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Monday, March 28, 2011

साल २०१५ के भारत संबंधी विकिलीक्स




जब से विकिलीक्स द्वारा खुलासे करने का श्रीगणेश हुआ है तब से बाकी मीडिया ने खुलासे से अपना पल्ला झाड़ लिया है. विकिलीक्स के पास भी इतना केबिल्स है जिसे पढ़ कर लगता है जैसे पूरी दुनियाँ में फैले अमेरिकी डिप्लोमैट केबिल लिखने के अलावा और कुछ करते ही नहीं. शाम को किसी नेता, ब्यूरोक्रेट, मंत्री, संत्री, पत्रकार, कलाकार, लोबीयिस्ट वगैरह से बात की और दूसरे दिन ही अमेरिका में बैठे अपने लोगों को केबिल ठेल दिया. एक बात और समझ में आती है कि पूरी अमरीकी विदेश-नीति केबिलों पर चल रही है. ठीक वैसे ही जैसे करेंट केबिलों पर चलता है. जैसे-जैसे ये केबिल अखबारों में छाप रहे हैं वैसे-वैसे न जाने कितनों को करेंट लग रहा है.

मैं मार्च नहीं मना रहा हूँ. अब मार्च में जब भारतीय मार्च नहीं मनायेगा तो वह कुछ न कुछ सोचेगा. आज सोच रहा था कि अगर ऐसे ही विकिलीक्स केबल्स पब्लिश करता रहा तो क्या होगा? देखेंगे कि साल २०१५ में तमाम केबिल्स छापे जायेंगे तो साल २०१० या साल २०११ की घटनाओं से सम्बंधित होंगे. क्या नज़ारा हो सकता है?

अब जैसे साल २०११ में जो खुलासे हो रहे हैं वे राजनीति से जुड़ी हुई बातें, पॉलिसी, बातचीत वगैरह-वगैरह सम्बंधित हैं. ऐसे में साल २०१० और २०११ में जो भी भारतीय नेता, ब्यूरोक्रेट, सेक्रेटरी, लेखक, पत्रकार वगैरह अमेरिकी डिप्लोमैट्स से बात करेंगे वे राजनीतिक कम और बाकी मुद्दों पर ज्यादा होंगी. क्या-क्या बातें हो सकती हैं? एक नज़र मारिये. अरे, मेरा मतलब इधर नीचे नज़र मारिये; (अब मैं हिंदी में लिखता हूँ इसलिए उस समय पब्लिश होने वाले केबल्स के हिंदी अनुवाद छाप रहा हूँ....)

केबिल संख्या २५७७१३ तारीख १३.०२.२०११

"भारतीय सरकार पर भारतीय सुप्रीम कोर्ट और जनता का बहुत दबाव पड़ रहा है. सरकार, उसके मंत्री और मुखिया की सुप्रीम कोर्ट में, ब्लाग्स और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर रोज ऐसी-तैसी हो रही है. वैसे कल अमेरिकी राजनयिक ने बातचीत में राहुल गांधी ने बताया कि बस पाँच दिन की बात है. उन्नीस फरवरी से क्रिकेट वर्ल्ड कप शुरू हो रहा है तो चीजें कुछ हद तक कंट्रोल में आ जायेंगी. जैसे ही पूरा देश करप्शन एक्सपर्ट से क्रिकेट एक्सपर्ट बना नहीं कि मामला हमारे लिए ईजी हो जाएगा. वर्ल्ड कप के बाद आई पी एल भी है. साल २००९ में तो चुनावों के बहाने हमने आई पी एल को सुरक्षा की गारंटी न देते हुए दक्षिण अफ्रीका पहुँचा दिया था लेकिन इस बार तो डबल सुरक्षा देंगे जिससे आई पी एल भारत में रहे. वैसे इस बार भी पाँच राज्यों में चुनाव रहे हैं लेकिन हम इस बार आई पी एल को जेड कैटगरी की सुरक्षा देंगे. यह हमारी सरकार के लिए ज़रूरी है. इधर एक महीना से ज्यादा वर्ल्ड कप राहत दे देगा उसके बाद एक महीना आई पी एल. सुना है उसके बाद वेस्टइंडीज का दौरा है. ऐसे में....."

केबिल संख्या २५७८०९ तारीख २५.०२.२०११

"अमेरिकी दूतावास में कार्यरत अधिकारी, पीटर स्कॉट के साथ शाम को व्हिस्की की चुस्कियां लेते हुए एक प्रसिद्द पत्रकार वहीद लखवी ने बताया था कि राहुल गाँधी को मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए गाना बहुत पसंद है. कांग्रेस की एक इनर सर्किल जो राहुल के बहुत करीब है, ने खुद बताया कि राहुल ने फिल्म दबंग छत्तीस बार और यह गाना चौरासी बार......"

केबिल संख्या २५७९१६ तारीख २५.०३.२०११

"भारतीय मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के पॉलिट-ब्यूरो के कई सदस्यों का मानना है कि अमेरिका ने भारतीय क्रिकेट टीम के ऊपर दबाव डाला कि वो अच्छा खेलकर सेमीफाइनल में पहुंचे ताकि पाकिस्तान और भारत के प्रधानमंत्री मैच देखने के बहाने मुलाकात कर सकें. मार्क्सवादियों को इस बात से गुरेज नहीं था कि दोनों देशों के प्रधानमंत्री मिलें बल्कि वे इस बात से नाराज़ थे कि अमेरिका अब भारतीय क्रिकेट में भी दखलंदाजी करने लगा है..."

केबिल संख्या २५७७६९ तारीख १८.०२.२०११

"दूतावास में काम करने वाले एक भारतीय कर्मचारी को कांग्रेसी नेता जनार्दन द्विवेदी ने बताया कि राहुल गाँधी अपने पिता के कदमों पर चलकर अपनी ईमानदारी को अमर करना चाहते थे. जैसे उनके पिता ने पच्चीस साल पहले यह कहकर अपनी ईमनदारी को अमर कर लिया था कि आम आदमी के लिए सरकार से चलने वाला एक रुपया आम आदमी तक पहुँचते-पहुँचते पंद्रह पैसा रह जाता है उसी प्रकार राहुल ज़ी भी कुछ करना चाहते थे. राहुल का मानना था कि पच्चीस साल पहले कही गई बात को अब रिवाइज करके एक बार फिर से प्रेस और जनता से अपनी ईमानदारी पर मुहर लगवा लिया जाय लेकिन आम आदमी तक पहुचने वाले पैसे पर कांग्रेस वर्किंग कमिटी में सहमति नहीं हो सकी.

राहुल ज़ी चाहते थे कि अपने पिता द्वारा दिए गए फिगर यानि पंद्रह पैसे को रिवाइज करके अब पाँच पैसा कर दिया जाय लेकिन वित्तमंत्री मुखर्जी और गृहमंत्री सात पैसे से नीचे आने पर सहमत नहीं हुए. बाद में मामला यह कहकर टाल दिया गया कि प्रधानमंत्री एक ज़ीओएम बनायेंगे जो एक सहमति बनाने की कोशिश करेगा.."

केबिल संख्या २५७९६१ तारीख ०२.०४.२०११

"विदेश मंत्रालय के एक सचिव ने पीटर स्कॉट को बताया कि चंडीगढ़ में सेमी फाइनल देखने आये पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के खाने के मेन्यू को लेकर मंत्रिमंडल में अंतिम समय तक असहमति बनी रही. जहाँ गृहमंत्री चाहते थे कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को पंजाबी खाना खिलाया जाय वहीँ विदेशमंत्री कृष्णा चाहते थे कि उन्हें पुर्तगाली खाना परोसा जाय. बाद में विदेश सचिव अनुपमा राव ने सुझाव दिया कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के लिए अफगानी और बलोची खाना परोसना ठीक रहेगा. वैसे जब प्रधनमंत्री श्री मनमोहन सिंह से इस बाबत सवाल पूछा गया तो उन्होंने गब्बर सिंह 'इश्टाइल' में कहा - हमको नहीं पता. हमको कुछ नहीं पता.."

केबिल संख्या २५७९८७ तारीख ०५.०४.२०११

"कांग्रेसी नेता जयन्ती नटराजन ने अमेरिकी दूतावास के एक सेक्रेटरी के साथ अपनी बातचीत में बताया कि तमिलनाडु विधानसभा के चुनावों में चुनाव प्रचार को एक नया मोड़ देने के लिए कांग्रेस ने करीब साठ हज़ार कार्यकर्ताओं का एक समूह तैयार किया है जो डी एम के और ए आई डी एम के की रैलियों में घुसकर इन पार्टियों द्वारा प्रदेश के पुरुष वोटरों को भाव न दिए जाने पर नारा लगाएगा. यह समूह अपनी मांग में यह कहेगा कि राजनैतिक पार्टियाँ राज्य के पुरुष वोटरों के लिए फ्री शेविंग क्रीम और रेजर का वादा करें. साथ ही पुरुष मतदाताओं के लिए लुंगी और चन्दन की डिबिया की भी डिमांड रखेगा..."

केबिल संख्या २५७९२७ तारीख २८.०३.२०११

"साल २०११ के वर्ल्ड कप सेमी फाइनल में भारत के पहुँचने के क्रेडिट के लिए तू-तू मैं-मैं शुरू हो गई है. जहाँ मार्क्सवादी सेमी फाइनल में भारत के पहुँचने के लिए अमेरिकी दबाव को जिम्मेदार मानते हैं वहीँ भारतीय जनता पार्टी इसके लिए नरेन्द्र मोदी को क्रेडिट दे रही है. बी जे पी का मानना है कि क्वार्टर फाइनल में गुजरात क्रिकेट एशोसियेशन के अध्यक्ष्य के रूप में मोदी ने ऐसी पिच बनवाई जिससे ऑस्ट्रेलिया की बैटिंग धरासायी हो जाए. वहीँ कांग्रेस का मानना है कि क्वार्टर फाइनल से पहले राहुल गाँधी ने भारतीय क्रिकेट टीम को शुभकामना संदेश भेजा था जिससे टीम जीत गई. चेयरमैन ऑफ सेलेक्टर्स इसके लिए मुनफ पटेल द्वारा अपने पूरे ओवर्स नहीं करने को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. वहीँ भारतीय क्रिकेट प्रेमी क्वाटर्स फाइनल में नेहरा के नहीं खिलाये जाने को टीम की जीत के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. बड़ी बमचक मची हुई है. पता नहीं चल रहा कि क्रेडिट कहाँ जाएगा और कैश कहाँ..."

