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Wednesday, May 25, 2011

वर्ल्ड क्लास या थर्ड क्लास? बहस जारी है.




पिछले एक वर्ष में भारत एक बहस प्रधान देश बनकर उभरा है. ज्यादा पीछे जाने की ज़रुरत नहीं. भट्टा परसौल को ही ले लें. सत्तर फीट लम्बी राख(?) या सत्तर फीट ऊंची राख में सत्तर लोगों की लाशें समा सकती हैं या नहीं उसपर बहस हो ही रही थी कि विद्वानों ने इस बात पर बहस छेड़ दी कि कनीमोई को महिला होने के नाते बेल मिल जाना चाहिए या नहीं? कुछ लोगों ने उसके उलट यह बहस शुरू कर दी कि क्या यूपीए ने कनीमोई को महिला होने के नाते फँसा दिया? ऐसे विद्वानों की बात काटने का काम दूसरी तरफ के विद्वानों ने यह कह कर किया कि यूपीए में महिलाओं की बहुत इज्ज़त है. उदहारण के तौर पर श्रीमती सोनिया गाँधी का नाम लिया गया.

उसके बाद यूपीए-दो के दो वर्षों के शासनकाल की उपलब्धियों पर बहस शुरू हुई ही थी कि जयराम रमेश ने यह बहस छेड़ दी कि आईआईटी और आईआईएम वर्ल्ड क्लास हैं या नहीं? रमेश जी का मतलब शायद यह था कि जब वे पढ़ते थे तब ये संस्थाएं वर्ल्ड क्लास थीं लेकिन अब चूंकि जमाना ख़राब हो गया है इसलिए अब ये संस्थाएं वर्ल्ड क्लास नहीं रहीं.

आईआईटी और आईआईएम के क्लास की जानकारी देते श्री जयराम रमेश

जयराम रमेश की बात पर लालू प्रसाद यादव जी बहुत नाराज़ हुए. एक संवाददाता सम्मलेन में श्री रमेश की आलोचना करते हुए लालू जी ने कहा; "ई जो है हमें बदनाम करने का साजिश है. आज हम सरकार में नहीं हैं, आ एही बास्ते हमको नीचा दिखा रहा है लोग़. काहे से कि हम आईआईएम में पढ़ाने गए थे इसीलिए उसके बारे में अईसा कह रहा है सब. आ अच्छा हुआ हम बिहार का किसी प्राइमरी इस्कूल में नहीं पढाये. हम जदी आईआईएम में न पढ़ाकर बिहारे के कोई प्राइमरी इस्कूल में पढ़ाते त एही लोग़ ऊ प्राइमरी इस्कूल के बारे में भी कह देता कि ऊ भल्ड क्लास नै है. बाकी हमको ई बात भी कहनी है कि ई सब संस्था को भल्ड क्लास का न बताने से देश का सेकुलर ताकत कम होगा. हम ई बात का भंडाफोड़ करेंगे कि ई बयान देने से पहिले रमेश जी जो हैं ऊ नितीश कुमार से मिले थे. इसमें कहीं न कहीं जो है नितीश का हाथ है."

जयराम रमेश के बयान पर अपनी प्रतिक्रिया देते श्री लालू प्रसाद जी

लालू जी की इस बात का खंडन करते हुए नितीश कुमार जी ने मुस्कुराते हुए एक प्रेस कांफेरेंस में कहा; "आ ऊ पगला गए हैं."

कुछ विशेषज्ञों ने श्री रमेश के इस बयान को दलित विरोधी करार दिया. जब देश के प्रसिद्द विश्लेषक श्री योगेन्द्र यादव से जयराम रमेश के बयान पर उनकी राय के लिए सवाल किया गया तो उन्होंने बताया कि; "जयराम रमेश का यह बयान दलित विरोधी नहीं है."

योगेन्द्र यादव इस बात की पुष्टि करते हुए कि जयराम रमेश का बयान दलित विरोधी नहीं है

श्री यादव के इस विश्लेषण का असर यह हुआ कि देश के कई शहरों में जयराम रमेश का विरोध प्रदर्शन करने के लिए तैयार दलित युवकों ने फिलहाल अपना प्रदर्शन स्थगित कर दिया है.

उधर इन संस्थानों के वर्ल्ड क्लास होने या न होने की बहस टीवी स्टूडियो से भी दूर नहीं रह सकी. कल सीएनएन-आईबीएन पर एक विश्लेषण में राजदीप सरदेसाई के साथ बात करते हुए योगेन्द्र यादव ने जयराम रमेश के इस बयान पर उनके सहयोगियों द्वारा किये गए ओपिनियन पोल का खुलासा करते हुए बताया; "राजदीप, फिफ्टी परसेंट लीडर्स इन यूपीए थिंक दैट व्हाटेवर मिस्टर रमेश हैज सेड इज करेक्ट. ह्वेयरऐज थर्टी टू परसेंट लीडर्स ऑफ एनडीए थिंक दैट मिस्टर रमेश इज राइट. ओनली एटीन परसेंट लीडर्स ऑफ द अदर पार्टीज लाइक सीपीआई, सीपीआई (एम), एआईएडीएमके, टीडीपी थिंक दैट जयराम रमेश इज करेक्ट ह्वेन ही सेज दैट दीज इंस्टीच्यूशंस आर नॉट वर्ल्ड क्लास."

इस ओपिनियन पोल के बारे में अपनी राय देते हुए प्रसिद्द इतिहासकार श्री रामचंद्र गुहा ने याद दिलाया कि कैसे एक बार गाँधी जी ने भी विश्वभारती की आलोचना की थी और उसे बड़ा संस्थान मानने से इन्कार कर दिया था.

राजदीप सरदेसाई के साथ अपने ओपिनियन पोल का विश्लेषण करते योगेन्द्र यादव

राजदीप सरदेसाई के कम्पीटीटर अरनब गोस्वामी ने भी अपने चैनल टाइम्स नाऊ पर अपने प्रोग्राम न्यूज-आवर में एक पैनल डिस्कशन के दौरान कहा; "ह्वेन योर चैनल केम अप विद द प्रूफ दैट स्टैण्डर्ड इन दीज इंस्टीच्यूशंस हैज बीन डिक्लाइनिन्ग सिंस पास्ट कपुल ऑफ डिकेड्स, पीपुल्स लाइक कलमाडी, जयराम रमेश एंड राजा हैड क्रिटीसाइज्ड अस. नाऊ दोज सेम पीपुल्स आर सेयिंग ह्वाट योर चैनल हैज बीन सेयिंग फोर सो मेनी ईयर्स."

अरनब गोस्वामी ने जयराम रमेश के इस बयान को टाइम्स नाऊ इफेक्ट बताते हुए कहा; "वी स्टैंड विंडिकेटेड अगेन."

मुद्दे पर बहस के दौरान टाइम्स नाऊ के स्टूडियो में अरनब गोस्वामी


खबर यह भी है अरनब गोस्वामी ने न्यूज आवर पर इस पैनल डिस्कशन में बोलने के लिए रेणुका चौधरी को भी इनवाइट किया था लेकिन वे इसलिए नहीं आईं क्योंकि उन्हें यह शक था कि अरनब गोस्वामी उनसे हसन अली द्वारा उन्हें भेंट किये गए एक करोड़ बीस लाख रूपये के हीरों की बाबत कोई सवाल न पूछ लें.

परेशान रेणुका चौधरी

आज सुबह से यह खबर भी है कि द हिंदु में छपे एक विकिलीक्स केबिल के अनुसार साल २००७ में अमेरिकी दूतावास के एक अधिकारी के साथ अपनी बातचीत में जयराम रमेश ने आईआईटी और आईआईएम को विश्वस्तरीय बताया था.

चूंकि यह मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है इसलिए इसपर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी ने भी अपनी राय दी. ममता जी ने मीडिया के सामने एक महिला को प्रस्तुत किया जिसके बेटे का एडमिशन फीस न देने के कारण आईआईटी में नहीं हो पा रहा था. ममता जी ने उस महिला को चीफ मिनिस्टर रिलीफ फंड से पाँच लाख रूपये देने का एलान करते हुए जयराम रमेश के बयान के बारे में कहा; "लुक आई ऐम ए पीपुल्स चीफ मिनिस्टोर. अगर पीपुल चाहेगा तो हम इसका बारे में केंद्र सोरकार से बात करुँगी. हमको तो लगता है कि जोदि आई आई टी औउर आई आई एम का अस्तोर गिरा है तो इसमें बाम फ्रोन्ट का हाथ है."

पत्रकारों को एक माँ से मिलवाते हुई सुश्री ममता बनर्जी

कल शाम आईपीएल में खेले जा रहे तथाकथित क्रिकेट के बारे में अपने एक्सपर्ट कमेन्ट के बीच जब नवजोत सिंह सिद्धू से जयराम रमेश के बयान के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा; "देख सुन ले गुरु, जयराम रमेश क्या हैं? एक नेता हैं. और नेता कौन होता है? गुरु नेता वो होता जो लोगों को आपस में जोड़ सकता है. उन्हें तोड़ सकता है. हाथ जोड़ सकता है तो गर्दन भी मरोड़ सकता है. नेता मासूम है तो नेता माजीद भी है. कभी दिलदार है तो कभी बत्तमीज भी है. नेता की गहराई को समझना उतना आसान नहीं गुरु, ये वो खुजली है जो नुक्कड़ की पान दुकान से लेकर संसद तक फैली है. जो बन्दों को उलझा दे ऐसी चम्बल की वैली है और कुल मिलाकर गुरु राम तेरी गंगा मैली है."

स्टूडियो में बैठे भूतपूर्व क्रिकेटर अरुण लाल ने हमेशा की तरह इस बात पर भी नवजोत सिद्धू का विरोध किया.

श्री रमेश के बारे में अपनी राय देते हुए श्री सिद्धू

इस मुद्दे पर अपने बयान में राहुल गाँधी ने कहा; "आज अगर नेहरु-गाँधी परिवार का कोई मेंबर देश का प्रधानमंत्री होता तो आईआईटी और आईआईएम का स्टैण्डर्ड नहीं गिरता."

कुछ टीवी चैनलों और अखबारों ने हमेशा की तरह श्री गाँधी के बयान की सराहना करते हुए उनके अन्दर देश के भविष्य का दर्शन कर डाला. एक अखबार ने इसी मौके पर एक सर्वे छापते हुए बताया कि उनके इस बयान की वजह से देश की छिहत्तर प्रतिशत जनता राहुल जी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है.

