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Tuesday, August 31, 2010

इंडिया टुडे - राष्ट्रीय ब्लॉग सर्वे - २०१०






इंडिया टुडे ने जुलाई महीने के अंतिम सप्ताह में देश भर में हिंदी ब्लागिंग पर एक सर्वेक्षण किया. पत्रिका के अनुसार यह सर्वेक्षण अपनी तरह का पहला सर्वेक्षण है जो हिंदी ब्लागिंग के लिए न सिर्फ महत्वपूर्ण है अपितु उसकी दिशा तय करने में निर्णायक साबित होगा.

इस मामले में पत्रिका के प्रधान सम्पादक का कहना है; "हिंदी ब्लागिंग स्वतंत्र अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम बन चुकी है जिसका भविष्य तो उज्जवल है ही, वर्तमान भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. लेखन के मीडियम के तौर पर हिंदी ब्लागिंग अब पर्याप्त रूप से पुरानी हो चुकी है. इतनी पुरानी हो चुकी है कि अब तो इस मीडियम का विस्तार दलों, गुटों और एशोसियेशन के तौर पर भी हो रहा है. आज पूरे भारतवर्ष में बीस हज़ार से ज्यादा हिंदी ब्लॉगर हैं. यही कारण था कि हमने पहली बार इतने विशाल स्तर पर एक सर्वे किया. हमने पूरे देश के अट्ठारह बड़े और तैंतीस छोटे शहरों में अपने संवाददाताओं को भेजकर करीब आठ हज़ार हिंदी ब्लागरों से कुल तेरह प्रश्न किये और उनपर उनका मत लेते हुए यह सर्वे करवाया जिसमें कई चौकानेवाले तथ्य सामने आये हैं. आशा है कि हमारी पत्रिका हिंदी ब्लागिंग पर आगे भी सर्वेक्षण करती रहेगी. हम अपना यह सर्वेक्षण राष्ट्र को समर्पित करते हैं."

प्रस्तुत है सर्वेक्षण का परिणाम जो इंडिया टुडे के १६-२३ सितम्बर अंक में प्रकाशित होगा. वैसे आपको इंतज़ार करने की ज़रुरत नहीं है, सर्वेक्षण के परिणाम आप यहीं बांचिये.

०१. ब्लागरों से जब यह पूछा गया कि "उनकी ब्लागिंग का उद्देश्य क्या है?" तो कुल ५७.३७ प्रतिशत ब्लॉगर का यह मानना था कि ब्लागिंग का कोई उद्देश्य हो, यह ज़रूरी नहीं है. जहाँ बड़े शहरों में इस तरह का विचार रखने वाले कुल ४०.२६ प्रतिशत लोग थे वहीँ छोटे शहरों में यह आंकड़ा ५२.१८ प्रतिशत रहा. बड़े शहरों में करीब १९.२७ प्रतिशत ब्लॉगर का मानना था कि वे इन्टरनेट पर अमर होने के लिए ब्लागिंग कर रहे हैं वहीँ ९.८३ प्रतिशत ब्लॉगर यह मानते हैं कि वे अपनी ब्लागिंग से समाज को बदल डालेंगे. छोटे शहरों में समाज बदलने को ब्लागिंग का उद्देश्य बनाने वाले ब्लागरों का आंकड़ा करीब १७.३१ प्रतिशत रहा.

०२. जब ब्लागरों से यह सवाल पूछा गया कि; "ब्लागिंग की वजह से सम्बन्ध बनाने में सहायता मिलती है?" तो ७०.१९ प्रतिशत ब्लॉगर यह मानते हैं कि ब्लागिंग की वजह से सम्बन्ध बनते है. वहीँ १९.८३ प्रतिशत ब्लॉगर यह स्वीकार करते हैं कि ब्लागिंग की वजह से सम्बन्ध बिगड़ते है. ७.१२ प्रतिशत ब्लॉगर का यह मानना है कि ब्लागिंग की वजह से सम्बन्ध बनते-बिगड़ते रहते हैं. बाकी ब्लॉगर यह मानते हैं कि समबन्ध बने या बिगडें, उन्हें इसकी परवाह नहीं है.