केबिल संख्या २५७७०६ तारीख २४.०३.२०११

"संसद में बहस के दौरान विपक्ष के नेता और प्रधानमंत्री से एक-दूसरे पर शेरों से हमला किया. जहाँ विपक्ष के नेता ने हमले के लिए इकबाल के शेर का इस्तेमाल किया वहीँ प्रधानमंत्री श्री सिंह ने ग़ालिब के शेर का इस्तेमाल किया. खबर यह भी है कि संसद में शेर कहने के तीन घंटे बाद प्रधानमंत्री श्री सिंह को कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद ग़ालिब के उस शेर का मतलब समझाते हुए देखे गए. अन्दर की खबर यह है कि बाद में प्रधानमंत्री ने माना कि उनके द्वारा कहा गया शेर उस मौके पर मैच नहीं कर रहा था. लेकिन फिर वही बात है कि - कमान से निकला हुआ तीर और मुँह से निकला हुआ शेर कभी वापस नहीं आते.."

केबिल संख्या २५८१०३ तारीख ०७.०४.२०११

"पश्चिम बंगाल में भी चुनाव हो रहे हैं लेकिन वहाँ पर तमिलनाडु की तरह वोटरों को मिक्सर, टीवी, मंगलसूत्र, मिनरल वाटर, फ्रिज, लैपटॉप, चावल, गेंहू ऑफर नहीं किया जा सका है. बाकी देश के लोग़ यह अनुमान लगा रहे हैं कि तमिलनाडु की पार्टियों द्वारा ऑफर किये गए सामानों की तरह पश्चिम बंगाल की पार्टियों ने क्या ऑफर किया?

कोलकाता स्थित डिप्टी हाई-कमीशन के एक स्टाफ से बात करते हुए एक वरिष्ट बांग्ला पत्रकार ने बताया कि पश्चिम बंगाल में पार्टियाँ वोटरों को ऐसे स्कूल ऑफर कर रही हैं जिनमें नारे लिखने, हड़ताल करने और राज्य को बंद करने की शिक्षा दी जायेगी.."

केबिल संख्या २५७९२८ तारीख २८.०३.२०११

"आज एक भारतीय चैनल ने हिंदी फिल्म तीस मार खान एक ही दिन में दो बार दिखाई. सोशल नेटवर्किंग साईट ट्विटर पर कुछ ट्वीटबाजों का मानना है कि यह २६/११ के बाद भारत पर हुआ सबसे बड़ा असॉल्ट है. भारतीय विदेश मंत्रालय के सूत्रों का मानना है कि ट्वीटबाजों द्वारा किये गए इस खुलासे को पाकिस्तान के मंत्री रहमान मलिक ने बहुत सीरियसली लिया है. उन्होंने प्रधानमंत्री श्री गिलानी को सुझाव दिया है कि वे चंडीगढ़ में मैच देखने के दौरान इस मुद्दे को उठाते हुए प्रधानमंत्री श्री सिंह से सवाल करें कि वे इस असॉल्ट के ऊपर भी कार्यवाई कर रहे हैं या नहीं?"

Wednesday, March 23, 2011

स्टिंग ऑपरेशन की चिरकुटई




जुलाई २००८ में विश्वास मत के बाद की पोस्ट है.

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देश में आजकल दो ही बातों पर चर्चा हो रही है. एक है अमर सिंह और दूसरा है स्टिंग आपरेशन. पिछले कुछ सालों में स्टिंग आपरेशन इस तरह से फ़ैल चुका है जैसे पहले हैजा और प्लेग जैसी बीमारियाँ फैलती थीं. ऊपर से संसंद में हुए विश्वास प्रस्ताव समारोह ने स्टिंग आपरेशन को एक अलग ऊंचाई प्रदान कर दी है. आज हालत यह है कि कबाड़ चुनते-चुनते अगर किसी कबाड़ी को कोई सीडी मिल जाती है तो वह उस सीडी को धो-पोंछ कर डीवीडी प्लेयर पर चढ़ा लेता है. इस आशा के साथ कि अगर सीडी में किसी नेता का स्टिंग आपरेशन स्टोर्ड होगा तो सीडी को किसी न्यूज चैनल को बेंचकर कुछ पैसा कमाया जा सकता है.

कल सुदर्शन से बात हो रही थी. सुदर्शन ने कहा; "अरे सर, ये उमा भारती तो फंस गई. उन्होंने जिस सीडी का उदघाटन इतने ताम-झाम के साथ किया उसमें तो पोस्टर दिखने की वजह से सब गड़बड़ हो गया."

मेरे मुंह से निकला; "कोई बात नहीं. उस पोस्टर को दीवार से हटाकर फिर से शूटिंग कर लेंगे ये लोग."

मेरी बात सुनकर सुदर्शन हंसने लगा. लेकिन मुझे लगा कि ये भी अजीब बात है. कितना सरल हो गया है 'स्टिंग आपरेशन' करना. फिर मन में आया कि अगर आज से कुछ सालों बाद रि-डिस्कवरी चैनल पर अगर भारत में स्टिंग आपरेशन के इतिहास पर एक डाक्यूमेंट्री दिखाई जायेगी तो कैसे होगी? शायद कुछ ऐसी;

भारत में स्टिंग आपरेशन का इतिहास पुराना है. स्टिंग आपरेशन के पुरातन होने की पुष्टि इस बात से होती है कि भागलपुर में हुए आँख-फोडू काण्ड का भेद सबसे पहले स्टिंग आपरेशन के चलते ही खुला था. इसके आलावा इंडियन एक्सप्रेस नामक समाचार पत्र ने एक स्टिंग आपरेशन की मदद से राजस्थान में लगने वाली औरतों की एक मंडी का पर्दाफाश किया था. शुरू में स्टिंग आपरेशन में स्टिल कैमरे और टेप रिकॉर्डर का उपयोग किया जाता था लेकिन बाद में विडियो शूटिंग के प्रयोग की वजह से स्टिंग आपरेशन में एक क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिला.

इक्कीसवीं शताब्दी के आरम्भ में तहलका ने स्टिंग आपरेशन के जरिये ढेर सारे क्रिकेट खिलाड़ियों और नेताओं के भ्रष्ट होने के सुबूत इकठ्ठा किए. हथियारों में दलाली की बात हो या फिर क्रिकेट में पैसा लेकर न खेलने का साहसिक कार्य, सबकुछ स्टिंग आपरेशन की मदद से सामने लाये गए. स्टिंग आपरेशन को नई ऊंचाई तब मिली जब तमाम टीवी न्यूज चैनल स्टिंग आपरेशन के धंधे में उतर गए. पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने का कार्यक्रम हो या फिर शारीरिक शोषण के जरिये हिन्दी फिल्मों में हिरोइन का रोल दिलाने के वादे, सब स्टिंग आपरेशन करके जनता के सामने लाये गए.

स्टिंग आपरेशन का विकास कुछ इस तरह से हुआ कि इसके जरिये बहुत सारे लोगों को सताने की प्रथा भी चल निकली. हालत यह हो गयी कि जो समाजशास्त्री पहले स्टिंग आपरेशन को इलाज समझते थे, साल २००८ आते-आते उन्ही समाजशास्त्रियों ने स्टिंग आपरेशन को एक बीमारी मानना शुरू कर दिया. साल २००८ में तत्कालीन सरकार द्बारा विश्वास मत प्राप्ति हेतु लेन-देन के मामले को स्टिंग आपरेशन करके सामने लाने की कोशिश हुई.

स्टिंग आपरेशन के फैलते प्रभाव की वजह से बहुत सारी विदेशी कम्पनियों को भारत एक नए बाज़ार के रूप में दिखने लगा. साल २००८ में संसद में विश्वास मत प्राप्ति कार्यक्रम में स्टिंग आपरेशन के रोल ने विदेशी उद्योगपतियों को बहुत प्रभावित किया. वित्त मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार साल २००८ के सितम्बर महीने में विदेशी पूंजी निवेश के कुल अट्ठारह प्रस्ताव आए जिनमें से आठ सीडी निर्माण, तीन स्पाई विडियो कैमरा निर्माण और चार स्टिंग आपरेशन की शिक्षा हेतु कालेज स्थापना के थे. सरकार ने विदेशी पूँजी निवेश के इन प्रस्तावों को बड़े उत्साह के साथ पास कर दिया. साल २०११ तक विदेशी तकनीक को और आगे बढाते हुए भारतीय उद्योगपतियों ने स्टिंग आपरेशन में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों में क्रांतिकारी बदलाव किया.

साल २००९ तक लगभग सभी राजनैतिक दलों ने अपने-अपने दल में माईनोरिटी सेल, इकनॉमिक सेल, सोशल जस्टिस सेल की तर्ज पर स्टिंग आपरेशन सेल भी स्थापित किए. इन पार्टियों ने अपने इस सेल में काम करने के लिए उन नेताओं को लगाया जिन्हें स्टिंग आपरेशन में फंसने का गौरव प्राप्त था. इन राजनैतिक पार्टियों का मानना था कि स्टिंग आपरेशन में फंसा हुआ नेता ही ऐसे सेल की अध्यक्षता करने का पर्याप्त अनुभव रखता था. कुछ राजनैतिक दलों ने तो विज्ञापन के जरिये अपने स्टिंग आपरेशन सेल के लिए स्क्रिप्ट राईटर्स और कैमरा मैन की भर्ती भी की.

साल २०१० तक लगभग सारे राजनैतिक दल इस बात बार सहमत हो चुके थे कि स्टिंग आपरेशन की पढाई को देश में हाई स्कूल से अनिवार्य कर दिया जाय. नतीजा यह हुआ कि स्टिंग आपरेशन की पढाई करने वाले छात्रों को सरकार की तरफ़ से वजीफे देने का कार्यक्रम शुरू हुआ. विशेषज्ञों का मानना था कि साल २०२० तक रोजगार के सबसे ज्यादा अवसर स्टिंग अपारेशन की पढाई करने वाले छात्रों के लिए ही उपलब्ध होने वाले थे.