उधर कर्णाटक के मुख्यमंत्री श्री येदुरप्पा, जो फिलहाल दिल्ली के दौरे पर हैं, से मीडिया ने जब जयराम रमेश के बयान पर प्रतिक्रिया लेनी चाही तो उन्होंने छूटते ही मीडिया वालों से यह सवाल किया कि; "एक आईआईटी बनाने के लिए कितनी ज़मीन लगती है?"

चूंकि किसी पत्रकार के पास इस बात का जवाब नहीं था इसलिए बातचीत आगे नहीं बढ़ पाई.

आज दोपहर बंगलुरु में एक भवन का उद्घाटन करने के बाद बातचीत के दौरान कर्णाटक के राज्यपाल श्री हंसराज भारद्वाज ने श्री रमेश के बयान पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा; "श्री रमेश ने जो कहा है वह मुझे शत-प्रतिशत सही लगता है और मैं आपसब को बता दूँ कि अगर मैं मानव संसाधन विकास मंत्री होता तो देश के आईआईटी और आईआईएम की सरकारों को गिरा देता...सॉरी सॉरी मेरा मतलब मैं उनके बोर्ड ऑफ गवर्नर्स को डिशमिश कर देता."

बोर्ड ऑफ गवर्नर्स को डिशमिश करने की बात करते श्री भारद्वाज

श्री रमेश के बयान की वजह से केन्द्रीय सरकार के सभी मंत्रियों को भारी मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है. जब वित्तमंत्री प्रनब मुखर्जी से एक पत्रकार ने श्री रमेश के बयान के बारे में बोलने को कहा तो उन्होंने पहले सोचने के लिए करीब पंद्रह मिनट माँगा और फिर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा; "उइ होप दैट दीस फालिंग स्टेंडोर्ड आफ दीज ईंसीट्यूशोंस उविल नॉट आफेक्ट आभर जीडीपी ग्रोथ ऐंड इंडिया उविल कांटिन्यू टू ग्रो बाइ एट एंड आ हाफ पारसेंट."

अपने विचार व्यक्त करने से पहले सोचते हुए वित्तमंत्री श्री प्रनब मुखर्जी

वित्तमंत्री श्री प्रनब मुखर्जी की बात का समर्थन प्रधानमंत्री ने भी किया. अफ्रीका दौरे पर जाने से पहले जब पत्रकारों ने प्रधानमंत्री से श्री रमेश के बयान के बारे में पूछा तो उनका जवाब था; "इंडिया इज फास्टेस्ट ग्रोविंग इकॉनोमी इन द वर्ल्ड. दिज शोज दैट आई आई टी एंड आई आई एम आर वर्ल्ड क्लास इंस्टीच्यूशंस."

तिहार जेल में रह रही अपनी बेटी कनीमोई से मिलने आये तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री श्री करूणानिधि ने श्री जयराम रमेश के इस बयान को समर्थन करते हुए कहा; "आईआईटी यई पत्ती तंबी जयरामइन करुत्तु~ एनक्कु~ मुनकुट्टी आग्वे थेरियुम अड्नाल थान नान~ एन~ मगन~ अड़गीरी अंग पडिक्क~ अनुप्प~~विल्लइ~"

(जो लोग़ यह सोचकर आश्चर्य कर रहे हैं कि श्री करूणानिधि के कहने का तात्पर्य क्या है मैं उन्हें बताना चाहूँगा कि उनके कहने का मतलब है कि वे श्री जयराम रमेश के बयान का समर्थन करते हैं और उन्हें पहले से ही पता था कि आईआईटी और आईआईएम वर्ल्ड क्लास नहीं हैं. इसीलिए उन्होंने अड़गिरी को वहाँ पढ़ने के लिए नहीं भेजा.)

श्री जयराम रमेश की बात का समर्थन करते श्री करूणानिधि

बहस जारी है अगर कोई नई खबर मिलेगी या कोई और अपना बयान जारी करेगा तो मैं यहाँ ऐड कर दूंगा. फिलहाल तो इतना ही.

Monday, May 16, 2011

नई दिल्ली, ५ जून, २०१६




दिल्ली से संवाददाता चंदू चौरसिया, चेन्नई से आर राजारामन और मुंबई से रजत सावंत

कल लगातार सत्रहवें दिन सड़क जाम, हड़ताल और हिंसा से देश भर में जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा. हालाँकि देश के कुछ प्रमुख शहरों में जनता द्वारा निकाले गए ज्यादातर जुलूस शांतिपूर्ण रहे परन्तु कुछ छोटे शहरों में स्थिति पहले जैसी बनी रही. जहाँ एक तरफ इलाहाबद में प्रदर्शनकारियों ने बुंदेलखंड एक्सप्रेस के तीन डिब्बे आग के हवाले कर दिए वहीँ आगरा में जनशताब्दी एक्सप्रेस के गार्ड और ड्राईवर को किडनैप कर लिया गया. मेरठ में जनता और पुलिस के बीच जमकर झड़पें हुईं जिनमें करीब सैतीस लोगों के घायल होने की खबर है. चंडीगढ़, जालंधर, जयपुर, वाराणसी, पटना, रायपुर, भोपाल, इंदौर, गुवाहाटी, औरंगाबाद, बंगलौर, हैदराबाद और कई महत्वपूर्ण शहरों में हिंसा की घटनाओं की वजह से जाना-माल को भारी क्षति पहुँची है.

उधर दक्षिण भारत के प्रमुख शहरों में भी हिंसा की खबर है. जहाँ चेन्नई में स्थिति कुल मिलाकर शांतिपूर्ण रही वहीँ मदुरै और कोयंबटूर में पुलिस और जनता के बीच संघर्ष में करीब सत्तर लोगों के घायल होने की खबर है. आज एक संवाददाता सम्मलेन में केन्द्रीय गृहमंत्री ने देशवासियों से अपील की है कि वे हिंसा का रास्ता त्यागकर सरकार के साथ बातचीत करें जिससे हिंसा के अलावा एक और रास्ता निकाला जा सके. उधर आज अपनी सरकार के दो वर्ष पूरे होने पर एक स्वागत समारोह में प्रधानमंत्री ने एक बार फिर से दोहराया कि देश में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं.

प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य की आलोचना करते हुए अखिल भारतीय जनता महासभा के अध्यक्ष श्री मानेक राव बाबू राव पाटिल ने मुंबई में एक संवाददाता सम्मलेन में कहा; "प्रधानमंत्री का यह बयान बेहद बचकाना है जब वे कहते हैं कि देश में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है. अभी हमारे कार्यकर्ताओं ने कल ही कोल्हापुर, सतारा और वर्धा में हिंसा की है. इससे यह साबित होता है कि हमेशा की तरह इस बार भी प्रधानमंत्री को देश के बारे में कोई जानकारी नहीं है."

उधर चेन्नई में एक जनसभा को संबोधित करते हुए अखिल भारतीय जनता महासभा की तमिलनाडु इकाई के अध्यक्ष श्री रंगनाथन एम श्रीनिवास ने कहा; "जब तक हमारी मांगे पूरी नहीं होंगी हम तमिलनाडु में हिंसा करते रहेंगे. केंद्र सरकार की तरफ से टेलीकम्यूनिकेशन मिनिस्टर ने लोकसभा में अपने एक भाषण में देश को विश्वास दिलाया था कि फोर-ज़ी स्पेक्ट्रम के ऑक्शन में उनकी तरफ से बहुत बड़ा घोटाला किया जाएगा और देश को करीब तीन लाख चौहत्तर हज़ार करोड़ रूपये का चूना लगेगा परन्तु जब हमने आर टी आई के थ्रू जानकारी हासिल की तो हमें पता चला कि यह मिनिस्टर पूरी तरह से निकम्मा है और इसके निकम्मेपन की वजह से देश को केवल एक लाख सत्तर हज़ार करोड़ का नुकशान हुआ. आपको अगर याद हो तो टू-ज़ी स्पेक्ट्रम में ही देश को कुल एक लाख सतहत्तर हज़ार करोड़ का नुकशान हुआ था. ऐसे में हम यह बर्दाश्त नहीं कर सकते कि फोर-ज़ी में किया गया घोटाला टू-ज़ी घोटाले से छोटा हो. मिनिस्टर के इस निकम्मेपन की वजह से पूरी दुनियाँ में भारतवर्ष की साख को भारी धक्का पहुँचा है."

ज्ञात हो कि सरकार और जनता के बीच हिंसा की वारदातें उस दिन से शुरू हुई हैं जब देश भर में जुलूस निकालकर जनता ने सरकार के ऊपर आरोप लगाया कि अपने दो वर्ष के अभी तक के शासनकाल में इस सरकार की तरफ से उतना भ्रष्टाचार नहीं किया जा सका जितना सरकार ने देश की जनता से वादा किया था. जनता के प्रतिनिधियों का यह आरोप है कि यह सरकार भ्रष्टाचार के मामले में किसी भी मंत्रालय के अपने टारगेट पूरा नहीं कर सकी है.

कल इंदौर में बोलते हुए अखिल भारतीय जनता महासभा की मध्यप्रदेश इकाई के महासचिव शिवभंजन सिंह ने कहा; "वर्ष २०१४ के लोकसभा चुनावों के अवसर पर इस सरकार के घोषणा पत्र पर भरोसा करते हुए हमने इसे एक बार फिर से सत्तासीन करवाया परन्तु यह सरकार अपने घोषणा पत्र में किये वादों में से कोई भी वादा ढंग से पूरा नहीं कर पाई है. एक मिनट..एक मिनट..आज आपके समक्ष मैं इस सरकार के घोषणा पत्र की एक कॉपी लेकर आया हूँ. इस घोषणा पत्र के पेज चार पैराग्राफ तीन में सरकार ने वादा करते हुए लिखा था कि अगर इसे सत्ता में पुनः वापस लाया गया तो सरकार रक्षा सौदों में करीब साठ हज़ार करोड़ रूपये का घोटाला करेगी. आप को जानकारी दूँ कि दो वर्ष हो गए इस सरकार को काम करते हुए लेकिन सी ए ज़ी की रिपोर्ट के अनुसार अभी तक केवल इक्कीस हज़ार करोड़ के घोटालों की ही जानकारी मिल पाई है. मैं पूछता हूँ जब अपने वादे के मुताबिक पाँच साल में केवल साठ हज़ार करोड़ के छोटे-मोटे घोटाले करने के अपने वादे को इस सरकार के मंत्री नहीं पूरा कर पा रहे हैं तो हम इस सरकार से क्या उम्मीद करें? ऐसे में हम चाहते हैं कि यह सरकार जल्द से जल्द इस्तीफ़ा दे जिससे देश इससे भ्रष्ट सरकार चुन सके."