०३. एक और महत्वपूर्ण प्रश्न था; "ब्लागिंग करने की वजह से क्या ब्लॉगर को एक पारिवारिक माहौल मिलता है?" इस प्रश्न पर ८९.१६ प्रतिशत ब्लॉगर का मानना था कि उन्हें ब्लागिंग में आने के बाद एक ही चीज मिली है और वह है पारिवारिक माहौल. ६.८७ प्रतिशत ब्लॉगर का ऐसा मानना है कि वे स्योर नहीं है कि उन्हें पारिवारिक माहौल मिला है या नहीं? ऐसे ब्लॉगर का मानना है कि अगर झगड़ा वगैरह होता रहे तो पारिवारिक माहौल का एहसास बना रहता है परन्तु चूंकि झगड़ा परमानेंट फीचर नहीं है इसलिए वे अपने विचार पर पूरी तरह जम नहीं सकते.

०४. एक प्रश्न कि; "ब्लागिंग की वजह से ब्लॉगर को कौन-कौन से रिश्तेदार मिलने की उम्मीद रहती है?" इस प्रश्न के जवाब में ८.९३ प्रतिशत ब्लॉगर का कहना था कि वे एक 'फादर फिगर' मिलने की उम्मीद से रहते हैं वहीँ ४५.६६ प्रतिशत लोग भाई-बहन मिलने की उम्मीद करते हैं. करीब १४.५७ प्रतिशत ब्लॉगर को एक अदद चाचा मिलने की उम्मीद रहती है तो १९.३१ प्रतिशत ब्लॉगर एक दोस्त मिलने की उम्मीद में ब्लागगिंग करते हैं. केवल ७.५६ प्रतिशत ब्लॉगर यह उम्मीद करते हैं कि उन्हें पूरा परिवार ही मिल जाए जिससे उन्हें किसी रिश्ते की कमी नहीं खले. करीब ३.१६ प्रतिशत लोग यह मानते हैं कि पारिवारिक रिश्तों से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उन्हें टिप्पणियां मिले.

०५. हमारे संवाददाताओं ने ब्लागरों से एक सवाल किया कि; "क्या केवल अपना ब्लॉग लिखकर ब्लॉगर बना जा सकता है?" इस सवाल के जवाब में ह्वोपिंग ९७.६८ प्रतिशत ब्लॉगर का यह मानना था कि केवल ब्लॉग लिखकर ब्लागिंग नहीं की जा सकती. जहाँ २२.४४ प्रतिशत ब्लॉगर का यह मानना था कि वे अपना ब्लॉग लिखने के अलावा चर्चा करना पसंद करते हैं वहीँ ५३.७१ प्रतिशत ब्लॉगर का यह मानना है कि वे ब्लॉग लिखने के अलावा ब्लॉगर सम्मलेन को महत्वपूर्ण मानते हैं. १८.८८ प्रतिशत ब्लॉगर यह मानते हैं कि लिखने के अलावा वे एशोसियेशन बनाने को ब्लागिंग का अभिन्न अंग मानते हैं. ४१.५१ प्रतिशत ब्लॉगर यह मानते हैं कि लिखने के अलावा ब्लॉगर सम्मलेन, एशोसियेशन और गुटबाजी करके ही एक सम्पूर्ण ब्लॉगर बना जा सकता है. वहीँ ७.३९ प्रतिशत ब्लॉगर यह मानते हैं कि लेखन, एशोसियेशन और सम्मलेन के अलावा पुरस्कार वितरण करके ही पूर्ण ब्लॉगर बना जा सकता है.

०६. सर्वे में एक प्रश्न था; "आप लेखन की किस विधा का समर्थन करते हैं?" इस प्रश्न के जवाब में जहाँ ८३.१५ प्रतिशत लोगों ने कविता लेखन का समर्थन किया वहीँ १४.१३ प्रतिशत लोगों ने गद्य लेखन का समर्थन किया. केवल १.१८ प्रतिशत लोगों ने दोनों का समर्थन किया. करीब १.५ प्रतिशत लोगों ने यह कहकर किसी का समर्थन नहीं किया कि वे गुट निरपेक्ष संस्कृति को जिन्दा रखना चाहते हैं.

०७. एक प्रश्न कि; "टिप्पणियां कितनी महत्वपूर्ण हैं?" के जवाब में ९१.८९ प्रतिशत ब्लॉगर ने बताया कि टिप्पणियां सबसे महत्वपूर्ण हैं. इसमें से जहाँ ८४.५६ प्रतिशत ब्लॉगर यह मानते हैं कि टिप्पणियां पोस्ट से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं वहीँ ७.१६ प्रतिशत ब्लॉगर मानते हैं कि टिप्पणियां और पोस्ट दोनों महत्वपूर्ण हैं. करीब ८.७८ प्रतिशत ब्लॉगर मानते हैं कि पोस्ट और टिप्पणियों से ज्यादा महत्वपूर्ण वे खुद हैं.