स्टिंग आपरेशन की सफलता ने हिन्दी फ़िल्म उद्योग के पुराने निर्देशकों और पटकथा लेखकों को रोजगार के अवसर दिए. कुछ पुराने निर्देशक जिन्हें कोई काम नहीं था, उन्होंने स्टिंग आपरेशन के निर्देशन में हाथ आजमाया और उनमें से कुछ तो काफी सफल भी हुए. इन लोगों को सबसे ज्यादा रोजगार के अवसर टीवी न्यूज चैनल ने उपलब्ध करवाए.

आज भारत में स्टिंग आपरेशन उद्योग का कारोबार करीब सत्तर हजार करोड़ रूपये तक पहुँच चुका है. भारतीयों द्बारा किए गए स्टिंग आपरेशन की ख्याति दुनियाँ भर में फैली हुई है. यही कारण है कि अमेरिका, यूरोप और दक्षिण पूर्व एशिया के कई देश स्टिंग आपरेशन की आउटसोर्सिंग के लिए भारतीय आपरेटरों पर सबसे ज्यादा विश्वास दिखाते हैं. साल २०४५ तक भारतीय स्टिंग आपरेशन उद्योग का कारोबार बढ़कर एक लाख आठ हज़ार करोड़ रूपये तक पहुँच जाने की संभावना है.

Monday, March 21, 2011

चुनाव गाथा




आधा किलो की यह तुकबंदी मार्च २००९ में लिखी गई थी. कई राज्यों में लोकतंत्र का इम्तिहान यानि चुनाव एक बार फिर से होने को हैं. ऐसे में मुझे लगा कि री-ठेल कर देना बुरा नहीं होगा:-)


वोट निंद्य है शर्मराज, पर,
कहो नीति अब क्या हो
कैसे वोटर लुभे आज फिर
पाँव तले तकिया हो

कैसे मिले हमें शासन का
पेडा, लड्डू, बरफी
किस रस्ते पर चलकर लूटें
चाँदी और अशर्फी

क्या-क्या रच डालें कि;
जनता खुश हो जाए हमसे
दे दे वोट हमें ही ज्यादा
हम फिर नाचें जम के

अगर कहो तो सेकुलर बन, हम
फिर महान हो जाएँ
नहीं अगर जंचता ये रस्ता
राम नाम हम गायें

अगर कहो तो गाँधीगीरी कर
त्यागी कहलायें
शासन के बाहर ही बैठे
जमकर हलवा खाएं

तुम कह दो तो गठबंधन कर
दें जनता को धोखा
तरह तरह के स्वांग रचें हम
मारें पेटी खोखा

कल तक जो थे साथ, कहो तो
साथ छोड़ दें उनका
नहीं समर्थन मिले हमें तो
हाथ तोड़ दें उनका

तुम कह दो तो एक कमीशन
बैठाकर फंसवा दें
अगर कहो तो खड़े-खड़े ही
पुलिस भेज कसवा दें

नीति-वीति की बात करे जो
उसका मुंह कर काला
भरी सड़क पर उसे बजा दें
हो जाए घोटाला

बाहुबली की कमी नहीं
गर बोलो तो ले आयें
उन्हें टिकट दे खड़ा करें, और
नीतिवचन दोहरायें

दलितों की बातें करनी हो
गला फाड़ कर लेंगे
बात करेंगे चावल की, पर
उन्हें माड़ हम देंगे

तुम कह दो तो कर्ज माफ़ कर
हितचिन्तक बन जाएँ
मिले वोट तो भूलें उनको
उनपे ही तन जाएँ

गठबंधन का धर्म निभाकर
पॉँच साल टिक जाएँ
आज जिन्हें लें साथ, उन्ही को
ठेंगा कल दिखलायें

किसे बनाएं मुद्दा हम, बस
एक बार बतला दो
जो बोलोगे वही करेंगे
तुम तो बस जतला दो

अगर कहो तो बिजली को ही
फिर मुद्दा बनवा दें
अगर नहीं तो सड़कों पर ही
पानी हम फिरवा दें

शर्मराज जो भी बोलोगे
हम तो वही करेंगे
शासन में रह मजे करेंगे
अपना घर भर लेंगे

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शर्मराज ने आँखें खोली, और
शांत-मुख लेकर
बोले; "सुन लो भ्रात आज तुम
चित्त, कान सब देकर"

जिस रस्ते पर चलकर चाहो
सत्ता सुख को पाना
उसे चुनो और बुन डालो तुम
पक्का ताना-बाना

सच तो यह है आज राजसुख
उतना इजी नहीं है
इसे प्राप्त करने के हेतु ही
हर दल आज बिजी है

विकट सत्य को समझो कि यह
गठबंधन का युग है
विचलित न हो लोग कहें गर
'शठ-बंधन' का युग है

शर्म छोड़ कर शठ बन जाओ
खोजो और शठों को
अगर ज़रुरत हो तो चुन लो
कुछ धार्मिक मठों को

राजनीति हो अलग धर्म से
गीत सदा यह गाकर
प्राप्त करो सत्ता सुख को
'शठ-बंधन' धर्म निभाकर

शर्म से होती है सत्ता-नीति को हानि
....................शर्महीनता ही सत्ता-नीति का आधार है
एक बार शर्म छोड़ बेशर्म बन जाओ
................... और फिर देखो कैसे बढ़ता बाज़ार है
ले लो ज्ञान मुझसे और कूद पडो दंगल में
....................सत्ता पाने के लिए जुगत हज़ार है
बात सुनो भ्रात मेरी ध्यान-कान देकर तुम
....................तुम्हें ज्ञान देने को शर्मराज तैयार है

सबसे पहले बाँट डालो देशवासियों को तुम
....................इसके पश्चात अपने वोटर को चुन लो
कर समापन यह चुनाव पानी में उतारो नाव
...................वोटर को लुभाने के तरीके भी सुन लो
कर डालो वादे और खा डालो कस्में तुम
...................इन सारे तरीकों को शांत-चित्त गुन लो
इसके साथ पैसे और शराब का कम्बीनेशन हो
...................इसपे भी वोटर न रीझे, गुंडे भेज धुन दो

मुद्दा हो निकास का या आर्थिक विकास का हो
..................उसके बारे में भूल से भी मत बोलना
दलों का जो दलदल है उसको पहले निहारो
..................कितना कीचड़ है उसमें इसको तुम तोलना
अपने दल के कीचड़ को बाकी से तुलना कर
..................कसकर कमर को अपनी सीटों को मोलना
बारगेनिंग का कर हिसाब अगले की पढ़ किताब
..................उतरकर दलदल में तुम धीरे-धीरे डोलना

चुनाव के मंचों पर तो साथ में दिखना, परन्तु
..................विपक्षी के साथ भी तुम रखना रिलेशन
जाने कौन काम आये चुनाव परिणाम बाद
..................असली सत्ता सुख का ये पहला कंडीशन
इसके साथ-साथ याद रखना पहले पाठ को तुम
..................जिससे मिले एंट्री का क्वालिफिकेशन
नारों और गानों की लिस्ट तैयार कर
..................सुबह-शाम करते रहना उनका रेंन्डीशन

धर्मनिरपेक्षता पर खतरे की बातें करो
..................जो भी तुम चाहोगे वही हो जायेगा
देश को बचाने का रच डालो स्वांग गर
..................राजधर्म कोसों दूर पीछे रह जायेगा
सत्ता में आने के बाद भत्ता हड़प डालो
..................जनता हलकान हो पर प्लान फल जायेगा
धरते पकड़ते रहो दल और नेताओं को बस
..................राज करो पांच साल, देश चल जायेगा

साथी दल को संग लेकर लड़ लो चुनाव किन्तु
..................कहीं-कहीं उन्ही संग 'फ्रेंडली' कंटेस्ट हो
ट्राई कर लंगी मार उनको गिरा डालो
..................अगर उस सीट पर भी उनका इंटेरेस्ट हो
इससे भी न काम बने दो-चार कैंडीडेट खोज
..................उनको खड़ा करने का इंतजाम परफेक्ट हो
भ्रात सारे घात सीख उतरो मैदान में तुम
..................मेरी तरफ से तुमको आल द बेस्ट हो


शर्मराज की बात सुनी और लेकर उनका ज्ञान
बेशर्मी पर उतर गए और शुरू हुआ अभियान

Saturday, March 19, 2011

दुर्योधन की डायरी - पेज २०१२




कल होली है. होनी भी चाहिए. इसी महीने में तो होती है. सावन में नागपंचमी होती है और उसके बाद छट. आगे बढें तो दुर्गापूजा और दिवाली. ऐसे में होली इसी महीने में आकर झमेला ख़त्म करे, यही सबके लिए अच्छा है. लेकिन जब भी होली आती है तो मुझे खुद के अभागे होने का ख्याल मन में आता है. ऐसा न कहूँ तो और क्या कहूँ? सबसे बड़ा भाई होने का सबसे बड़ा डिसएडवान्टेज ये है कि भौजाई की कमी खलती है. और ऐसी-वैसी नहीं, बहुत खलती है. बड़ा भाई होने का मतलब यह नहीं कि आदमी केवल बड़ा भाई होकर रहता है. बड़े भाई होने का मतलब यह भी होता है कि आदमी जन्मजात जेठ होकर रह जाता है. जेठ होना होली के मौके पर बहुत दुःख देता है.

एक तो जनम से जेठ थे ही ऊपर पांडवों को वनवास-ए-बामुसक्कत की सजा दे डाली. मामला वैसे ही निकला जैसे कोढ़ में खाज. ऐसा नहीं हुआ होता तो होली के मौके पर देवर बनने का एक चांस तो रहता. जैसा कि एक महान गीतकार ने लिखा है; 'गिले शिकवे भूल कर दोस्तों, दुश्मन भी गले मिल जाते हैं...' तो एक दिन दुश्मनी भूलकर द्रौपदी भाभी के साथ होली खेल आता. लेकिन इनलोगों को सजा देकर सब गुड गोबर कर डाला.

वैसे फिर मन में बात आती है कि दुविधा तो वहाँ भी रहती. हो सकता है वहाँ भी होली नहीं खेल पाता क्योंकि भाभी को कन्फ्यूजन रहता कि मुझे देवर समझे या जेठ. आख़िर वे केवल युधिष्ठिर भइया की पत्नी नहीं हैं, नकुल और सहदेव की पत्नी भी वही हैं.

खुद से यही बात करके मन पर सतोष का छींटा मार लेता हूँ. संतोष के छीटों के साथ ऐसे समय में मदिरा भी थोड़ा हेल्प कर देती है.