उधर मध्यप्रदेश इकाई की अध्यक्षा सुश्री रेवती पटेल ने सरकार की आलोचना करते हुए कहा; "यह सरकार बेशर्म हो गई है. सात महीने पहले जब हमने अपनी मांग रखते हुए यह कहा था कि सरकार जल्द से जल्द पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी करे तो सरकार ने हमें आश्वासन दिया था कि हमारी इस मांग को मानते हुए सरकार पंद्रह दिन के भीतर पेट्रोल की कीमत १८० रूपये प्रति लीटर और डीजल की कीमत १६० रूपये प्रति लीटर करे देगी. लेकिन आज सात महीने बीत गए और अभी तक सरकार ने पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढाने की हमारी मांग को नहीं माना है. हम एक बार फिर से इस सरकार को आगाह करना चाहेंगे कि अगर अगले तीन दिन के भीतर पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढाई नहीं गईं तो हमारा आन्दोलन और हिंसक हो जाएगा."

जब वित्तमंत्री से इस बाबत सवाल पूछा गया तो उन्होंने बताया; "जनता की मांग जायज नहीं है. ऐसा नहीं है कि हम पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ाना नहीं चाहते. हम अपने वादे पर अभी भी टिके हुए हैं. मामला इस बात पर आकर अटक गया कि कीमतों में कितनी बढ़ोतरी की जाय? हम चाहते थे कि पेट्रोल की कीमत केवल बारह रूपये साठ पैसे और डीजल की केवल आठ रूपये दस पैसे बढें वहीँ जनता के प्रतिनिधि इस बात पर अड़े थे कि पेट्रोल की कीमत कम से कम सत्रह रूपये अस्सी पैसे और डीजल की कीमत कम से कम बारह रूपये पचास पैसे बढाई जाय. हम जनता के प्रतिनिधियों से बात कर रहे हैं और जल्द ही एक समझौता करके पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ा दी जायेंगी. इस बीच हम जनता से अपील करते हैं कि वह अपना आन्दोलन वापस ले ले. सरकार पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ाने के लिए वचनबद्ध है."

करीब पंद्रह दिनों से ज्यादा समय से चल रहे इन आन्दोलनों में रोज नई कड़ियाँ जुडती जा रही है. कल दोपहर नागपुर में विदर्भ किसान महासभा और पुलिस के बीच हुई झड़प में बारह पुलिस वाले और सत्रह किसान घायल हो गए. ज्ञात हो कि सरकार विदर्भ के किसानों को फर्टीलाइज़र सब्सिडी, लोन-माफी और बाकी की सहूलियतें देना चाहती है मगर किसान लेने के लिए राजी नहीं हैं. महाराष्ट्र के सबसे कद्दावर नेता श्री जवार ने सरकार की तरफ से किसानों से बातचीत करने की कोशिश की थी परन्तु किसानों ने उन्हें फटकार के भगा दिया था. श्री जवार चाहते थे कि विदर्भ के किसान करीब दो लाख करोड़ रूपये की सराकरी मदद लेने के लिए राजी हो जायें वहीँ किसान इस बात पर अड़े रहे कि उन्हें किसी सरकारी मदद की जरूरत नहीं है. अब करीब दस दिन पुराने मामले ने इतना तूल पकड़ लिया है कि किसान हिंसा पर उतारू हो गए हैं.

ज्ञात हो कि पिछले दिनों वर्तमान सरकार के दो वर्ष पूरे होने पर पी सी मेल्सन और बाउटलुक पात्रिका द्वारा किये गए सर्वेक्षण में जो तथ्य सामने आये थे उनके अनुसार भ्रष्टाचार के मामले में वर्तमान सरकार पूरी तरह से विफल रही है. सर्वे के अनुसार देश की करीब सत्तासी प्रतिशत जनसँख्या यह मानती है कि सरकार ने अपने घोषणा पत्र में किये गए भ्रष्टाचार संबंधी वादे पूरे नहीं किये. वहीँ तेरह प्रतिशत लोगों का यह मानना था कि इस सरकार को भ्रष्टाचार फ़ैलाने के अपने टारगेट को अचीव करने के लिए एक चांस देना चाहिए. ऐसे लोगों का मानना था कि भ्रष्टाचार को फ़ैलाने के अपने वादे पूरे करें के लिए केवल दो वर्ष का समय काफी नहीं है. इसलिए सरकार को और समय देना चाहिए.

आज इस अखबार के सम्पादक से बात करते हुए महान भ्रष्टाचार विशेषज्ञ श्री प्रमोद मेहता ने बताया; "हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस सरकार को पाँच साल के लिए चुना गया है. ऐसे में केवल दो सालों के भ्रष्टाचार के रेकॉर्ड्स देखकर उसे नाकारा बता देना उचित नहीं होगा. हमें धीरज रखना चाहिए. मुझे पूरा विश्वास है कि अगले तीन वर्षों के अपने शासनकाल में यह सरकार भ्रष्टाचार की स्पीड बढ़ाएगी और अपना टारगेट ज़रूर अचीव करेगी. भ्रष्टाचारियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने हाल ही में प्रधानमंत्री से मुलाकात की है और उन्हें भ्रष्टाचार के कुछ नए तरीकों को ट्राई करने की सलाह दी है. मेरे सोर्स बताते हैं कि प्रधानमन्त्री जल्द ही उन सलाहों को लागू करेंगे और अगर जरूरत पड़ी तो वे कैबिनेट रि-सफल भी करेंगे. आज जरूरत है कि देश की जनता द्वारा धैर्य न खोने की. आज ज़रुरत है कि देश की जनता प्रधानमंत्री में अपने विश्वास को कायम रखे."

विश्वस्त सूत्रों के अनुसार सरकार जल्द ही भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने देने वाली वर्तमान कैबिनेट कमिटी को रद्द कर देगी. सूत्रों का ऐसा मानना है कि प्रधानमंत्री इस हाइ-पावर्ड कैबिनेट कमिटी के कार्यों से संतुष्ट नहीं हैं. प्रधानमंत्री चाहते हैं कि इस कैबिनेट कमिटी की अध्यक्षता अब वित्तमंत्री नहीं बल्कि गृहमंत्री करें. खबर यह भी है कि अध्यक्ष बदले जाने के बाद जल्द ही यह कैबिनेट कमिटी हायती, इराक, उज्बेकिस्तान, बांग्लादेश और सूडान के दौरे पर जायेगी ताकि भ्रष्टाचार के नए तरीकों पर काम किया जा सके. ऐसी खबर भी है कि इस कमिटी के कुछ सदस्य ऐसे देशों में जाने से बच रहे हैं क्योंकि ऐसे देशों के दौरे में मज़ा नहीं आता. हाल ही में प्रधानमंत्री ने ऐसे सदस्यों को लताड़ लगाई है क्योंकि प्रधानमंत्री का मानना है कि सरकार की भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने की प्राथमिकता मंत्रियों के मौज-मजे से ऊपर है.

हाल ही में संसद को दिए गए अपने बयान में प्रधानमंत्री ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा था; "भ्रष्टाचार और घोटालों का अपना टारगेट न अचीव करने की वजह से जिस तरह से हमारी सरकार की किरकिरी हुई है वह किसी भी हालत में मान्य नहीं है. हम कोशिश करेंगे कि अगले वित्तवर्ष में हम घोटालों और भ्रष्टाचार के हमारे टारगेट पूरे करें. हम स्वीकार करते हैं कि इस वित्तवर्ष के दौरान हमारे मंत्रालयों में घोटालों की संख्या कुल ३६५ रही जो पिछले वित्तवर्ष के मुकाबले केवल तीन प्रतिशत ज्यादा है. ऐसे में हमारी कोशिश यह रहेगी कि घोटालों की ग्रोथ कम से कम जी दी पी ग्रोथ से तो ज्यादा रहे. आज मैं न सिर्फ संसद को बल्कि देश की जनता को भी विश्वास दिलाना चाहूँगा कि हमारी सरकार घोटालों में वांछित वृद्धि न होने की वजह से आहत है और हम कोशिश करेंगे कि अगले वित्तवर्ष में कुछ ज्यादत घोटाले करें जिससे इस वर्ष कम हुए घोटालों की भरपाई हो जाए."

अखिल भारतीय जनता महासभा ने प्रधानमंत्री के इस वादे पर विश्वास करने से मना कर दिया है. महासभा का मानना है कि देश की सरकारें किये गए वादे कभी पूरा नहीं करती इसलिए इस बार महासभा ने सरकार को सबक सिखाने के लिए हिंसा का सहारा लिया है. कल देश के कुछ गणमान्य व्यक्तियों से हस्तक्षेप की अपील करते हुए सरकार ने कहा है कि बुद्धिजीवी, पत्रकार और महान लोग़ आगे आयें और जनता को समझाएं. कुछ बुद्धिजीवियों ने कल राजघाट पर एक सभा की और हारमोनियम, तबले और झांझ की धुन पर प्रसिद्द भजन रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम गाकर देश की जनता को समझाने का प्रयास किया.

वैसे जनता इन बुद्धिजीवियों की बात मानेगी इस बात की संभावना कम ही है.

Wednesday, May 11, 2011

समय का अभाव है.....






इस वर्ष हम श्री रबीन्द्रनाथ टैगोर की एक सौ पचासवीं जयन्ती मना रहे हैं. इस शुभ अवसर पर तमाम कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं. प्रस्तुत है ऐसे ही एक कार्यक्रम में एक विद्वान द्वारा दिया गया लेक्चर. आप बांचिये;

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मंच पर विराजमान अध्यक्ष महोदय, अग्रज प्रोफ़ेसर धीरज लाल ज़ी और मंच के सामने बैठे सज्जनों, मैं आभारी हूँ आयोजकों का जिन्होंने गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर की एक सौ पच्चासवीं जयन्ती पर मुझे यहाँ आमंत्रित किया. उससे भी ज्यादा मैं आयोजकों का इस बात के लिए आभारी हूँ कि मेरी बात मानकर उन्होंने मुझे यहाँ बोलने का अवसर दिया. दरअसल आयोजक चाहते थे कि मैं यहाँ आकर औरों को सुनूं परन्तु मैंने उन्हें याद दिलाया कि हमारी संस्कृति में विद्वान सुनते नहीं बल्कि बोलते हैं. ऐसे में अगर मुझे बोलने के लिए आमंत्रित न किया गया तो मैं नहीं आऊंगा. फिर जयन्ती रबीन्द्रनाथ की हो या फिर तुलसीदास की, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि मैं बोलने के लिए ही विद्वान बना हूँ, अगर मुझे सुनना ही होता तो फिर विद्वान क्यों बनता?