०८. एक प्रश्न कि; "फीड अग्रीगेटर का रहना कितना ज़रूरी है?" के जवाब में करीब ९२.३९ प्रतिशत ब्लॉगर का यह मानना है कि हिंदी ब्लागिंग के लिए फीड अग्रीगेटर का होना बहुत ज़रूरी है. जहाँ ६७.७२ प्रतिशत ब्लॉगर यह मानते हैं कि फीड अग्रीगेटर के रहने से लोगों को उठाने-गिराने में सुभीता रहता है वहीँ २८.७५ प्रतिशत ब्लॉगर का मानना था कि फीड अग्रीगेटर को पंचिंग बैग की तरह इस्तेमाल करने में मज़ा आता है इसलिए उसका रहना बहुत ज़रूरी है. करीब ३.१८ प्रतिशत ब्लॉगर यह मानते हैं कि फीड अग्रीगेटर रहे या न रहे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे लोगों को मॉस-मेल के जरिये सूचित करते हैं कि उनकी नई पोस्ट आ गई है.

०९. जब ब्लागरों से यह प्रश्न किया गया कि "ब्लागिंग करने की वजह से उनका कितने लोगों से झगड़ा हुआ है?" तो जो परिणाम सामने आये वे चौकाने वाले थे. करीब ८.१२ प्रतिशत लोग ही यह जवाब दे सके कि ब्लागिंग करने के बावजूद उनका किसी ब्लॉगर के साथ झगड़ा नहीं हुआ. ९०.१७ प्रतिशत का मानना था कि ब्लागिंग करते हुए उनका किसी न किसी ब्लॉगर से झगड़ा अवश्य हुआ है. वहीँ १.७१ प्रतिशत ब्लॉगर का मानना था कि वे स्योर नहीं है कि उनका किसी अन्य ब्लॉगर के साथ झगड़ा हुआ या नहीं? ऐसे लोगों का मानना था कि अन्य ब्लॉगर से उनकी तू-तू-मैं-मैं हुई भी तो उसे झगड़ा कह जा सकता है या नहीं इस बात पर संदेह है. केवल २४.८९ प्रतिशत ब्लॉगर ही ऐसे थे जिनका दो या दो से कम लोगों से झगड़ा हुआ है. करीब ४०.३७ प्रतिशत ब्लॉगर ऐसे हैं जिनका पाँच से ज्यादा लेकिन नौ से कम लोगों के साथ झगड़ा हुआ. जहाँ १३.७८ प्रतिशत ब्लॉगर का दस से ज्यादा और पंद्रह से कम ब्लॉगर के साथ झगड़ा हुआ वहीँ ११.१० प्रतिशत ब्लॉगर का पंद्रह से ज्यादा और तीस से कम ब्लॉगर के साथ झगड़ा हुआ. कुल ०.३ प्रतिशत ब्लॉगर थे जिन्होंने मॉस लेवल पर यानि पचास से ज्यादा लोगों के साथ झगड़ा किया है.

१०. जब ब्लागरों से यह प्रश्न किया गया कि "हिंदी ब्लागिंग में ज्यादातर झगड़े की वजह क्या है?" तो करीब केवल ७.८९ प्रतिशत लोगों ने व्यक्तिगत मतभेद को झगड़े की वजह बताया. दूसरी तरफ जहाँ ६७.१८ प्रतिशत लोगों ने धार्मिक वैमनष्य को झगड़े की जड़ बताया वहीँ १९.०९ प्रतिशत ब्लागरों ने राजनैतिक विचारधारा को झगड़े की वजह बताया. वैसे एक बात पर सारे ब्लॉगर एकमत थे कि कहीं पर झगड़ा होने से उस संस्था के डेमोक्रेटिक होने का गौरव प्राप्त होता है इसलिए हिंदी ब्लागिंग में झगड़े का मतलब है कि डेमोक्रेटिक सेटअप सुदृढ़ हो रहा है.

