुरक्षा प्रदान की जा सके. इस रेखा के खिंच जाने के बाद गरीब अब सीक्योर्ड फील करेगा. एक तरह से यह रेखा गरीब के लिए कवच-कुंडल का काम करेगी. वह यह सोचकर खुश हो लेगा कि अब उसकी गरीबी उससे कोई छीन नहीं सकता. जहाँ गरीब इस बात के लिए खुश होगा वहीँ विश्व बैंक और सरकार यह सोचकर खुश होते रहेंगे कि इस रेखा ने तमाम लोगों को गरीब नहीं रहने दिया.

गरीबी की इस रेखा के खिंच जाने से एक बात और साबित हुई कि पूरी दुनियाँ जिन्हें अर्थशास्त्री समझती रही वे रेखागणित के विद्वान निकले. रेखागणित ने अर्थशास्त्र को पीछे छोड़ दिया. यह बात भी साबित हुई कि भारत अब उन दिनों ने बहुत आगे निकाल आया है जब अर्थशास्त्र को पीछे छोड़ने का काम साहित्य के जिम्मे था. तब गरीबी और गरीबों को हटाने के लिए नारे लिखने पड़ते थे. जैसे सत्तर के दशक में साहित्य ने नारे के सहारे अर्थशास्त्र को पीछे छोड़ा था. नारा लगा था; गरीबी हटाओ.

यह बात और है कि शायद गरीबी का साहित्य में विश्वास नहीं था लिहाजा वह नहीं हटी. अपनी जिद पर अड़ी रही और कालांतर में रेखागणित का सहारा लेना पड़ा.

हमारे देश में रेखाओं का महत्व पुराने समय से रहा है. जब तक हस्त रेखा और मस्तक रेखा ने रेखाशास्त्र में अपनी एंट्री नहीं करवाई थी, तबतक भारतीय संस्कृति में लक्ष्मण रेखा की मोनोपोली थी. लोग़ लक्ष्मण रेखा से काम चलाते थे. वे अपनी इच्छानुसार लक्ष्मण रेखा खींच भी लेते थे और उसे लांघ भी लेते थे. उनके इस कर्म से न सिर्फ लक्ष्मण रेखा की अपितु श्री लक्ष्मण जी की भी प्रासंगिकता बनी रहती थी. महान कवि और ऋषि बाल्मीकि जी के अनुसार इस रेखा की खिंचाई लक्ष्मण जी ने इसलिए की थी ताकि सीता जी सुरक्षित रहें. यह रेखा सीता जी के लिए सुरक्षा-घेरा का कार्य करने के लिए बनाई गई थी क्योंकि रामायण काल में जेड कैटेगरी सुरक्षा का आविष्कार नहीं हुआ था.

जहाँ बाल्मीकि जी ऐसा मानते थे वहीँ महान महिला-विमर्श एक्सपर्ट बसंती देवी का मानना है कि लक्ष्मण जी ने इस रेखा को इसलिए खींचा था ताकि भविष्य में महिलाओं पर तरह-तरह के प्रतिबन्ध लगाए जा सकें और उन्हें घर से निकलने की मनाही रहे.

लक्ष्मण रेखा को खींचते और लांघते देशवासी अपनी जीवन रेखा खींचने में लगे हुए थे तभी उनके जीवन में उस समय आमूल-चूल परिवर्तन आया जब ज्योतिषियों ने हस्त-रेखा और मस्तक रेखा का आविष्कार कर डाला. उन्होंने न सिर्फ इन रेखाओं का आविष्कार किया बल्कि उनकी पढ़ाई भी शुरू कर दी. साथ ही इन पढ़ाकू ज्योतिषियों ने जनता को बताया कि ये दोनों रेखाएं बाकी सभी रेखाओं से श्रेष्ठ हैं क्योंकि ये उनकी जीवनरेखा को प्रभावित करती हैं. उनकी इस घोषणा से जनता को लगा कि इन रेखाओं का अनुसरण करना उनका कर्त्तव्य है. धीरे-धीरे जनता इन ज्योतिषियों के साथ-साथ अपनी-अपनी हस्त और मस्तक रेखा पर अपना विश्वास कायम करती गई. ज्योतिषियों का रेखा-पठन कार्य जो तब आरम्भ हुआ, आजतक चल रहा है.