खैर, उन्होंने मेरी बात मान ली और मुझे इस मंच से बोलने का अवसर दिया. इसके दो फायदे हुए जिन्हें हम आपस में बाँट सकते हैं. आपको इस बात का फायदा हुआ कि आप मुझे सुन सकेंगे और मुझे इसका यह फायदा हुआ कि मुझे एक बार फिर से विद्वान मान लिया गया. उस विचारधारा का विद्वान जिसके अनुसार विद्वत्ता की जो छटा बोलने में उभर कर आती है वह किसी और कर्म में नहीं उभरती. लिखने में भी नहीं.

मित्रों जैसा कि अध्यक्ष महोदय ने बताया कि समय का अभाव है और मुझे अपनी बात रखने के लिए सिर्फ पंद्रह मिनट मिले हैं, ऐसे में आपका ज्यादा समय न लेते हुए मैं अपनी बात रखना चाहूँगा. आज जब पूरी दुनियाँ संकट के दौर से गुजर रही है तब हमें रबीन्द्रनाथ याद आ रहे हैं और हम अपने आपसे सवाल कर रहे हैं कि रबीन्द्रनाथ आज के दौर में प्रासंगिक हैं या नहीं? पर मित्रों मुझे लगता है यह सवाल अपने आप में बेमानी है क्योंकि अगर रबीन्द्रनाथ की प्रासंगिकता कहीं खो जाती तो क्या आज हमलोग़ यहाँ इकत्रित होते? रबीन्द्रनाथ की प्रासंगिकता इस बात में है कि उनकी बदौलत हम साल में एक बार मिलते हैं. भाषण देते हैं. बहस करते हैं. दुनियाँ पर मंडरा रहे संकट की बात करते हैं. आप ही सोचिये, आज अगर रबीन्द्रनाथ की जयन्ती नहीं होती तो हमें क्या याद रहता कि आज पूरी दुनियाँ एक संकट के दौर से गुज़र रही है?

यह रबीन्द्रनाथ की प्रासंगिकता का ही कमाल है कि हम मिलते हैं और दुनियाँ के ऊपर छाये संकट को पहचान पाते हैं. आज हमें यह सोचने की ज़रुरत है कि अगर वे प्रासंगिक नहीं होते तो क्या दुनियाँ पर संकट मंडराता? मेरा मानना है कि ऐसा नहीं हो पाता. फिर सवाल यह उठता है कि रबीन्द्रनाथ परंपरा और आधुनिकता के बीच कहाँ है? मित्रों, रबीन्द्रनाथ परंपरा और आधुनिकता के बीच नहीं अपितु वे खुद परंपरा भी हैं और आधुनिकता भी हैं. उन्होंने परंपरा से अपने लिए पूरी तरह से एक नया दर्शन खोजा और उसी में रहकर अपने लिए आधुनिकता का रास्ता चुना और आधुनिकता में रहकर वे परंपरा को भी सुदृढ़ करते रहे.

सवाल उठता है कि आधुनिकता क्या है और परंपरा क्या है? क्या हमारी और रबीन्द्रनाथ की आधुनिकता और परम्परा की परिभाषा एक ही है? शायद ऐसा नहीं है. जो उनके लिए आधुनिकता थी वही दूसरों के लिए परंपरा हो सकती है और जो दूसरों के लिए आधुनिकता हो सकती है वही रबीन्द्रनाथ के लिए परंपरा हो सकती है. जैसा कि मुझसे पहले बोलने वाले अग्रज विद्वान प्रोफ़ेसर ने कहा, यह रबीन्द्रनाथ की विद्वत्ता ही थी जिसकी वजह से वे आधुनिकता से परम्पराएं और परम्पराओं से आधुनिकता निकाल पाए. कह सकते हैं कि रबीन्द्रनाथ आधुनिकता और परंपरा का संगम थे.

परन्तु आज यह सवाल मुँह बाए खड़ा है कि आज की तारीख में संगम कितना प्रासंगिक है? जिस संगम की कल्पना रबीन्द्रनाथ ने की थी क्या आज हमारे पास वही संगम है? क्या आज हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि हमारे पास एक आदर्श संगम है? क्या यह वही संगम है जिसकी बात पर उन्होंने लिखा था.....मुझे लगता है आज हम उस आदर्श संगम से दूर जा चुके हैं जिसमें गंगा, यमुना और सरस्वती का जल सामान रूप से रहता. इसका नतीजा यह हुआ है कि देश पर एक तरह का जल संकट छा गया है. जल की बात पर मुझे सन १९०५ में बंग भंग के अवसर पर लिखी गई उनकी कविता याद आती है जिसमें उन्होंने लिखा;

बांग्लार माटी बांग्लार जल
बांग्लार वायु बांग्लार फल
पूर्ण होक...

(तभी अध्यक्ष महोदय ने समय की कमी का इशारा किया...)

मित्रों जैसा कि आपने देखा, समय का अभाव है इसलिए मैं अपनी बात संक्षेप में कहते हुए यह याद दिलाना चाहूँगा कि रबीन्द्रनाथ ने स्वतंत्र विचारों को फलने-फूलने की जगह दी. उन्होंने इस बात में कभी भी कमी नहीं होने दी. वैसे कमी की बात पर यह कहना चाहूँगा कि आज कमी किस चीज की नहीं है? गरीब के लिए आज पानी की कमी है. भोजन की कमी है. समाज के लिए आज ईमानदारी की कमी है. सत्य की कमी है. इस कठिन समय में मित्रों सबसे बड़ी कमी तो मानवता की हो गई है. मानवता की कमी वाले इस निष्ठुर समय में रबीन्द्रनाथ और प्रासंगिक हो जाते हैं क्योंकि वे मानवतावादी थे. राष्ट्रवाद से आगे जाकर उन्होंने मानवतावाद को ही सर्वोपरि माना. वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के खतरे से वाकिफ थे. खतरे की बात चली है तो हमें यह देखने की ज़रुरत है कि आज हम अपने चारों तरफ खतरा ही खतरा देखते हैं. जो खतरा हम आज देख रहे हैं, आप सोचिये कि रबीन्द्रनाथ वही खतरा कितना पहले भांप गए थे? अगर ऐसा नहीं होता तो क्या वे लिखते कि;

चित्त......

(अध्यक्ष महोदय ने फिर से समय की कमी का इशारा किया...)

मित्रों, जैसा कि आप देख रहे हैं कि माननीय अध्यक्ष महोदय ने एक बार फिर से समय का अभाव की तरफ ध्यान आकर्षित किया है इसलिए मैं अपनी बात संक्षेप में रखते हुए आपके सामने दो-तीन बातें रखूँगा. तो मैं बात कर रहा था उस भयमुक्त समाज की जिसकी कल्पना गुरुदेव ने की थी. प्रश्न उठता है कि भयमुक्त समाज क्या है? क्या वह समाज जो भय से मुक्त हो या वह समाज जिसमें भय हो ही नहीं? इस विषय पर विद्वानों का अलग-अलग मत रहा है. मित्रों कुछ लोग तो भयमुक्त समाज की बात पर भय-मुफ्त समाज की बात करते हैं और हमें गुमराह करते हैं.

फिर वही बात है कि अगर अलग-अलग मत न हो तो हमें वह समाज ही नहीं मिलेगा जिसकी कल्पना गुरुदेव ने की थी. उनकी कल्पना उनकी कविताओं में, गीतों में, निबंधों में हर जगह व्याप्त है. यह उनकी महानता ही थी कि गाँधी ज़ी ने रबीन्द्रनाथ को गुरुदेव कहना शुरू किया था. वही रबीन्द्रनाथ ने गाँधी को महात्मा कहना शुरू किया था. दोनों एक दूसरे को बहुत सम्मान देते थे. यह अलग बात है कि बहुत से मुद्दों पर दोनों के मतभेद परिलक्षित थे. छिपे हुए नहीं थे. याद की कीजिये वह समय जब गाँधी जी के आह्वान पर देश में आन्दोलन हो रहा था, जब गाँधी ज़ी सत्याग्रह आन्दोलन कर रहे थे तब रबीन्द्रनाथ ने उन्हें सहयोग नहीं दिया था. वे इस आन्दोलन के खिलाफ थे. वे सत्याग्रह से भविष्य में होने वाले खतरे को भांप गए थे.

प्रश्न यह उठता है कि जो सत्याग्रह गाँधी ज़ी ने किया और जो सत्याग्रह अभी हाल में अन्ना हजारे ने किया, उसमें मूलतः क्या समानता है? अगर हम याद करें तो पायेंगे कि गाँधी ज़ी के सत्याग्रह को रबीन्द्रनाथ का समर्थन नहीं मिला था. वहीँ अन्ना हजारे के सत्याग्रह को भी रबीन्द्रनाथ का समर्थन.....

(अध्यक्ष महोदय समय की कमी का इशारा फिर से करते हैं....)

मित्रों समय के अभाव के चलते मैं संक्षेप में दो-तीन बातें कहकर अपना वक्तव्य समाप्त करना चाहूँगा. तो प्रश्न यह है कि गाँधी ज़ी के सत्याग्रह को रबीन्द्रनाथ का समर्थन क्यों नहीं मिला? कई बातों पर मतभेद के चलते दोनों के बीच सत्याग्रह को लेकर भी मतभेद था. कहा तो यहाँ तक जाता है कि रबीन्द्रनाथ ने अपने शिक्षकों और विद्यार्थियों को गाँधी जी के सत्याग्रह आन्दोलन को समर्थन न दिए जाने पर जोर दिया था. परन्तु क्या यह मामला उतना सरल है जितना हम समझते हैं?