वैसे एक बात से इन्कार नहीं कर सकता कि जबसे इनलोगों को वनवास का टिकट थमाया है, ये होली के मौके पर जरूर याद आ जाते हैं. लेकिन याद आने पर भी क्या किया जा सकता है? इसलिए होली खेलता भी हूँ तो कर्ण के साथ. उसके साथ होली खेलने में क्या मज़ा? बहुत बोरिंग होती है इस कर्ण की होली. चुटकी भर गुलाल भी गाल पर लगाते समय इतनी एहतियात बरतता है मानो किसी दुधमुंहे बच्चे को लगा रहा हो. न तो फाग सुनता है और न ही कवि सम्मलेन में कवियों की तथाकथित कवितायें. कविताओं पर कान न देने की बात तो समझ में आती है लेकिन फाग? फिर सोचता हूँ तो मुझे लगता है जैसे फाग भी उसे युद्धगीत जैसा लगता होगा. मदिरा की तो बात दूर ठंडाई में भंग तक मिलाने नहीं देता.

ऐसे मौकों पर उसके साथ रहकर तो यही लगता है कि हमारे करम फूट गए.

बोर आदमी है. बोर क्या महाबोर है. आता है और गुलाल लगाते हुए गले मिलकर चला जाता है. रुकने के लिए कहता हूँ तो एक ही बहाना बनाकर निकल लेता है - धनुष बाण साफ करना है और बाण चलाने की प्रैक्टिस करनी है. पता नहीं कब युद्ध शुरू हो जाए.

आकर चला जाता है तो मेरी होली दुशासन और जयद्रथ के साथ सिमट कर रह जाती है. राजमहल से बाहर निकल कर लोगों को होली खेलते हुए देखने की बड़ी इच्छा होती है लेकिन राजपुत्र होने का भी अपना डिसएडवांटेज है. लोगों के बीच में जाकर होली भी नहीं खेल सकता. न जाने कितने सालों से जितनी गिनी-चुनी बदमाशियां कर सकता हूँ, सब राजमहल में ही करनी पड़ती हैं. अब तो ये पुरानी बदमाशिया भी बोर करने लगी हैं. हाल यह हो चला है कि होली के अवसर पर खुद को बदमाश मानने में भी शर्म आने लगी है.

वही ठंडाई, वही नर्तकियां, वही ठंडाई का गिलास और वही दरबारी. कई बार संजय को फुसला कर इस बात पर राजी करने की कोशिश की कि वह हस्तिनापुर में खेली जानेवाली होली का लाईव टेलीकास्ट ही दिखा दे लेकिन वह तो पिताश्री को छोड़कर किसी की बात ही नहीं मानता. कहता है उसके चैनल पर होनेवाले हर टेलीकास्ट का एक्सक्लूसिव राईट्स पिताश्री के पास है. पिताश्री ने थोड़ी इज्ज़त क्या दी, सिर पर चढ़कर बैठ गया. मैं पूछता हूँ राजकुमारों की हसरतों और फरमाइशों का ख्याल दरबारी और सारथी नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा? कई बार मन में आया कि इसके ऊपर यह आरोप लगा कर इसे डिशमिश करवा दूँ कि यह घोड़ों के लिए खरीदे जाने वाले भोजन की कालाबाजारी करता है लेकिन कर्ण द्वारा मना करने पर मन मारकर बैठ जाना पड़ा.

जल्द ही इसका कुछ करना पड़ेगा.

पिछले बरस दु:शासन भेष बदलकर लोगों की भीड़ में घुस गया था और अपने सेलफ़ोन के कैमरे से फोटो खींच लाया था. वही दो-चार फोटो देखने को मिली थी. इस साल तो यह भी होने से रहा. दुशासन बाहर जाने से भी डर रहा है. आज़ाद हिंद ढाबे पर इसने बीयरपान करके नशे में किसी लड़की को छेड़ा था और उसके आशिक ने इसकी धुलाई क्या की, अब वह अकेले तो क्या चार सिपाहियों के साथ भी बाहर निकलने से डरता है.

सुबह से ही बीयरपान में मस्त है. कहता है दो दिन बीयर पीकर गुज़ार देगा. अपने चमचों को भेजकर बालाजी वाइन शॉप से जबरदस्ती चार क्रेट बीयर उठावा लाया है. उधर जयद्रथ मोहिनी-अट्टम देखने में बिजी है. सुना है दो दिन तक इस बात पर अड़ा रहा कि उज्बेकिस्तान से आई नर्तकी को भारत-नाट्यम परफार्म करना ही पड़ेगा. काफी झमेले और बहस के बाद वह नर्तकी मोहिनी अट्टम करने पर राजी हुई.

ये ऐसे बिजी हैं तो मुझे अपना होली प्रोग्राम खुद ही बनना पड़ेगा. क्या किया जा सकता है? ऐसे ही दरबार में रहना पड़ेगा और हास्य कवि सम्मेलन में 'कवियों' के चुटकुले सुनकर होली मनानी पड़ेगी. ये लोग़ पिछले दस सालों से उन्ही बासी चुटकुलों की कविता बनाकर ठेलते रहे हैं. ऊपर से कहते हैं कि कविता सुना रहे हैं.

इतनी-इतनी मुद्रा देकर इन कवियों को बुलाया जाता है लेकिन इन्हें जरा भी शर्म नहीं. आने-जाने का किराया अलग. ऊपर से कहते हैं कि फर्स्ट क्लास का टिकट न देकर इन्हें डायरेक्ट मुद्रा ही दे दी जाय. दुशासन का एक गुप्तचर बता रहा था कि दो-तिहाई कवि फर्स्ट क्लास के टिकट का पैसा लेकर सेकंड क्लास से आते-जाते हैं. ऊपर से एक कवि तो इस बात पर अड़ गया कि उसके स्वागत के लिए उसे गेंदा के फूलों की माला न पहनाई जाय. वह चाहता है कि उसे केवल गुलाब के फूलों की माला पहनाई जाय. बेवकूफ को यह नहीं पता कि गुलाब के फूलों की माला बनाने में माली को कितनी तकलीफ होती है? कवियों को लाने के लिए दो घोड़ों के रथ भेजे गए थे. एक कवि अड़ गया. बोला जब तक उसके लिए चार घोड़ों का रथ नहीं जाएगा तबतक वह राजमहल में कविता सुनाने आएगा ही नहीं.

मुझे इस कवि के बारे में पता है. विद्यार्थियों के बीच चुटकुले सुनाकर इसने अपना बाज़ार गरम किया है.

वैसे कोई-कोई कवि गलती से एकाध बार कविता भी सुना बैठता है. परसों के कवि सम्मेलन में किसी कवि ने ये कविता सुनाई थी. मुझे अच्छी लगी. लिख देता हूँ. कवि का नाम तो याद नहीं क्योंकि मैं भंग के नशे में था लेकिन कविता यूं थी...

क्या फागुन की ऋतु आई है
डाली-डाली बौराई है
हर और सृष्टि मादकता की
कर रही फ्री में सप्लाई है

धरती पर नूतन वर्दी है
खामोश हो गई सर्दी है
कर दिया समर्पण भौरों ने
कलियों में गुंडागर्दी है

मनहूसी मटियामेट लगे
खच्चर भी अप टू डेट लगे
फागुन में काला कौवा भी
सीनियर एडवोकेट लगे

फागुन पर सब जग टिका लगे
सेविका परम प्रेमिका लगे
बागों में सजी-धजी कोयल
टीवी की उदघोषिका लगे

जय हो कविता कालिंदी की
जय रंग-बिरंगी बिंदी की
मेकप में वाह तितलियाँ भी
लगती कवियित्री हिन्दी की

पहने साड़ी वाह हरी-हरी
रस भरी रसों से भरी-भरी
नैनों से डाका डाल गई
बंदूक दाग गई धरी-धरी

हर और मची हा-हा, हू-हू
रंगों का भीषण मैच शुरू
साली की बालिंग पर देखो
जीजा जी हैं एल बी डब्ल्यू

भाभी के रन पक्के पक्के
हर ओवर में छ छ छक्के
कोई भी बाल न कैच हुआ
सब देवर जी हक्के-बक्के

गर्दिश में वही बेचारे हैं
बेशक जो बिना सहारे हैं
मुंह उनका ऐसा धुआं-धुआं
ज्यों अभी इलेक्शन हारे हैं

क्या फागुन की ऋतु आई है
मक्खी भी बटरफिलाई है
कह रहे गधे भी सुनो-सुनो
इंसान हमारा भाई है


नोट: युवराज तो भंग के नशे में थे इसलिए उन्हें कवि का नाम याद नहीं लेकिन आपको बता दूँ कि यह कविता प्रसिद्द कवि श्री डंडा लखनवी की है.

Friday, March 18, 2011

अमर सिंह का इंटरव्यू - न्यूक्लीयर डील री-विजिटेड




नोट: मैंने यह पोस्ट संसद में न्यूक्लीयर डील पर होने वाले (अ)विश्वास प्रस्ताव पर जुलाई २००८ में लिखा था. चूंकि न्यूक्लीयर डील पर एक बार फिर से बात हो रही है इसलिए सोचा कि इस पोस्ट की रि-ठेल कर दूँ. जिन्होंने नहीं पढ़ा होगा वे पढ़ लेंगे.

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अपने देश में दो तरह के नेता होते हैं. एक वे जो डिमांड में रहते हैं और दूसरे वे जो रिमांड में रहते हैं. जैसे अमर सिंह जी आजकल डिमांड में हैं. 'न्यू-क्लीयर डील' को पास कराने का बीड़ा उठाकर राष्ट्रहित में काम करने का जो साहस उन्होंने किया है वैसा बिरले ही कर पायेंगे. पिछले पन्द्रह दिनों से हर टीवी चैनल पर वही दिखाई दे रहे हैं. एक पत्रकार ने उनक इंटरव्यू लिया था लेकिन वो इंटरव्यू प्रसारित नहीं हो सका. प्रस्तुत है वही इंटरव्यू. टीवी पर नहीं प्रसारित हो सका तो क्या हुआ, ब्लॉग पर ही सही.

पत्रकार: "स्वागत है आपका अमर सिंह जी. हमारे कार्यक्रम में आपका बहुत-बहुत स्वागत है."