ज्योतिषियों के इस महत्वपूर्ण सिद्धांत को तब और बल मिला जब इस सिद्धांत ने एक क्रांतिकारी शायर को न सिर्फ प्रभावित किया बल्कि उससे यह भी लिखवाया कि; "रेखाओं का खेल है मुकद्दर....". इस शायर के अनुसार रेखाएं जो खेला करती हैं उसी से मुकद्दर निकलता है और यही मुकद्दर सब को अमीर, गरीब, दुःख-सुख, धन-धान्य वगैरह से नवाजता है. ज्योतिषियों से प्रभावित जनता के ऊपर शायर का प्रभाव आया तो जनता डबल प्रभावित हुई और अपने मुकद्दर को सराह कर या फिर कराह कर अपना काम चलाती रही.

वैसे हाल ही में लोकल शायर कट्टा कानपुरी ने गरीब के हवाले से एक बड़ा ही ओरिजिनल शेर कहा. बोले;

मैं गरीबी रेखा के नीचे सही मेरा वजूद कुछ तो है,
रहा करे जो मुकद्दर मेरी तलाश में है:-)

रेखा खिंच जाने के बाद अब मुकद्दर भी चाहे तो एक गरीब से उसकी गरीबी नहीं छीन सकता. गरीब भी अपनी गरीबी छिनने के विरुद्ध है. वह आखिर ऐसा क्यों करे? उसे सब्सिडी की प्राप्ति कैसे होगी?

रेखाओं के इस खेल में एक रेखा और जुड़ी जब हमारे जीवन में सरल रेखा ने प्रवेश किया. रेखागणित पढ़ानेवाले अध्यापक ने यह राज खोला कि लक्ष्मण रेखा, हस्त रेखा, मस्तिष्क रेखा के अलावा एक और रेखा होती है जिसे सरल रेखा कहते हैं. इन्होने लगे हाथ यह भी बताया कि दो बिन्दुओं के बीच की न्यूनतम दूरी को सरल रेखा कहते हैं. सरल रेखा की इस परिभाषा ने लोगों को इतना प्रभावित किया कि हमने सरल रेखा का सहारा लेकर फिल्मस्टार रेखा और बिंदु पर तमाम चुटकुले बनाये जिससे पूरे भारत का मनोरंजन होता रहा. वैसे हमारे मोहल्ले के अनुभवी क्रांतिकारी सूमू दा का यह मानना था कि ऐसे चुटकुले जानबूझकर बनाये गए ताकि जनता रेखा और बिंदु की बात करती रहे और उसका ध्यान मूल समस्याओं से हटा रहे. पता नहीं यह कितना सच है लेकिन मुझे याद है कि इन चुटकुलों से जनता ने अपना मनोरंजन खूब किया था.

सरल रेखा की बात पर मुझे मेरे गणित के ट्यूशन टीचर की याद भी याद आई. हम जब उनके घर ट्यूशन पढ़ने जाते थे तब वे हमें बैठाकर यह कह कर निकल जाते थे कि; "एक्स और वाई के बीच एक सरल रेखा खींचो." वे इतना कहकर दूसरे रूम में चले जाते और लगभग पैंतालीस मिनट बाद बाकायदा चाय-नाश्ता करके आते. आने के बाद वे सबकी सरल रेखाएं देखते और बताते कि कैसे सरल रेखा केवल दिखने में सरल होती है लेकिन खींचने में बहुत कठिन होती है. हम उनदिनों बड़े सरल होते थे इसलिए कभी उनसे बहस नहीं किया.

अब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है कि अगर किसी तरह से सरल रेखा कि खिंचाई सीख जाते तो शायद गरीबी रेखा को लेकर इतना हलकान नहीं होते.