सरलता की बात चली है तो यह कहना चाहूँगा कि रबीन्द्रनाथ के अन्दर एक बालक की सी सरलता था. आप उनके छंद देखिये. उनकी कवितायें देखिये जिसके केंद्र में केवल और केवल मनुष्य था. केवल और केवल मनुष्य का मन था. वे इस बात के आग्रही थे कि मनुष्य को सम्पूर्ण नीला आकाश मिलना चाहिए जिससे वह जहाँ तक चाहे उड़ान भर सके. लेकिन क्या आज की दुनियाँ में मनुष्य को वह उड़ान भरने की सहूलियत है जिसकी बात रबीन्द्रनाथ अपने लेखन में करते हैं?

जब उनके लेखन की बात चलती है तो हम पाते हैं कि वे अपने लेखन से स्वच्छंद आकाश में विचरते थे. इस गीत पर ध्यान दीजिये. वे लिखते हैं;

पागला हवा बादोल दिने
पागल आमार मोन जेगे उठे

खुद सोचिये कि कवि की दृष्टि से उन्हें प्रकृति से कितना प्रेम था? उनकी कविताओं में, गीतों में उनका प्रकृति प्रेम झलकता है. बांग्ला में जिन्हें गान कहते हैं वह उन्होंने लिखा. गान की बात चली है तो आपको याद दिलाना चाहूँगा कि रबीन्द्रनाथ ने ही हमारे राष्ट्रगान को लिखा. मित्रों हमारे राष्ट्रगान की कहानी बड़ी लम्बी है.

(एक बार फिर से अध्यक्ष महोदय समय की कमी.......)

मित्रों बस मैं अपनी बात संक्षेप में कहकर ख़त्म करना चाहूँगा कि इस वर्ष हमारे राष्ट्रगान को पूरे एक सौ वर्ष हो गए. परन्तु आश्चर्य इस बात का है कि इस महान अवसर पर देश की मीडिया में इस बात पर चर्चा नहीं हुई. वैसे अगर आप राष्ट्रगान का इतिहास देखेंगे तो पायेंगे कि वह भी कभी विवादों से परे नहीं रहा. कुछ लोगों का अनुमान है कि रबीन्द्रनाथ ने यह राष्ट्रगान जार्ज पंचम की सराहना करते हुए लिखा था. परन्तु यह कहना उचित न होगा. आपको याद हो तो उस समय के कवि बुद्धदेब बसु ने रबीन्द्रनाथ की बहुत आलोचना की थी लेकिन रबीन्द्रनाथ ने अपने एक पत्र में लिखा है...एक मिनट मैं वह पत्र पढ़कर आपको सुनाता हूँ. यह पत्र रबीन्द्रनाथ ने सन १९३६ में ......

(इस बार अध्यक्ष महोदय ने समय की कमी का इशारा नहीं किया. इस बार उन्होंने विद्वान से अपना भाषण ख़त्म करने के लिए कहा. उन्होंने यह कहते हुए भाषण ख़त्म किया; )

मित्रों जैसा कि आप देख रहे हैं, समय का अभाव है इसलिए मैं अपनी बात ख़त्म करते हुए आपको बताना चाहूँगा कि
आज मेरा विषय था "रबीन्द्रनाथ और वैश्विक मानवतावाद" परन्तु समय के अभाव में आज मैं उस विषय तक पहुँच ही नहीं सका. मुझे विश्वास है कि अगले वर्ष रबीन्द्र जयंती के शुभ अवसर मैं अपने इस पसंदीदा विषय पर अवश्य बोलूंगा. मैं धन्यवाद देता हूँ आयोजकों का जिन्होंने.....

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रबीन्द्र साहित्य को लेकर मेरा विचार यह है कि अगर आलोचकों, ज्ञानियों और जानकारों की ज्यादातर बातों को दरकिनार करके रबीन्द्र साहित्य पढ़ा जाय तो समझने में मुश्किल नहीं होगी. पढ़ने का आनंद मिलेगा सो अलग.

Monday, May 9, 2011

टैटू गाथा






जब हम अपने बचपने को गाँव में रहकर गुजार रहे थे तब एक क्रिकेटर बनने के सपने देखने के अलावा लोगों के हाथ पर उनके नाम का गोदना देखते थे. क्या कहा? गोदना का मतलब नहीं मालूम? अरे भइया, मेरे कहने का मतलब है टैटू. टैटू देखते थे. हाँ, गोदना को ही हिंदी में अब टैटू कहते है. यह उन दिनों की बात है जब एक ग्रामवासी के जीवन में गोदना का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता था. लोग़ अपना नाम बायें या दायें हाथ पर गोदवा लेते थे. अक्सर हाथों पर हमें झिंगुरी, मंगरू, रामलोचन, पदारथ, रामरती, दुलारी जैसे नाम पढ़ने को मिलते थे और हम फ़ौरन समझ जाते थे कि इस व्यक्ति का नाम वही है जो इसके हाथ पर गोदा हुआ है. मेरे बचपन में तो गाँव में एक लोकगीत भी सुनने को मिलता था जिसके शुरू के बोल थे;

कान्हा धइ के रूप जननवा, गोदइ चले गोदनवा ना

इसका मतलब यह कि श्रीकृष्ण औरत का वेश बनाकर गोदना गोदने के लिए निकले हैं.

पता नहीं अब यह लोकगीत गाँव में गुनगुनाया जाता है या नहीं? यह भी पता नहीं कि गीत किसी को याद भी है या नहीं? पिछले नवम्बर में जब गाँव गया था उस समय यह बात याद आई होती तो लोगों से पूछ कर पता लगा लेता लेकिन ऐसा हो न सका और मैं अपना सवाल अब यहाँ टीप रहा हूँ. वैसे गाँव वालों के बीच इस गीत के अभी तक रहने और गाये जाने की बात पर शंका इसलिए भी है क्योंकि बचपन अब बचपन नहीं रहा. बचपन अब नर्सरी हो गया है. इसी बदलाव के साथ कम्पीटीशन करते हुए गाँव भी अब गाँव नहीं रहे. गाँव अब ग्रामप्रधानी की सियासतगाह और 'नरेगा' की ज़मीन हो गए हैं जहाँ सरकार गांववालों को अधिकार देने और अपने फैसले खुद लेने की प्रयोगशाला चलाती है.

खैर, देखा जाय तो लोकगीत भी अब लोकगीत कहाँ रहे?

हाँ तो मैं टैटू की बात कर रहा था. कई बार ऐसा भी देखने में आता था कि कोई-कोई कलाप्रेमी ग्रामवासी केवल अपना नाम लिखवा कर ही संतुष्ट नहीं होता था. वह अपने नाम के आस-पास फूल-पत्ती वगैरह भी गोदवा लेता था. कई बार तो फूल या पत्ती वाला टैटू उसके नाम के ऊपर बनाया हुआ बरामद होता जिसे देखकर लगता कि इस फूल का नाम ही झिंगुरी या मंगरू है. कुछ-कुछ वैसा जैसे गाँव के स्कूल में पढ़ने वाले सातवीं कक्षा के विद्यार्थी ने कला कुसुम की ड्राइंग बुक में गुलाब बनाकर नीचे मंगरू लिख दिया हो.

गुलाबों के शहरी विशेषज्ञ अगर वैसे टैटू देख लेते तो मार-पीट पर उतारू हो जाते.

यह उनदिनों की बात है जब टैटू पर गांववालों का एकाधिकार टाइप था. मुझे इस बात का विश्वास है कि तब शहरों में रहने वाले अपने हाथ पर टैटू बनवाने से इसलिए कतराते होंगे क्योंकि वे टैटू को पिछड़ेपन की निशानी मानते होंगे. बाद में जब गाँवों में प्रगति हुई और गाँव मॉडर्नगति को प्राप्त हुए तब गाँव वालों ने अपने हाथों पर टैटू बनवाना बंद कर दिया. इस स्थिति से निपटने और समाज को एक बैलेंस देने के लिए टैटू के मामले में शहरवासियों ने 'पिछड़ेपन' को अपना लिया. अब वे टैटू बनवाने लगे थे.

'पिछड़ापन' एक जगह से चलकर दूसरी जगह पहुँच गया.

यह बात अलग है कि टैटू की बात पर गाँव और शहर वालों के बीच मतभेद दिखाई देने लगा. जहाँ गाँव वाले अपने हाथ पर अपना नाम गोदावाते थे वहीँ शहर वाले अपने हाथ या बांह पर अपना नाम न गोदवा कर किसी और का नाम गोदवाते हैं. यह बात भारतीय टैटू की मूल भावना के खिलाफ है. कल्पना कीजिये कि तब क्या हो सकता है जब कोई पुरायट ग्रामवासी सैफ अली खान की बांह पर करीना लिखा हुआ देखेगा? उसके गश खाकर गिरने का चांस रहेगा. वह यह सोचकर दिन भर परेशान रहेगा कि; "अरे यही करीना है? हम तो सुने थे कि करीना किसी हीरोइन का नाम है लेकिन करीना तो हीरो निकला. बाकी बातों में तो धांधली होती ही थी अब शहर में नाम के मामले में भी धांधली होने लगी है?"

उन्हें क्या पता कि सैफ अली ज़ी ने अपने प्यार को सच्चा बताने के लिए अपनी बांह पर करीना लिखवाया है.

उधर विदेशी सेलेब्रिटी अपनी बांह, पीठ और पापी पेट पर संस्कृत और हिंदी में कुछ लिखवाते हैं. डेविड बेकहम ने लिखवाया था. उसके बाद तमाम सेलेब्रिटी ने लिखवाया. किसी ने गायत्री मन्त्र की प्रिंटिंग करवा ली. कल्पना कीजिए कि अगर गाँव गडौरा के माताचरण को कभी डेविड बेकहम के दर्शन हो जायें और उन्हें डेविड बाबू की बांह पर उनकी पत्नी का लिखा हुआ नाम दिखाई दे जाय तो क्या होगा? माताचरण बाबू सोचने में फुलटाइम लीन हो जायेंगे. यह सोचते हुए उनका दिन गुजर जाएगा कि; "बिक्टोरिया तो सुने थे किसी रानी का नाम है. तो क्या यह आदमी ही रानी विक्टोरिया है?"