अमर सिंह: "देखिये, फालतू की बातों के लिए समय नहीं है हमारे पास. आप जल्दी से अपने सवाल पूछिए. हमें आधे घंटे बाद बीबीसी पर इंटरव्यू देना है. उसके बाद सीएनएन पर जाना है. उसके बाद हमें रेडियो अफ्रीका के लिए..."

पत्रकार: " नहीं-नहीं, ऐसा मत कहिये. ये तो हम तो औपचारिकता निभा रहे थे."

अमर सिंह: "आप पत्रकार भी क्या-क्या निभा जाते हैं. नेताओं से दोस्ती निभाने के लिए कहते हैं और ख़ुद केवल औपचारिकता निभाते हैं. खैर, कोई बात नहीं. आप सवाल दागिए."

पत्रकार: "सवाल दागना नहीं है. मैं तो सवाल पूछूंगा."

अमर सिंह: "वो तो देखिये ऐसे ही मुंह से निकल आया. जब से 'न्यू-क्लीयर' डील में उलझा हूँ, दागना, फोड़ना जैसे शब्द जबान पर आ ही जाते हैं. वैसे, आप सवाल पूछिए."

पत्रकार: "मेरा सवाल आपसे यह है कि आपने कैसे फ़ैसला किया कि न्यूक्लीयर डील राष्ट्रहित में है?"

अमर सिंह: "आप किस तरह के पत्रकार हैं? आपको पता नहीं है कि हमने सबसे पहले न्यूक्लीयर डील को लेकर डाऊट किया, तब जाकर जान पाये कि ये डील राष्ट्रहित में है."

पत्रकार: "अच्छा, अच्छा. हाँ, वो मैंने पढ़ा था. आपके डाऊट के बारे में. वैसे एक बात ये बताईये, आपके वामपंथी साथियों ने न्यूक्लीयर डील को राष्ट्रहित में क्यों नहीं माना?"

अमर सिंह: "डाऊट नहीं किया न. डाऊट किया होता तो उन्हें भी पता चलता कि ये डील राष्ट्रहित में है."

पत्रकार: "लेकिन उनके डाऊट नहीं करने के पीछे क्या कारण हो सकता है? मतलब, आपको क्या लगता है?"

अमर सिंह: "मैंने पूछा था. मैंने कामरेड करात से पूछा था. मैंने पूछा कि 'आपने डाऊट क्यों नहीं किया?' वे बोले 'हम तो साढ़े चार साल से डाऊट कर के राष्ट्रहित में काफी कुछ कर चुके हैं. अब आपको मौका देते हैं कि न्यूक्लीयर डील पर डाऊट करके आप भी राष्ट्रहित में कुछ कीजिये."

पत्रकार: "ओह, तो ये बात है. लेकिन आपने समझाया नहीं कि आपदोनों मिलकर भी तो राष्ट्रहित में कुछ कर सकते हैं?"

अमर सिंह: "हमने तो कहा था. हमने कहा कि आधा डाऊट हम कर लेते हैं, आधा आपलोग कर लीजिये. हम अपने डाऊट का समाधान डॉक्टर कलाम से करवा लेंगे. आपलोगों को डॉक्टर कलाम पसंद नहीं हैं तो आप ऐसा कीजिये कि अपने डाऊट का समाधान किसी चीन के वैज्ञानिक से करवा लीजियेगा."

पत्रकार: "क्या जवाब था उनका?"

अमर सिंह: "कुछ साफ़ नहीं पता चला. वे कुछ बुदबुदा रहे थे. मुझे लगा जैसे कह रहे थे 'चीन के कारण ही तो सारा झमेला है.'"

पत्रकार: "वैसे आप ये बताईये कि डॉक्टर कलाम से मिलने के बाद आपके सारे डाऊट क्लीयर हो गए?"

अमर सिंह: "बहुत अच्छी तरह से. उनसे मैंने और राम गोपाल यादव जी ने इतनी शिक्षा ले ली है कि हम दोनों न्यू-क्लीयरोलोजी में मास्टर बन गए हैं. अब तो हम भारत ही नहीं बल्कि ईरान, पाकिस्तान, उत्तरी कोरिया जैसे देशों का न्यूक्लीयर डील पास करवा सकते हैं."

पत्रकार: "माफ़ कीजियेगा, लेकिन न्यू-क्लीयरोलोजी नहीं बल्कि उस विषय को न्यूक्लीयर फिजिक्स कहते हैं."

अमर सिंह: "हा हा हा हा. वैसे आपकी गलती नहीं है. मैं साइंस की नहीं बल्कि आर्ट की बात कर रहा था. न्यू-क्लीयरोलोजी का मतलब वो कला जिसमें न्यू-क्लीयर डील पास कराने की पढाई होती है."

पत्रकार: "अच्छा, अब जरा इस डील से उपजी राजनैतिक परिस्थितियों पर बात हो जाए. अफवाह है कि आपने केन्द्र सरकार को इस मुद्दे पर समर्थन इस शर्त के साथ दिया है कि वो मायावती जी के ख़िलाफ़ सीबीआई से कार्यवाई करने को कहे. क्या यह सच है?"

अमर सिंह: "यह बात बिल्कुल ग़लत है. देखिये सुश्री मायावती के ख़िलाफ़ सीबीआई के पास सुबूत तो पिछले तीन सालों से थे. लेकिन सीबीआई के लिए काम करने वाले पंडितों और ज्योतिषियों ने सीबीआई को सुबूत अदालत में दाखिल करने से रोक रखा था. पंडितों ने कहा था कि अगर ये सुबूत साल २००८ के जुलाई महीने में अदालत को दिए जाय, तो ये सीबीआई के लिए शुभ होगा. पंडित लोग तो मनुवादी हैं न. वे तो शुरू से मायावती जी के पीछे पड़े हैं."

पत्रकार: "अच्छा, अच्छा. तो ये बात है. लेकिन अमर सिंह जी, आपको नहीं लगता कि अब आप उसी सरकार को समर्थन दे रहे हैं, जिस सरकार से आप लड़े."

अमर सिंह: "देखिये, हमारा ऐसा मानना है कि राजनीति में लड़ाई नहीं होती है. विरोध करना एक बात है और फिर उन्ही विरोधियों के साथ मिल जाना सर्वथा दूसरी. हम पहले विरोध करते हैं. जब देखते हैं कि विरोध से कुछ नहीं होनेवाला तो हम मिल जाते हैं. अभी हम और कांग्रेस मायावती जी के विरोध में हैं. लेकिन कल को मायावती जी केन्द्र में आ जायेंगी तो हम साथ भी हो सकते हैं."

पत्रकार: "लेकिन आप उनलोगों के साथ कैसे रह सकते हैं जिनसे आप झगड़ चुके हैं? आपने ख़ुद एक बार लालू जी को भांड कह दिया था."

अमर सिंह: "देखिये इस मामले में मुझे यही कहना है कि आई हैव बीन मिसकोटेड. भांड शब्द का मतलब यहाँ कुछ और ही था. देखिये मैं कलकत्ते में पला बढ़ा हूँ. और कलकत्ते में कुल्हड़ को भांड कहा जाता है. मैंने तो केवल ये कहा था कि लालू जी कितने प्यारे हैं. बिल्कुल कुल्हड़ की तरह. और दूसरी बात ये कि कुल्हड़ मिटटी से बनता है और लालू जी मिट्टी से जुड़े नेता हैं. मैंने तो उनकी तारीफ़ की थी."

पत्रकार: "तो आपको क्या लगता है, आप संसद में सरकार का बहुमत साबित कर पायेंगे?"

अमर सिंह: "बिल्कुल, पूरी तरह से. हमारे साथ ३०० सांसद हैं."

पत्रकार: "लेकिन अफवाह है कि सांसद खरीदे जा रहे हैं. कल बर्धन साहब ने कहा कि पच्चीस करोड़ में एक बिक रहा है."

अमर सिंह: "मैं इस पर कुछ कमेन्ट नहीं करना चाहता. बर्धन साहब का तो कोई सांसद बिका नहीं है. उन्हें कैसे पता क्या रेट चल रहा है."

पत्रकार: "अच्छा ये बताईये कि ये बात कहाँ तक जायज है कि आप अपने उद्योगपति मित्रों का एजेंडा राजनीति में ले आयें?"

अमर सिंह: "देखिये मैंने माननीय प्रधानमंत्री के सामने कुछ मांगे रखी हैं. लेकिन ये सभी मांगे राष्ट्रहित में हैं. हाँ, अब इन मांगों से अगर हमारे मित्रों का भला हो जाए, तो वो तो संयोग की बात है. हमारे मित्रो के लिए इस तरह का फायदा केवल एक बायप्रोडक्ट है. ठीक वैसे ही जैसे हम साम्प्रदायिकता की समस्या को दूर करने के लिए कांग्रेस के साथ आए हैं. अब ऐसे में अगर न्यूक्लीयर डील पास हो जाए, तो वो महज एक संयोग समझा जाय."

पत्रकार: "वैसे आपने प्रधानमंत्री से अम्बानी भाईयों के झगडे को सुलझाने की बात कही. क्या यह सच है?"

अमर सिंह: "हाँ. यह बात सच है. मैंने प्रधानमंत्री से कहा है कि दोनों भाईयों का झगडा अगर सुलझ जाता है तो वो राष्ट्रहित में होगा."

पत्रकार: "मतलब ये कि दोनों भाईयों का हित ही असली राष्ट्रहित है."

ये सवाल सुनकर अमर सिंह जी कुछ बुदबुदाए. लगा जैसे कह रहे थे, ' दोनों का झगडा सुलझ जाए तो मैं दोनों के नज़दीक रहूँगा. असल में तो मेरा हित होगा. मेरा हित मतलब राष्ट्रहित है.'

उनकी बुदबुदाहट बंद होने के बाद पत्रकार भी कुछ बुदबुदाया. मानो कहा रहा हो; 'हम बेशर्मी के स्वर्णकाल में जी रहे हैं.'

Thursday, March 10, 2011

स्कैम, एरर ऑफ जजमेंट, फुल रेस्पोंसिबिलिटी और मनी-ट्रेल - भाग २




......मॉरिशस के बारे में बात हो रही थी.