कालांतर में जैसा होता है वैसा ही हुआ. टैटू के साथ प्रयोग होने लगे. कुछ टैटू देखकर तो लगता है जैसे टैटू के साथ प्रयोग नहीं बल्कि प्रयोग के साथ टैटू हो रहे हैं. एक से बढ़कर एक टैटू. पीठ पर, पेट पर, हाथ पर, बांह पर. टैटू ही टैटू. तरह-तरह के टैटू. धार्मिक टैटू का अलग ही महत्त्व. एक बांह देखी. उसपर युद्ध की बात पर आना-कानी कर रहे अर्जुन को श्रीकृष्ण पाठ पढ़ा रहे थे. देखकर एक बार के लिए लगा कि महाभारत का युद्ध इसी बांह पर लड़ा गया था. आते-जाते चट्टान से दीखने वाले एक एक्टर की होर्डिंग देखता हूँ. होर्डिंग पर वह एक स्टील कंपनी की सरिया का विज्ञापन कर रहा है. उसने स्टील की सरिया इस तरह से पकड़ रखी है जिससे 'डोल्ले-सोल्ले' वाली उसकी बांह के दर्शन होते हैं जहाँ बाबा भोलेनाथ मय त्रिशूल आसन जमाये ध्यानमग्न बैठे हैं. कुछ कुछ ऐसा लगता है जैसे भोलेनाथ को कैलाश पर्वत से तड़ीपार कर दिया गया है और वे अपनी जमा-पूंजी यानि मृगछाला, पालतू सांप, त्रिशूल और चन्द्रमा लिए इस एक्टर की बांह पर आ बिराजे हैं और अब वहीँ रहेंगे.

प्रयोग में टैटू का यह हाल है कि हाथ, बांह, कलाई, हथेली, पीठ, पेट वगैरह पर टैटू बनवाकर बोर हो चुके लोग़ अब दांत पर टैटू बनवा रहे हैं. गुलाब देखने में सुन्दर लगे तो दांत पर गुलाब बनवा लिया. कोई विशेष जायके का है और उसे अगर कैक्टस अच्छा लगे तो दांत पर कैक्टस उगा लिया. जो चाहे मर्जी बनवा लिया. जो चाहे मर्जी उगा लिया. दांत अपना काम तो कर ही रहा है साथ ही साथ कैनवास का रोल भी अदा कर दे रहा है. मल्टी टास्किंग की अद्भुत मिसाल.

वैसे देखा जाय तो एक तरह से अच्छा भी है. फ़र्ज़ कीजिये किसी ने अपनी पूरी बतीसी टैटू के हवाले कर दी. मतलब हर दांत पर एक टैटू. एक पर गुलाब, एक पर कमल, एक पर सूरजमुखी एक पर गेंदा फूल. सामने वाले दांत पर कैक्टस. अब अगर कभी भी उसके दांत में दर्द हो और उसे डॉक्टर के पास जाना पड़े तब क्या होगा? जाने पर डॉक्टर पूछेगा - किस दांत में दर्द है तो इधर से जवाब जाएगा - सर ये सूरजमुखी वाला दांत कल शाम से ही बहुत दर्द कर रहा है. उसके बगल में जो गुलाब वाला है उसमें समस्या नहीं है. उसमें दर्द भी नहीं है. जवाब में डॉक्टर साहब कहेंगे - भाई समस्या है कि नहीं ये आप कैसे डिसाइड करेंगे? यह तो हम डिसाइड करेंगे. और आपको यह बताते हुए हमें अफसोस हो रहा है कि आपका गुलाब सड़ गया है. अगर इसे अभी ठीक नहीं किया गया तो ये आपके कैक्टस को भी सड़ा देगा.

पहले जो गोदना गांववालों के लिए केवल महत्वपूर्ण हुआ करता था वही अब टैटू बनकर शहर वालों के लिए अति महत्वपूर्ण हो गया है. कई केस तो ऐसे सुनने में आये कि बेटी ने राजा भरथरी स्टाइल में अपने घर का त्याग केवल इसलिए कर दिया क्योंकि उसकी माँ नहीं चाहती थी कि वह अपनी पीठ पर टैटू बनवाये. एक जगह पढ़ा कि एक सुपुत्र ने अपने माँ-बाप को खुद से इसलिए बेदखल कर दिया क्योंकि वो टैटू मेकर बनना चाहता था और उसके माँ-बाप उसे इंजिनियर बनाने पर तुले हुए थे. घरेलू महाभारत के मामले में टैटू इतना महत्वपूर्ण पहले कभी नहीं रहा. अब टैटू बनवाने और उसे बनवाने से रोकने वालों की लड़ाईयां रोज हो रही हैं. माँ-बेटी ने और बाप-बेटे ने घरों को पानीपत और प्लासी के मैदान में कन्वर्ट कर दिया है.

मुझे तो पूरा विश्वास है कि आज से दो-ढाई सौ साल बाद जब भारतीय टैटू का इतिहास लिखा जाएगा तब इतिहासकार वर्तमान समय को ही भारतीय टैटू का स्वर्णकाल बताएगा.

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आज के टाइम्स ऑफ इंडिया में यह आर्टिकिल था. टैटू आख्यान लिखने की प्रेरणा यहीं से मिली.

Thursday, May 5, 2011

एक डॉक्टर का प्रेमपत्र




हमारे शहर के डॉक्टर विद्यासागर बटबयाल महान समाजसेवी हैं. करीब अस्सी वर्ष की आयु तक उन्होंने अपनी डाक्टरी से समाज की बहुत सेवा की. बीस वर्ष पहले जब वे रिटायर हुए तो उन्हें लगा - अब समय आ गया है कि जिस प्रोफेशन ने मुझे समाजसेवा के लायक बनाया उस प्रोफेशन को वापस कुछ दिया जाय.

डॉक्टर साहब तभी से अपने डॉक्टर भाइयों और उनके परिवार की सेवा में लग गए. पिछले बीस वर्षों से वे डाक्टरों के माँ-बाप, पत्नियों और प्रेमिकाओं के लिए डाक्टरों के पत्रों/प्रेमपत्रों की लिपियों को पहचानने का काम निशुल्क कर रहे हैं. हाल ही में उनके यहाँ से रद्दी खरीदने वाले के हाथों से एक पत्र लीक हो गया. यह पत्र विदेश में पढ़ाई के लिए जाने वाले किसी डॉक्टर ने अपनी प्रेमिका को लिखा था. वैसे तो किसी का प्रेमपत्र पढ़ना अनैतिक कर्म है लेकिन कभी-कभी हमें कुछ अनैतिक भी कर लेना चाहिए नहीं तो समाज हमें नैतिकता की मूर्ति बताकर बदनाम कर सकता है.

इसलिए आप पढ़िए कि पत्र में क्या लिखा था;


प्रियतमे रजनी,

पत्र लिखने कुर्सी पर बैठा ही था कि पीठ में दर्द शुरू हो गया. चौंको मत, अब मैंने वह स्टेज हासिल कर ली है जब एक डॉक्टर को सिर की बजाय पीठ में दर्द शुरू हो जाए. दर्द की वजह से तकलीफ इतनी बढ़ गई कि सहन नहीं हो रहा था. तभी मुझे याद आया कि आज जब मैं चेंबर में था तब एक मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव आयोडेक्स की दस शीशी उपहार में थमा गया था. उठकर आलमारी से आयोडेक्स निकाला और हाथ को तोड़ते-मरोड़ते हुए जैसे-तैसे पीठ पर आयोडेक्स की मालिश की. एक बार के लिए मन में आया कि आज अगर तुम होतीं तो न सिर्फ आयोडेक्स की मालिश कर देती बल्कि साथ में लोरी भी सुनाती कि; "पीठ अगर चकराए या हाथ में दर्द सताए, आज प्यारे पास हमारे ...."

खैर, ऐसा हो न सका और मुझे खुद ही मालिश करनी पड़ी. मालिश करने से पहले मुझे लगा था कि पीठ दर्द तुरंत छू मंतर हो जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बहुत देर इंतज़ार किया फिर भी बैठा नहीं जा रहा है. इसलिए यह पत्र लेटे-लेटे ही लिख रहा हूँ.

प्रिये, लेटे हुए पत्र लिखने का परिणाम यह है कि पेन उस दिशा में आसानी से नहीं जा रही है जिस दिशा में मैं उसे ले जाना चाहता हूँ. कभी-कभी यह वैसे ही बिहैव कर रही है जैसे किसी राजनीतिक पार्टी से नाराज नेता अपने आलाकमान के साथ करता है. ऐसे में यह हो सकता है कि तुम्हें मेरी लिखाई पूरी तरह से समझ में न आए. अगर ऐसा हुआ (वैसे मुझे मालूम है कि ऐसा ही होगा. आख़िर तुमने मेरे साथ बगीचे में घूमने और आईसक्रीम खाने के सिवा किया ही क्या है? अपनी पढाई-लिखाई की वाट पहले ही लगा चुकी हो) तो फिर पहले ख़ुद से तीन-चार बार पढ़ने की कोशिश करना. उसके बाद भी समझ में न आए तो तुम्हारे मुहल्ले में जो दवा की दूकान दर्शन मेडिकल है वहाँ चली जाना. वहां पर जो पप्पू सेल्समैन है उसे मेरी हैण्ड राइटिंग समझ में आती है. वह पत्र पढ़कर समझा देगा. लेकिन हाँ, उसके पास ज्यादा देर तक मत रुकना. पत्र सुनकर तुंरत घर वापस चली जाना.

आगे समाचार यह है कि पिताजी के दबाव में आकर मुझे एमआरसीपी करने लन्दन जाना पड़ रहा है. तुम तो मेरे बारे में जानती ही हो. मुझे पिताजी के दबाव से जरा भी आश्चर्य नहीं है. दुनियाँ भर के पिताओं को दबाव बनाने के लिए अपने बेटे से ज्यादा अच्छा और कौन मिलेगा? वैसे भी मेरे पिता ज़ी तो मेरे ऊपर मेरे बचपन से ही दबाव देते रहे हैं. कभी साइंस पढ़ने का तो कभी डॉक्टर बनने का. आज अगर मैं डॉक्टर बना हूँ तो यह उनके दबाव का ही प्रताप है. मैं तो पत्रकार बनना चाहता था.

वैसे जो बात मैं तुम्हें बताना चाहता था वह यह है कि मुझे एमआरसीपी पास न कर पाने की चिंता नहीं है, वह तो मैं पास ही कर लूंगा. तुम्हें तो मालूम ही है कि पिताजी के दबाव की वजह से मैं पढ़ाई-लिखाई में हमेशा अब्बल रहा हूँ. दरअसल मुझे जिस बात की चिंता सता रही है वह कुछ और ही है. तुम्हें कैसे बताऊँ कि जब भी मैं लन्दन जाने की बात सोचता हूँ, मुझे राजेन्द्र कुमार की फिल्में याद आ जाती हैं. वो फिल्में जिनमें राजेंद्र कुमार डाक्टरी की पढ़ाई करने अमेरिका चले जाते थे और उनके जाने के बाद हिरोइन की शादी किसी और से हो जाती थी. उन फिल्मों की याद करके मेरे रोंगटे खड़े हो जा रहे हैं. अभी थोडी देर पहले ही हुए थे, दो टैबलेट खाकर मैं नार्मल हुआ हूँ.

एक बार तो मन में बात आई कि पिताजी के आदेश का पालन न करूं. फिर सोचा वे ख़ुद भी डॉक्टर हैं और उन्होंने जब इतना बड़ा नर्सिंग होम बना ही लिया है तो हमारी संस्कृति के अनुसार उस नर्सिंग होम को एक लायक वारिस भी तो चाहिए. ऐसा वारिस जो उसे चलाकर और बड़ा कर सके. तुम्हें तो मालूम है कि मैं उनका इकलौता पुत्र हूँ. ऐसे में उनके धंधे को आगे बढ़ाने का काम मुझे ही करना पड़ेगा. माँ भी कह रही थी कि मैं लन्दन जाकर एम आर सी पी की पढाई पूरी करूं. कह रही थी कि वैसे तो मैं बड़ा डॉक्टर हूँ लेकिन कल अगर और बड़ा डॉक्टर बन जाऊँगा तो कुछ अपना पैसा लगाकर और कुछ बैंक से फाइनेंस लेकर एक और नर्सिंगहोम खोल लेंगे. दो नर्सिंगहोम देखकर पिताजी कितने खुश होंगे.

उनका नर्सिंग होम उन्हें चलाएगा और मेरा मुझे.

वैसे तुम्हें निराश होने की ज़रूरत नहीं है. तुम हमेशा मेरी यादों में रहोगी. परीक्षा के पेपर और अस्पतालों को अर्जी लिखने से फुरसत मिली तो मैं तुम्हें ई-मेल भी लिखूंगा. लन्दन में अगर पढ़ाई में मेहनत से समय मिला, हालाँकि इसका चांस बहुत कम है, तो हमदोनों नेट पर चैट भी कर सकते हैं. रजनी तुम्हें याद है? मेरे पिछले जन्मदिन पर तुमने गिफ्ट स्वरुप मुझे एक आला और थर्मामीटर दिया था? मैं उन दोनों को अपने साथ लिए जा रहा हूँ. जब भी हॉस्पिटल में कोई लड़की मरीज बनकर आएगी और मैं उसका इलाज करूंगा तो मुझे लगेगा कि मैं तुम्हारा ही टेम्परेचर माप रहा हूँ और तुम्हारे ह्रदय की धड़कने ही सुन रहा हूँ. प्लीज इस बात पर ज्यादा अनुमान मत लगना. मैं तुम्हें सचमुच प्यार करता हूँ. यह बात मैं डरते-डरते लिख रहा हूँ क्योंकि मुझे पता है कि तुम मेरे ऊपर कितना शक करती हो.

मुझे पता है कि मेरे जाने के बाद तुम उदास रहने लगोगी. मैं वहां परदेश में और तुम यहाँ. तुम्हें तो बिरहिणी नायिका की भूमिका अदा करनी ही पड़ेगी. तुम्हें मेरी कसम, न मत कहना. हमारे प्यार के लिए तुम्हें ऐसा करना ही पड़ेगा. तुम्हें तो पता ही है कि जबतक प्रेम में बिरह की स्थिति न आये, वह प्रेम पकता नहीं है. वैसे जब तुम दुखी रहने लगोगी तब तुम्हारे घरवाले समझ जायेंगे कि तुम किसी के प्यार में पड़ गई हो. सब जानते हैं कि 'इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते.' ऐसे में तुम्हारे पिताजी तुम्हारी शादी करवाने की कोशिश करेंगे लेकिन तुम शादी मत करना. मैं तुम्हें सजेस्ट करता हूँ कि तुम अभी से तरह-तरह के बहाने बनाने की प्रैक्टिस शुरू कर दो. जब पिताजी शादी के लिए कहेंगे तब ये बहाने काम में लाना.

मेरे जाने के बाद जब भी मूवी देखने का मन करे तो अपनी सहेली पारो को साथ लेकर मूवी देख आना. एक बात का ध्यान रखना पारो के बॉयफ्रेंड रामदास को साथ लेकर मत जाना. वो बहुत काइयां किस्म का इंसान है. वो तुम्हें इम्प्रेश करने की कोशिश करेगा. थियेटर में ज्यादा आईसक्रीम मत खाना. तुम्हें तो मालूम ही है, तुम्हें हर तीसरे दिन जुकाम हो जाता है. हाँ, अगर जुकाम हो जायेगा तो फिक्स एक्शन सिक्स हंड्रेड लेना मत भूलना. वैसे बुखार हो जाए तो मेरे फ्रेंड डॉक्टर चिराग के पास जाना. ज्यादा बटर पॉपकॉर्न भी मत खाना. तुम्हारा वजन पहले से ही काफी बढ़ा हुआ है.

बाकी क्या लिखूं? कुछ समझ में नहीं आ रहा है. वैसे लग रहा है कि कुछ और लिखना चाहिए लेकिन तय नहीं कर पा रहा हूँ कि क्या लिखूं. तुम तो जानती ही हो कि एक्जाम्स की आन्स्वर स्क्रिप्ट के अलावा मैं कहीं भी कुछ ज्यादा नहीं लिख पाता हूँ. तुम्हें याद होगा, एक बार तुम्हें इम्प्रेस करने के लिए कविता लिखी थी जो तुम्हारे पिताजी के हाथ पड़ गई थी और उन्होंने कविता में मात्रा की गलतियाँ निकलते हुए उसे बहुत घटिया कविता बता डाला था. उसके बाद मैंने कसम खाई कि अब परीक्षा में प्रश्नों का उत्तर देने के अलावा और कुछ नहीं लिखूँगा.

हाँ, अभी एक बात याद अई है तो वह लिख देता हूँ. अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना. हो सके तो एमए करने के बाद पी एचडी करने की कोशिश करना. पी एचडी में एडमिशन लेने से शादी टालने का एक और बहाना मिल जायेगा. जब तक मैं नहीं आता, तबतक किसी और से शादी करने की सोचना भी मत. मैं नहीं चाहता कि तुम किसी और शादी कर लो और फिर अपने परिवार का इलाज करवाने मेरे ही नर्सिंग होम में आओ. ऐसा हुआ तो मेरी हालत राजेंद्र कुमार जैसी हो जायेगी और फिर मुझे गाने का सहारा लेना पड़ेगा.

वैसे जब सारे बहाने फ़ेल हो जाएँ तो फिर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना. अपने पिताजी को ये बताना कि तुम जिससे प्यार करती हो, वो अपने माँ-बाप का इकलौता पुत्र है और उसके बाप के पास बहुत पैसा है. मुझे विश्वास है कि वे यह सुनने के बाद फिर कभी तुम्हारी शादी की जिद नहीं करेंगे. अभी तो मैं इतना ही लिख रहा हूँ. बाकी की बातें लन्दन पहुँचकर मेल में लिखूंगा.

तुम्हारा

डॉक्टर सोमेश

पुनश्च:

अगर ये चिट्ठी समझ में न आए और पप्पू सेल्समैन के पास जाना ही पड़े तो चिट्ठी समझकर तुंरत घर वापस जाना.

Monday, May 2, 2011

चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो.....




सिवाय गीतकार के बाकी सब के लिए फ़िल्मी गीत सुनने के लिए होते हैं. उधर गाना बजा इधर आवाज़ कान तक पहुंची और हमने सुन लिया. मन में आया तो गुनगुना लिया. अन्दर 'बाथरूमी' टैलेंट रहा तो गा लिया. अन्दर के टैलेंट को बाहर निकालने वाले मिल गए तो उनके सहयोग से उसे रियलिटी शो में निकाल बाहर किया. अपने लिए वोट डलवा लिया और जीत गए. लेकिन यह सब करते समय लोग़ फ़िल्मी गीतों के बारे में सवाल नहीं करते.

इतिहास बताता है कि किसी ने गुलशन बावरा से सवाल नहीं किया कि; "भाई साहब, किस देश की धरती सोना, हीरे-मोती नहीं उगलती? क्या केवल हमारे देश की ही धरती ऐसा करती है? आप क्या हमें यह बताना चाहते हैं कि पाकिस्तान में सोना आसमान से बरसता है? वहाँ भी तो धरती से ही निकलता होगा."

किसी ने साहिर साहब को इस बात के लिए नहीं कोसा कि उन्होंने "इस देश का यारों क्या कहना, ये देश है दुनियाँ का गहना" लिखकर भारत की ऐसी-तैसी करवा दी. उसके गाने का अर्थ अपने अंदाज़ में निकालते हुए दुनियाँ ने भारत को गहना समझ कर लूट लिया. इधर हम हम बजाते रहे "....यह देश है दुनियाँ का गहना" और उधर वे लूटते रहे. अब इतिहास बताता है कि हमें लुटने में मज़ा आता है लिहाजा हम लुटते हुए मज़े लेते रहे. कुछ कर नहीं सके.

अभी दो दिन हुए, टीवी पर एक गीत देख रहा था. फिल्म पाकीजा का; 'चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो...'

बड़ा सुन्दर दृश्य था. रात थी. चांदनी थी. झील थी. नाव थी. नाव पर पाल थी. नायिका थी. और एक अदद नायक था. इतने 'थी' के बीच एक 'था'. जैसे गोपियों के बीच बांके बिहारी.

ऐसा नहीं है कि पहले यह गीत नहीं देखा था. पहले भी देखा था और अच्छा भी लगा था लेकिन पता नहीं इस बार क्यों देखते-देखते एक सवाल मन में आया कि "यार, ये नायक बड़ा अजीब है. नायिका से कह रहा है कि चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो" और जब नायिका कह रही है कि "हम हैं तैयार चलो" तो फिर बात को टाल दे रहा है. नायिका के अग्रीमेंट वाली लाइन गाने के बाद चाँद के पार जाने पर कोई बात ही नहीं कर रहा. कोई प्रोग्राम नहीं बता रहा कि कैसे जाएगा? चाँद के कितने पार तक जाएगा? वहाँ जाकर क्या करेगा? कुल मिलाकर बात को टालने के चक्कर में है.