तो मैं कह रहा था कि मुंबई में बैठा उद्योगपति अगर यूपी स्थित अपनी कंपनी में पैसा लगाना चाहता है तो उसका पैसा मॉरिशस के रास्ते चलकर ही यूपी पहुँचता है. उद्योगपति यह नहीं चाहता कि मुंबई मेल वाया इलाहबाद पकड़े और पैसा दूसरे ही दिन यूपी में. ना, वह यह अफोर्ड नहीं कर सकता क्योंकि उसके सलाहकार ने उसे बता रखा है कि अपना ही रुपया अपनी कंपनी में लगाना भी चाहो तो सीधे-सीधे न लगाओ. पहले उसे मॉरिशस भेजो और वहाँ से उसकी एंट्री भारत में करवाओ. यह वैसी ही बात है जैसे कहीं-कहीं गावों में विवाह के बाद नई-नवेली दुल्हन को ससुराल वाले घर में कदम रखने से पहले किसी देवी के मंदिर या किसी पीपल के पेड़ की पूजा करवाने ले जाते हैं.

शायद भारत का ही पैसा भारत में ही प्रवेश करने से पहले मॉरिशस की तीर्थयात्रा कर आता है तो तन और मन से पवित्र हो जाता है.

गज़ब देश है यह मॉरिशस भी. मॉरिशस से मेरी और तमाम भारतीयों की पहली जान-पहचान वहाँ के भूतपूर्व प्रधानमंत्री शिवसागर रामगुलाम ने करवाई. मुझे याद है सत्तर के दशक के अंत में रेडियो पर अशोक बाजपेयी समाचार पढ़ते हुए हमें बताते थे कि; "आज दिल्ली में मॉरिशस के प्रधानमंत्री शिवसागर रामगुलाम से प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी से मुलाकात की और दोनों देशों के बीच समबन्धों को प्रगाढ़ किये जाने पर बल दिया."
पैसा यहां से घूम कर आता है!
रामगुलाम ज़ी की खासियत थी कि वे भारत के साथ सम्बन्ध मज़बूत करने के लिए जब-तब हमारी प्रधामंत्री से मुलाकात कर लेते थे. वे संबंधों के प्रगाढ़ किये जाने पर खूब बल देते थे. शायद उनके तब बल दिए जाने का ही असर है जो आज भारत और मॉरिशस के बीच संबंधों में दिखाई दे रहा है. रेडियो पर उनकी मुलाक़ात के बारे में सुनकर लगता था कि इस प्रधानमन्त्री के जीवन का उद्देश्य ही था कि वह यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ सबसे मुलाकात करता फिरे. वैसे बचपन के उनदिनों में रेडियो पर ऐसे समाचार सुनकर हमें गर्व की अनुभूति भी होती थी कि एक भारतीय विदेश में बसे एक देश का प्रधानमंत्री है. अस्सी के दशक में जब रामगुलाम ज़ी नहीं रहे तब अनिरुद्ध जगन्नाथ ज़ी ने हमारे और मॉरिशस के बीच के सम्बन्ध को और प्रगाढ़ कर डाला. यह वह समय था जब उनकी भारत यात्रा के बारे में हमें यज्ञदेव शर्मा और पंचदेव पाण्डेय से वाया आकाशवाणी सूचना मिलती थी.

सम्बन्ध आगे बढ़े तो १९८९ में मेरे और मॉरिशस के बीच दूरी तब और कम हो गई जब मैंने श्री अमिताभ बच्चन की 'फिलिम' अग्निपथ देखी. बड़ी धाँसू एंट्री मारी थी बच्चन ज़ी ने डैनी बाबू के अड्डे पर. जिसने भी अग्निपथ देखी होगी उन्हें याद होगा कि बच्चन ज़ी कैसे समुन्दर के अन्दर से बच्चन इस्टाइल में अपना सिर हिलाते हुए निकले थे और उन्हें देखकर डैनी ज़ी ने अपनी ओवरएक्टिंग का एक और नमूना फट से पेश कर दिया था. अपने छिछले समुन्दर और नारियल के पेड़ों के कारण मॉरिशस बड़ा सुन्दर और सुशील दिखाई दिया था. बच्चन ज़ी की फिल्म 'अग्निपथ' मॉरिशस के साथ हमारे फ़िल्मी सम्बन्ध की शुरुआत भर थी. आगे चलकर उन्ही की एक और फिल्म 'हम' ने इन संबंधों को और प्रगाढ़ कर डाला. क्या कहा? याद नहीं है? अरे जरा सा दिमाग पर जोर डालेंगे तो याद आ जाएगा कि कैसे गोविंदा और शिल्पा शिरोडकर अपने घर से बाइक पर निकलते हैं और सीधा मॉरिशस पहुंचकर वहाँ एयरपोर्ट पर खड़े एयर मॉरिशस के एक जहाज के पंखें पर नाचते हुए एक दूसरे को बताते हैं कि; "सनम मेरे सनम, कसम तेरी कसम, मुझे आजकल नींद आती है कम...."

पूरे ढाई किलो शुद्ध तुकबंदी वाला गाना.

अभी दो-ढाई साल पहले मैं एक भोजपुरी फिल्म देख रहा था....

क्षमा कीजिये मैं विषय से भटक गया. एक ब्लॉगर की यही समस्या है. उसे टोकने वाला कोई नहीं रहता है लिहाजा वह भटक कर किसी भी राह पर चला जाता है. और जब उसे होश आता है तो पता चलता है कि आधी पोस्ट में वह निरर्थक बातें लीप चुका है. ऊपर से इतनी निरर्थक बातें लिखने बाद उसके मन में लालच भी आ जाता है कि अब इसे मिटायेंगे तो पोस्ट को हरी-भरी करने के लिए फिर से कुछ और निरर्थक लिखना पड़ेगा. ऐसे में जाने दो जो लिखा गया वो लिखा गया. इसे मिटाने की ज़रुरत नहीं. जो कुछ भी है पड़ा रहेगा एक कोने में. क्या लेगा हमारा?

तो मैं भारत में लाये जाने वाले कैपिटल की बात कर रहा है. बड़ी विकट अफरा-तफरी है इन पैसों की वजह से. ऐसी लोक-कथा है कि किसी पूर्व वित्तमंत्री ने अपनी बहू के सुझाव पर (भारतीय राजनीति और उसकी नीति निर्धारण में बहुओं का बोलबाला पहले से रहा है) भारत और मॉरिशस के बीच कुछ ऐसे कागजी सम्बन्ध स्थापित किये कि पूछिए ही मत. उस कागजी समबन्ध के बाद भारत में मॉरिशस के रास्ते पैसा ही पैसा. हर क्षेत्र में पैसा. हर जगह पैसा. हर उद्योग में पैसा. हर राज्य में पैसा. और हर पैसे के केंद्र में मॉरिशस. एफ डी आई का पैसा मॉरिशस के रास्ते आ रहा है तो एफ आई आई का पैसा भी उसी रास्ते से आ रहा है. हाल यह है कि पिछले कई वर्षों में मॉरिशस से चले पैसे की लहरें भारतीय शेयर बाज़ारों के तटों से आकर ऐसे टकरा रही हैं कि कभी-कभी सुनामी आने का खतरा हो जाता है.

जिस तरह के खुलासे हो रहे हैं और जिस तरह से कुछ बातें सामने आ रही है उन्हें देखकर कभी-कभी लगता है कि हमारे उद्योगपतियों के फैसले न केवल उनके अर्थ सलाहकारों के सुझावों पर निर्भर करते हैं बल्कि उनके पंडितों और गुरुओं पर भी निर्भर करते हैं. पता नहीं मुझे क्यों लगता है कि हर उद्योगपति का पंडित या गुरु उसे उपदेश देते हुए कहता होगा कि; "हे जजमान, भगवदगीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि हे पार्थ कलियुग में भारतवर्ष में पैसा अगर मॉरिशस के रास्ते आएगा तो वह पवित्र पैसा होगा. जिस तरह से तीर्थराज प्रयाग में स्थित संगम में स्नान करने के बाद मनुष्य पवित्र हो जाता है वैसे ही मॉरिशस में स्थित गंगा तलाव की महिमा यह होगी कि वह मॉरिशस में आये हर पैसे को शुद्ध और पवित्र कर देगा....."

अब मॉरिशस की गिनती विश्व के अन्यतम टैक्स-हेवेन में होने लगी है और उसे यह दर्जा दिलवाने का काम इतना महत्वपूर्ण है कि आनेवाले समय में भारत को अपनी इस उपलब्धि को आगे रखकर सयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में परमानेंट सीट की दावेदारी प्रस्तुत करनी चाहिए. मामूली उपलब्धि नहीं है यह. मैं तो कहता हूँ कि इसके बल पर तो भारत खुद को पूरे विश्व के मुखिया के तौर पर प्रोजेक्ट कर सकता है. नौ प्रतिशत विकास दर (दर लिखने गए तो जो शब्द पहले आया वह 'डर' था) एक एडिशनल क्वालिफिकेशन के तौर पर अपने साथ तो है ही.

इस उपलब्धि की वजह से परिवर्तन दिखाई भी दे रहा है. मैं तो स्कूलों के मास्टर ज़ी लोगों से अनुरोध करूँगा कि अब छात्रों को निबंध के लिए जो नए विषय दिए जायें उनमे भारतीय अर्थव्यवस्था में मॉरिशस का महत्व नामक विषय अवश्य दिया जाय. ऐसा करने से छात्र आधे तैयार होकर निकल सकेंगे. मॉरिशस सरकार को यह प्रयास करने चाहिए कि जिस तरह भारतवर्ष में मॉरिशस से आनेवाले पैसों के बारे में कोई पूछताछ नहीं होती उसी तरह से मॉरिशस से आनेवाले नागरिकों के बारे में कोई पूछताछ न की जाय. इससे दोनों देशों के बीच समबन्ध प्रगाढ़ तो होंगे ही, एक नई वैश्विक व्यवस्था पनप सकेगी. कितने दिनों तक शोध करने वाले हमारे छात्र अर्थशास्त्र के पुराने सिद्धांतों पर पी एचडी लेते रहेंगे? नए विषय के तौर पर इन छात्रों को "इमपौर्टेंस ऑफ मॉरिशस इन इंडियन इकॉनोमी" नामक विषय पर शोधपत्र लिखकर पी एचडी की डिग्री लेनी चाहिए. देसी विश्वविद्यालयों को चाहिए कि अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए इस विषय को आवश्यक कर दें. इससे देश की विकास दर के करीब दो प्रतिशत और बढ़ जाने की सम्भावना प्रबल हो जायेगी. हमारे जो नेता इस विषय पर पहले ही शोध ग्रंथ लिख चुके हैं उन्हें चाहिए कि वे नए आनेवाले नेताओं को अपने शोध ग्रंथ की न सिर्फ प्रतियाँ बातें बल्कि उन्हें अपनी तरफ से भी कुछ जोड़ देने के लिए प्रेरित करें. हमारी जांच एजेंसियों को चाहिए कि वे अपने अफसरों को मॉरिशस के बारे में अलग से ट्रेनिंग दें ताकि आनेवाले समय में उन्हें आर्थिक घपलों की जांच में कोई दिक्कत नहीं हो. हमारे प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे................