मैं कहता हूँ कि भैय्ये, जब नायिका को चाँद के पार ले जाने का लालच दे रहे हो तो उसे निभाओ भी. ये क्या बात हुई कि उधर नायिका बार-बार तैयार हो रही है और तुम हो कि उसके बाद उसे भाव नहीं दे रहे हो. मजे की बात यह कि ऐसा आज से चालीस साल पहले हो रहा था. पाकीजा सन इकहत्तर में बनी थी. जिन बुजुर्गों को आज के नौजवानों से शिकायत रहती है वे प्रेम में सीरियस नहीं रहते मैं उनसे कहता हूँ कि; "तब के नौजवानों की करतूत देखें. देखें कि तब के नौजवान प्रेम में कितना सीरियस रहते थे? देखें कि किस तरह से वे नायिका को झांसा देते थे. देखें कि नायिका को कितना मान देते थे."

मैंने सोचा कि इस मुद्दे पर लोगों से बात की जाय. फिर समस्या यह आई कि अपने देश में इतने तरह के लोग़ हैं. न जाने कितने समाज हैं. इन समाजों के न जाने कितने कितने महत्वपूर्ण प्रतिनिधि हैं. किनसे-किनसे बात करूंगा? फिर लॉटरी करके पाँच-छ लोगों का नाम निकलना पड़ा. देख रहे हैं न कि हम इस मुद्दे पर कितना सीरियस हैं? खैर, जिन लोगों की लॉटरी लगी मैंने उनसे इस गीत की बाबत सवाल पूछा. आप पढ़िए कि उन्होंने क्या कहा?

सबसे पहले पूछा श्री राम खेलावन मल्लाह से. जब नायक-नायिका यह गाना बड़े मीठे सुर में नाव पर बैठे गा रहे थे तब खेलावन ज़ी नाव खे रहे थे. पढ़िए कि उन्होंने क्या कहा?

राम खेलावन ज़ी; "देखिये, हीरो का नीयत पर त हमको भी शंका था. सही बताएं त कई बार मन में आया कि इनको टोंके कि भइया जब हीरोइन कह रही है कि ऊ चाँद के पार आपके साथ जाने के लिए तैयार है त आप इस मुद्दे पर अउर बात काहे नहीं कर रहे. आप अपना परपोजल बड़ा राग में गाकर ओनके सुनाये.कि; "चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो.." आपकी बात सुनकर ऊ आपसे भी बढ़िया राग में गाकर उसका जवाब दिए कि; "हम हैं तैयार चलो". उसके बाद आप चुप. हम कहते हैं एतना राग में अगर ऊ कोई रियलिटी शो में गाती त चैपियन हो जाती. अच्छा, बात खाली एहीं ख़तम नहीं होती है. ऊ आगे गाकर बताई कि; "आओ खो जायें सितारों में कहीं, छोड़ दें आज ये दुनियाँ ये ज़मीं..." इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि उनको आपके ऊपर एतना भरोसा है कि ऊ पूरा तरह से दुनियाँ अउर ज़मीन छोड़कर जाने के बास्ते तैयार हैं. लेकिन आप हैं कि आगे कुछ करते ही नहीं. अच्छा ई सुनिए, जब उनको लगा कि आप भाव नहीं दे रहे हैं त ऊ बोलीं कि; "हम नशे में हैं संभालो हमें तुम, नीद आती है जगा लो हमें तुम." मतलब कि हमारे उप्पर ध्यान दो तुम.

अउर ई सुनकर आप क्या किये? आप अउर राग में गाने लगे; "चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो..." हम आपसे पूछते हैं कि जब ऊ कह रही हैं कि उनको नींद आ रही है अउर आपसे खुद को जगाने का डिमांड कर रही हैं त आपका धरम बनता है कि आप उनको नींद से जगाएं अउर चाँद के पार ले जाने का अपना वादा निभाएं. बाकी आप क्या कर रहे हैं? आप अउर तान छेंड दे रहे हैं. आपको ख़याल नहीं है कि बढ़िया राग में गायेंगे तो उनको अउर नींद आएगी? .......अउर एही नहीं, आगे सुनिए. शंका त हमको ई बात पर भी हुई कि आप किसका भरोसे चाँद के पार जाने का बात कर रहे हैं? आपके पास न तो कौनो बिमान है. ना ही कौनो स्पेसशिप है. महराज आप बैठे हैं नाव में अउर चाँद के पार जाने का बात करते हैं? आज तक रेकाड है कि कोई भी आदमी नाव पर सवार होकर चाँद पर नहीं जा सका है. आपको एतना सिम्पुल बात नहीं बुझाया?...खाली एक लाइन पर अटके रहे. बार-बार एक ही बात; "चलो दिलदार चलो..चलो दिलदार चलो..." ऐसा कहीं होता है? जे हीरो अपना हीरोइन का बात पर ध्यान नहीं देगा ऊ लभ स्टोरी को कैसे आगे बढ़ाएगा?.....

उसके बाद मेरी बात हुई नेता गिरधारी लाल फोतेदार ज़ी से. इस गीत पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए उतावले थे. छूटते ही बोले; "आये दिन हमारे ऊपर आरोप लगता है कि हम अपना वादा नहीं निभाते. चुनाव के समय जनता से वादा करते हैं लेकिन भूल जाते हैं अउर नहीं निभाते. आज आप खुद ही सोचिये कि यह हमने कहाँ से सीखा है? जनता से वादा न निभाने का जो रोग आज हर राजनैतिक पार्टी में पनपा है वह हम नेताओं ने इस गीत को देखकर सीखा है. सच्चाई यह है कि पाकीजा आने से पहले तक हम नेता लोग़ जनता से किया गया वादा निभाते थे लेकिन जैसा कि आप जानते हैं एक फिल्म का नेताओं पर बहुत असर पड़ता है, इस फिल्म का भी हमारे ऊपर असर पड़ा. इतना गहरा असर कि हमने वादा वगैरह निभाने के बारे में सोचना बंद कर दिया. आप देखिये और मानिए कि केवल राजनीति फिल्मों को प्रभावित नहीं करती, फिल्में भी राजनीति को प्रभावित करती हैं. खुद ही सोचिये कि एक आदमी वन टू वन लेवल पर अपना वादा निभाने के लिए तैयार नहीं है. ऐसे में आप नेताओं से कैसे आशा कर सकते हैं कि वे जनता से किये गए वादे निभाएं? आपको नहीं लगता कि..... "

इसी मुद्दे पर समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता ने बात करते हुए कहा; "देखिये शोध बताता है कि सत्तर के दशक के शुरुआत में गीतों में नायकों ने सामाजिक स्तर पर एक-दूसरे को नीचा दिखाना शुरू कर दिया था. इस गीत को ही लीजिये. नायक अपनी नायिका को चाँद के पार ले जाना चाहता है. आप अगर ध्यान देंगे तो इसके पहले तक फ़िल्मी गीतों में नायक अपनी नायिका से चाँद, तारे, ग्रह, उपग्रह वगैरह को तोड़ लाने की बात करता था. मुझे लगता है कि शायद दूसरे नायकों के आगे यह नायक खुद को हीन भावना से ग्रस्त पाता होगा. यही कारण होगा कि अपने गीत में उसने नायिका से सीधे चाँद के पार जाने का वादा कर लिया. इस गीत को अगर हम सोसियो-इकॉनोमिक-पोलिटिकल ऐंगल से देखें तो पायेंगे कि कभी-कभी आदमी ऐसा कुछ कहता है जो वह कर नहीं सकता. और ऐसा नहीं कि उसे इस बात का भान नहीं है कि वह कर नहीं सकता. उसे यह बात पता है लेकिन समाज से इतना सताया हुआ रहता है कि एक तरह जिद उसके अन्दर घर कर जाती है. आप अगर उस समय की घटनाएं देखें तो पायेंगे कि यह वह समय था जब भारतीय समाज एक विकट परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा था. इस गीत का सोशल और ह्यूमन आस्पेक्ट अगर ध्यान से देखें तो हम पायेंगे कि......"

इसी मुद्दे पर अपने मनोहर भइया यानि महान समाजवादी राम मनोहर ज़ी बोले; "शिव, मेरा ऐसा मानना है कि यह गीत अपने आप में एक ऐतिहासिक गीत है. यह गीत एक तरह से हमारे अन्दर आशा का संचार करता है. यह हमें बताता है कि हम काव्य के सहारे किस तरह से साम्राज्यवादी अमेरिका पर चोट कर सकते हैं. यह गीत साम्राज्यवाद के मुँह पर एक तमाचा है. मुझे मालूम है कि तुम सोच रहे हो कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? चलो तुम्हें बता ही देता हूँ. घटनाओं को देखो तो तुम्हें याद पड़ेगा कि सन १९६९ में अमेरिका ने यान भेजकर अपने दो अंतरिक्ष यात्रियों को चाँद पर उतारा था. अब अगर इस गीत में नायक यह कहता कि वो नायिका को चाँद पर ले जाना चाहता है तो नायिका को लगता कि चाँद पर जाना कौन सी बड़ी बात है? अभी दो साल पहले ही अमेरिका के दो लोग़ चाँद पर गए थे. इसीलिए कैफ साहब ने ऐसा लिखा कि चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो, माने यह कि भले ही नायक आम भारतीय है लेकिन सोच में वह किसी अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री से कम नहीं है. अगर अमेरिका वाले चाँद पर जा सकते हैं तो एक आम भारतीय चाँद के पार तक जा सकता है. वैसे भी कैफ भोपाली साहब की गिनती इंकलाबी शायरों में होती है. तुम मानों या न मानो, यह गीत हिंदुस्तान के लिए एक धरोहर है. एक ऐसा धरोहर जिसने अमेरिकी साम्राज्यवाद के मुँह पर करार तमाचा जड़ा था...."

जब मैंने प्रसिद्द अंतरिक्ष वैज्ञानिक एस वेंकटेसन नायर से इसके बारे में बात करनी चाही तो वे बोले; "दिस्स यिज याल रब्बिस. अई मीन हाऊ कुड यि हैव गान बियांड मून, दैट टू, सिटिंग यिन या याच? यैंड यिवेन यिफ्फ़ ई ऐड या प्लान, ई शुड हैव यिस्पेसिफाइड यिट. अई मीन नेम याफ दा प्लानेट, ई वांटेड टू ल्यैंड यपान. दिस्स सांग यिज टोटली यन-साइंटिफिक. वन्न शुड नाट यिस्पिक यबाउट समथिंग विच यि कैन नॉट डू यैंड विच इज्ज नॉट सपोर्टेड बाइ साइंस..."