Tuesday, March 8, 2011

स्कैम, एरर ऑफ जजमेंट, फुल रेस्पोंसिबिलिटी और मनी-ट्रेल - भाग १




किसी भी काल में देशवासियों के शब्दकोष में जुड़ने वाले शब्द कुछ हद तक उस रास्ते का सूचक होते हैं जिसपर देश चल रहा है. पिछले आठ-दस महीने को ही ले लीजिये, टू-ज़ी, स्कैम, सी बी आई, जे पी सी, टैपिंग, रिस्पोंसिबिलिटी, सुप्रीमकोर्ट, एरर ऑफ जजमेंट, सी वी सी, सी डब्ल्यू ज़ी, बेल अप्लिकेशन, फिक्शर्स, मॉरिशस, मनी-ट्रेल और ऐसे ही न जाने कितने शब्द हैं जो देशवासियों के न सिर्फ शब्दकोष में जगह पाकर इतरा रहे हैं बल्कि उनके जेहन में रच-बस गए हैं. जो अभी तक रचे-बसे नहीं हैं वे अपना नंबर आने का इंतजार करते हुए हमारे कर्णधारों से पूछ रहे हैं; "मेरा नंबर कब आएगा?"

ये शब्द कुछ हद तक उस रास्ते के बारे में बता भी रहे हैं जिसपर देश चल रहा है.

वैसे ये शब्द लोगों के जेहन में केवल धंसे नहीं हैं, अब तो धीरे-धीरे इन्हें बोल-चाल में इस्तेमाल भी किया जाने लगा है. हाल यह है कि अगर घर का खाना बनाने वाला महराज सब्जी के पैसों में से अपने लिए बीड़ी का बण्डल खरीद लेता है तो घर का राजा बेटा चिंटू अपने पापा से कहता है; "पापा, मुझे तो लगता है कि रामू महराज ने सब्जी के पैसे में कोई स्कैम ज़रूर किया है. आप सुप्रीमकोर्ट (यानि चिंटू ज़ी की मम्मी) से कहिये न कि वे इस मामले में इंटरफीयर करें नहीं तो रामू महराज कल को और बड़ा स्कैम करेगा."

चुन्नू गली में क्रिकेट खेलते-खेलते अगर फ्रोन्ट-फुट की बजाय बैकफुट पर शॉट खेलकर एल बी डब्ल्यू आउट हो रहा है तो पैवेलियन में वापस आकर कह रहा है; "एरर ऑफ जजमेंट हो गया. मुझे बैकफुट पर नहीं खेलना चाहिए था."

उसी मैच में अगर टीम हार जा रही है तो टीम का कैप्टेन पूरी गली के सामने इस हार की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए तपाक से यह कहकर अपना पल्ला झाड़ ले रहा है कि; "आई टेक फुल रिस्पोंसिबिलिटी फॉर दिस लॉस."

इतना कह देने भर से लोग़ उसकी वाह-वाही कर डाल रहे हैं और उसे कैपटेंसी से रिजाइन करने की जरूरत ही नहीं पड़ रही है. उसका वाइस कैप्टेन जिसने अभी तक कैप्टेन बनने के सपने संजो रखे थे, उसे समझ में नहीं आ रहा कि अब वह क्या करे? वाइस कैप्टेन यह सोचते हुए मुँह लटका ले रहा है कि; "इसने तो जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली, अब तो इसके रेजिग्नेशन की डिमांड टीम करेगी ही नहीं. अब तो इस हार की जांच के लिए जे पी सी की डिमांड भी नहीं की जा सकती."

अचानक घपलों में इस्तेमाल होनेवाले शब्द इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि समझ नहीं आता कि यही शब्द इतने दिन तक कहाँ थे? अभी कल की बात है. मैं अपनी पार्ट टाइम ड्यूटी पर था यानि अपने एक मित्र के कोलैबोरेशन में देश के हालात पर चिंता व्यक्त कर रहा था. चिंता व्यक्त करते हुए मैंने उनसे कहा; "एक बात समझ में नहीं आती कि इन शब्दों ने इतने दिन तक हमारे जीवन में प्रवेश क्यों नहीं किया? क्या हम इतने गए गुजरे थे कि ये शब्द हमें इस लायक नहीं समझते थे? क्या दोष था हमारा? मैं पूछता हूँ क्या स्कैम पहले नहीं हुए थे? हमारे पास बोफोर्स था. हमारे पास सुखराम थे. हमारे पास हर्षद मेहता, केतन पारेख और ओत्तोवियो क्वात्रोकी थे. हमारे पास यू टी आई था. हमारे पास यूरिया, नरसिम्हा राव, सिबू सोरेन, साइमन मरांडी और लखूभाई पाठक थे. और तो और हमारे पास जैन ज़ी की डायरी थी. ऐसे में इस सुप्रीम कोर्ट ने पहले क्यों नहीं किया कुछ? इन शब्दों ने देशवासियों को पहले परेशान क्यों नहीं किया? क्यों नहीं ये शब्द तभी जेहन में घर बना सके?"

मित्र शायद एक साथ इतने सवालों के लिए तैयार नहीं थे. अचानक सवालों की झड़ी लगी तो सकपका गए. स्थिर हुए तो चेहरे पर दार्शनिक भाव लाते हुए बोले; "हर चीज का अपना समय होता है. जो-जो जब-जब होना है सो-सो तब-तब होता है."

उनकी बात सुनकर मुझे यह मानने में जरा भी संकोच नहीं हुआ कि विदुर या चाणक्य की नीति में यह लिखा हो या नहीं लेकिन यह हमारी संस्कृति और इतिहास में पक्के तौर पर दिखाई देता है कि जब कोई जवाब न सूझे तो आदमी को फट से दार्शनिकता नामक तिनके को थाम लेना चाहिए. तिनका डूबा देगा इस बात की चिंता बिलकुल नहीं करनी चाहिए.

इन शब्दों पर आगे बात चली तो मनी-ट्रेल नामक शब्द पर आकर रुकी. इन घपलों में जांच के दौरान मनी-ट्रेल के बारे में खूब चर्चा हो रही है. मनी-ट्रेल से मतलब रुपया जिस रास्ते गया या जिस रास्ते से आया. वैसे मैं आपको यह बताता चलूं कि मनी-ट्रेल सुनने से पता नहीं क्यों मुझे वे हवाई जहाज याद आ जाते हैं जो अपने पीछे धुआं छोड़ते जाते हैं. जब मैं छोटा था और गाँव में रहता था तो गाँव के आसमान में गुजरते हुए ऐसे हवाई जहाज को देखकर हम दोस्त कहते; "अरे देखो रॉकेट छूटा है."

आज जब भी मनी-ट्रेल नामक शब्द सुनता हूँ तो गाँव, बचपन और अपनी बेवकूफियां तो याद आती ही हैं वे हवाई जहाज भी खूब याद आ रहे हैं.

मनी-ट्रेल की कहानी भी बड़ी धाँसू निकलती है. एक दिन अखबारों से पता चला (यह उनलोगों को इम्प्रेश करने के लिए लिखा गया है जिन्हें यह शक है कि मैं अखबार नहीं पढ़ता) कि जिन कंपनियों को टू ज़ी स्पेक्ट्रम अलॉट हुआ उनमें से कुछ कंपनियों में मॉरिशस के रास्ते पैसा आया था. दूसरे दिन पता चला कि राजा बाबू को जो घूस मिला वह घूस उन्होंने मॉरिशस के रास्ते बाहर के देशों जैसे मलेशिया और मैडगासकर में इन्वेस्ट किया. पढ़कर लगा कि ऐसा भी क्या है कि देश में पैसा आये तो मॉरिशस के रास्ते और देश से पैसा जाए वो भी मॉरिशस के रास्ते?

मुझे तो यह लगता है कि जिन्हें अपने भूगोल के ज्ञान पर नाज़ है वे अगर यह पढ़ लें तो अपने ज्ञान पर शंकित होते हुए सिर खुजलाने लगेंगे. यह सोचते हुए कि अब भारतवर्ष तक आने-जाने वाला हर रास्ता क्या केवल और केवल मॉरिशस से होकर गुजरता है? और कोई रूट नहीं जिसे फॉलो करके भारत पहुँचा जा सके?

अचानक भारत की अर्थव्यवस्था में मॉरिशस का महत्व इस तरह से बढ़ गया है जितना अमेरिका और चीन का भी नहीं है. हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं कि मुंबई में बैठे उद्योगपति को अगर उत्तर प्रदेश में अपनी कंपनी में पैसा डालना है तो वह बन्दा भी मॉरिशस के रास्ते ही पैसे को यूपी तक पहुंचाता है. वह यह करने के लिए राजी नहीं है कि मुंबई से मुंबई मेल वाया इलाहाबाद पकड़ी और दूसरे ही दिन पैसा यूपी में. ना? वह ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि........

(जारी रहेगा)

Wednesday, March 2, 2011

हम मार्च मना रहे हैं




मार्च आ ही गया. आता कैसे नहीं? इतने लोग़ मार्च का इंतज़ार करते हैं कि उसे आना ही पड़ता है. खुशहाली न आये तो क्या मार्च भी नहीं आएगा? पूरे साल में हमारे लिए इससे ज्यादा महत्वपूर्ण कोई और महीना भी तो नहीं. बहुत कम लोग़ होते हैं जिनके लिए साल के सारे महीने एक जैसे होते हैं. जैसे विजय माल्या ज़ी. उनके द्वारा छपवाया जाने वाला कैलेण्डर साल के हर महीने को उनके लिए महत्वपूर्ण बना देता है. बाकी लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण मार्च ही है.

बड़ा इंतजार करते हैं लोग़ तब जाकर मार्च आता है. वैसे यही लोग़ जहाँ एक तरफ इंतजार करते हैं वहीँ दूसरी तरफ इस बात से भी हलकान हुए रहते हैं कि मार्च आने से प्रेशर बढ़ गया है. मार्च में ऐसे लोगों को देखकर लगता है जैसे इन्होने पूरे साल काम ही नहीं किया. वैसे कुछ लोगों को मार्च का फायदा भी रहता है. ये ऐसे लोग होते हैं जो मार्च के सहारे आफिस के अलावा बाकी और कोई काम नहीं करते. इनके लिए मार्च का महीना संजीवनी की तरह होता है.

ऐसे लोगों को अगर रिश्तेदार बुला लें तो ये जवाब देते हैं; "अभी नहीं. मार्च तक तो बात ही मत कीजिये. आफिस में बहुत प्रेशर है. मार्च ख़तम हो जाए तो आते हैं आपके घर." कोई रिश्तेदार इनके घर पर आना चाहे तो वहाँ भी वही बात; "हैं हैं..आप आयेंगे भी तो संध्या और बच्चे तो मिलेंगे घर में हम नहीं मिल पायेंगे. इसलिए बस यही मार्च जाने दीजिये उसके बाद आईयेगा."

ऐसे कहेंगे जैसे मार्च ने आकर घर में डेरा डाल रखा है और इनके घर आनेवाले रिश्तेदार के बैठने तक की जगह नहीं है.

पत्नी कहेगी; "सुनो, माँ आना चाहती थी" तो जवाब मिलेगा; "क्या करती हो? अरे समझाओ अपनी माँ को. यही मार्च जाने दो उसके बाद आने के लिए बोलो."

ये लोग़ एक तारीख से ही कहना शुरू कर देते हैं; "नहीं-नहीं, अभी मार्च तक तो कोई बात ही मत करो. जो कुछ भी है, मार्च के बाद देखेंगे. अभी मार्च तक बहुत प्रेशर है."

मंहगाई का प्रेशर, बच्चों की पढ़ाई का प्रेशर, दोस्तों द्वारा खिंचाई का प्रेशर वगैरह उतने विकट नहीं होते जितना मार्च का प्रेशर होता है.

ऐसा नहीं है कि पहले वर्ष के महीने परेशान नहीं करते थे. पहले भी करते थे. लेकिन तब हमपर ग्लोबलाईजेशन का असर नहीं था. लिहाजा तब हिन्दी महीने परेशान करते थे. सिनेमा के गाने याद कीजिये, पता चलेगा कि हीरो-हीरोइन हिन्दी महीने में परेशान रहते थे. इनलोगों को पहले सावन बहुत परेशान करता था. लगभग हर फ़िल्म में एक गाना होता था जिसमें सावन का जिक्र होता था.

दरअसल तब का ज़माना ग्लोबलाईजेशन वाला नहीं था. लिहाजा हीरोइन हिन्दी महीने में परेशान रहती थी और उसी के सहारे बढ़िया संगीतमय गाने बहुत मीठी आवाज़ में गाती थी. बरसात के मौसम में हीरोइन पानी में भीगते हुए सावन के सहारे कोई गीत गाती या फिर बसंत ऋतु में फागुन के सहारे. लेकिन आज के हीरो-हीरोइन चूंकि हिंदी महीनों को भाव नहीं देते इसलिए अब दोनों ज्यादातर मार्च महीने में परेशान रहते हैं.

याद कीजिये सावन में हीरोइन का वह गीत; "तेरी दो टकिया की नौकरी और मेरा लाखों का सावन जाए."

अब इस तरह का गाना सुनाई देता है कहीं? ना. अब हीरो की सैलरी बढ़ गई है. अब उसको लाखों रुपये सैलरी मिलती है. अब हाल यह है कि नौकरी लाखों की हो गई है और सावन दो टके का भी नहीं रहा. आज बड़ी से बड़ी हीरोइन के बस की बात नहीं कि वह गाना गा दे कि; "तेरी दो टकिया की नौकरी मेरा लाखों का सावन जाय ".

एक बार ट्राई करके देख ले. एक बार भी ऐसा गाना गा दे तो हीरो ज्वालामुखी की तरह फट पडेगा; "क्या दो टकिया? दो टकिया की नौकरी होती तो खाने के लाले पड़ जाते. आटा का भाव देखा है? खाने के तेल और दाल का भाव पता है कुछ? प्याज तीस रूपये किलो बिक रही है. वैसे भी तुमको कैसे पता रहेगा? शापिंग मॉल में जींस और टी शर्ट खरीदने से फुरसत मिले तब तो आटा और दाल का भाव पता चले. और सुनो, दो टकिया की नौकरी होती तो ये मलेशिया और पट्टाया की छुट्टियाँ कहाँ से आती?"

अब इस तरह की बातों से डर कर कौन हीरोइन ऐसा गाना गाएगी? उल्टा अब ख़ुद हीरोइन कहती फिरती है; "ह्वाट अ टेरीबल मंथ, दिस सावन इज..वन कांट इवेन ड्रेस प्रोपेर्ली...वही कचरा वही बरसात..बाहर निकलना भी मुश्किल रहता है."

अब तो हालत ये है कि हीरो आफिस से रात को एक बजे घर पहुंचता है तो हीरोइन पड़ोसन को सुनाती है; "क्या बतायें. कल तो ये रात के एक बजे घर आए. मार्च चल रहा है न."

सुनकर लगता है जैसे मार्च महीने में पूरे तीस दिन बॉस का आफिस में काम ही नहीं है और मार्च ही बॉस बन बैठा है. हाथ पकड़कर उसने हीरो को यह कहते हुए बैठा रखा है कि ; "खबरदार एक बजे से पहले कुर्सी से उठे तो."

हीरो की भी चांदी है. आफिस में बैठे-बैठे काम करे या ट्वीट करे, किसे पता? लेकिन चाहे जो भी करे उसे मार्च का अन-कंडीशनल सपोर्ट है. सुबह के तीन बजे भी घर पहुंचेगा तो मार्च है रक्षा करने के लिए. कार्पोरेट वर्ल्ड में सारे पाप और पुण्य यही मार्च करवाता है.

मार्च महीने में घर से निकल जायें तो यही लगता है कि पूरा भारत मार्च मना रहा है. रिक्शेवाला जल्दी में रहता है. बसवाला जल्दी में रहता है. टैक्सीवाला तक जल्दी में रहता है. सभी तेज चलाते हैं. सभी भागे जाते हैं. हिम्मत नहीं होती कि उनसे कह दें कि भाई साहब आहिस्ता चलिए, हमें घर तक पहुंचना है. मन में बात आये तो भी यह डर रहता है कि ये लोग़ पलटकर यह न कह दें; "आपको मालूम नहीं, मार्च महीना चल रहा है. सबकुछ तेजी से होना चाहिए. आप आफिस में काम नहीं करते क्या?"

रास्ते में लोगों की बातें सुनिए. आते-जाते कोई न कोई यह कहते हुए सुनाई देगा ही कि; "बड़ी प्रॉब्लम है. उधर चुन्नू की परीक्षा चल रही है लेकिन मार्च के कारण उसको भी टाइम नहीं दे पा रहे हैं.' या फिर; "अब बस बीस दिन का खेला है उसके बाद अप्रैल से थोड़ा आराम मिलेगा."

लोग़ आफिस में टारगेट बना रहे हैं. टारगेट अचीव कर रहे हैं. जो टारगेट अचीव नहीं कर रहे हैं वे मीटिंग कर रहे हैं. मीटिंग करके यह तय कर रहे हैं कि कल फिर से मीटिंग करेंगे. जो मीटिंग नहीं कर पा रहे हैं वे काम कर ले रहे हैं. जो काम भी नहीं कर पा रहे हैं वे सोच रहे हैं. जो सोच नहीं रहे हैं वे सोचने की एक्टिंग कर रहे हैं. हर कोई व्यस्त है. हर कोई पस्त है. हर कोई मार्च मना रहा है और मार्च भी बेचारा है कि मन रहा है.

लोग़ टैक्स प्लानिंग कर रहे हैं. जो टैक्स प्लानिंग नहीं कर रहे हैं वे उसे करने के बारे में विचार कर रहे हैं. जो विचार नहीं कर रहे हैं वे प्रचार कर रहे हैं. बिल बनाये जा रहे हैं. बिल कैंसल किये जा रहे हैं. एडवांस टैक्स कैलकुलेट किये जा रहे हैं. फिर कैलकुलेशन ध्वस्त किये जा रहे हैं. फिर से कैलकुलेट किये जा रहे हैं. सरकारी विभाग के अफसर अपने विभाग के बजट को खर्च करने के लिए हलकान हुए जा रहे हैं. टेंडर फ़ाइनल किये जा रहे हैं. टेंडर कैंसल किये जा रहे हैं.

उधर इनकम टैक्स के रिटर्न बन रहे हैं तो इधर फ़ाइल हो रहे हैं. रिटर्न बनाने बैठ रहे हैं तो पता चल रहा है कि बैंक स्टेटमेंट गायब हैं. चिट्ठी लिखी जा रही हैं. चिट्ठी पढ़ी जा रही है. आते-जाते सड़कों पर टाइपराइटर चलाने वाले खट-पिट किये जा रहे हैं. कहीं बैलेंस शीट बन रही हैं तो कहीं रिटर्न बन रहा है.

अद्भुत गति से काम हो रहा है. इतना काम अगर साल के हर महीने में हो हम सारी दुनियाँ की प्रोडकटिविटी की बैंड बजाकर रख दें. चीन वाले रेस छोड़कर भाग जायें और अमेरिका वाले वाकओवर दे दें. लेकिन ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि मार्च के बाद अप्रैल आ जाता है और हमें निकम्मा बना जाता है.

हमारे देश में निकम्मेपन के लिए साल के ग्यारह महीने जिम्मेदार हैं. यह एक मौलिक रिसर्च है जिसके लिए अगर मुझे नोबल मिल भी जाएगा तो मैं लेने से मना नहीं करूँगा.

वैसे मार्च आया है तो जाएगा भी. परमानेंटली रहने के लिए कौन आया है इस धरती पर? उसके चले जाने के बाद कुछ लोग़ निराश भी हो जायेंगे. जो लोग निराश होंगे वे इसलिए निराश होंगे कि मार्च का नाम लेकर देर रात तक घर से बाहर नहीं रह सकेंगे. लेकिन उन्हें ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं. समय देखते देखते कट जाता है. मार्च अगले मार्च में फिर आएगा.