११. एक सवाल कि; "संबंध बनाने के लिए कौन से साधन महत्वपूर्ण हैं?" के जवाब में जो परिणाम आये वे चौकाने वाले थे. जैसे करीब ६३.३९ प्रतिशत लोगों का मानना था कि संबंध बनाने के लिए फ़ोन सबसे महत्वपूर्ण साधन है. वहीँ करीब ८.९७% प्रतिशत ब्लॉगर यह मानते हैं कि संबंध बनाने के लिए वे ई-मेल का सहारा लेते हैं. ६.९८ प्रतिशत ब्लॉगर मेल और फ़ोन दोनों का इस्तेमाल करते हैं और बाकी के ब्लॉगर मेल, फ़ोन के अलावा सम्मलेन और व्यक्तिगत मुलाकातों को सम्बन्ध बनाने के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं.

१२. जब ब्लागरों से यह पूछा गया कि; "सिनेमा, राजनीति, क्रिकेट और सामजिक मुद्दों के अलावा ब्लॉग पोस्ट के लिए सबसे महत्वपूर्ण विषय क्या है?" तो उसपर करीब ७५.४३ प्रतिशत ब्लागरों का मानना था कि इन सब विषयों के अलावा सबसे महत्वपूर्ण विषय है "चिट्ठाकारों" के बारे में लिखना. करीब ६.७३ प्रतिशत लोगों के लिए यात्रावर्णन एक महत्वपूर्ण विषय है वहीँ ९.११ प्रतिशत लोगों के लिए ब्लागिंग कार्यशाला महत्वपूर्ण विषय है. दूसरी तरफ ८.२७ प्रतिशत लोगों के लिए सम्मान लेन-देन कार्यक्रम महत्वपूर्ण है तो करीब ०.५% प्रतिशत लोगों ने स्वीकार किया कि वे खुद सबसे महत्वपूर्ण विषय हैं.

१३. जब ब्लागरों से यह प्रश्न किया गया कि; "बीच-बीच में ब्लागिंग छोड़ देने की घोषणा एक ब्लॉगर के भविष्य के लिए कितनी महत्वपूर्ण है?" तो उसके जवाब में करीब ९२.१३ प्रतिशत ब्लॉगर मानते हैं कि ब्लागिंग छोड़ देने की घोषणा किसी भी ब्लॉगर के ब्लॉग-जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण है. इसमें से करीब ६६.८९ प्रतिशत ब्लॉगर का मानना है कि ऐसी घोषणा से किसी भी ब्लॉगर का ब्लॉग-जीवन न सिर्फ बढ़ जाता है अपितु उसे टिप्पणियां भी ज्यादा मिलने लगती हैं. करीब ७.१६ प्रतिशत ब्लॉगर ही मानते हैं कि ब्लागिंग छोड़ देने की घोषणा से एक ब्लॉगर के ब्लॉग-जीवन पर ख़ास असर नहीं पड़ता. वहीँ जिन लोगों का मानना है कि ऐसी घोषणा से एक ब्लॉगर का ब्लॉग जीवन बढ़ जाता है उनमें से करीब २४.३१ प्रतिशत लोग यह मानते हैं कि दो से ज्यादा बार ब्लागिंग छोड़ देने की घोषणा करने से एक ब्लॉगर का ब्लॉग जीवन औसतन तीन वर्ष बढ़ जाता है. वहीँ चार से ज्यादा घोषनाएं करने वाले ब्लॉगर का ब्लॉग जीवन औसतन पाँच वर्ष बढ़ जाता है.

तो ये थे हमारे प्रथम राष्ट्रीय ब्लॉग सर्वेक्षण के परिणाम. हमारे संवाददाताओं ने न सिर्फ पूरे देश का दौरा किया अपितु सही परिणामों के लिए सैम्पल साइज़ से कोई समझौता नहीं किया. उद्देश्य केवल एक ही था कि पूरे देश के सामने एक सच्ची तस्वीर उभर कर आये. हम उन हिंदी ब्लागरों के भी आभारी हैं जिन्होंने इस सर्वे के लिए अपना समय निकाला. आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि यह सर्वे हिंदी ब्लागिंग में एक मील का पत्थर साबित होगा.

---सम्पादक

Friday, August 27, 2010

एक और अपील का जादू




बात उनदिनों की है जब गणतांत्रिक देश की जनता को समझ में नहीं आ रहा था कि वह किस बात पर परेशान हो? मंहगाई की बात पर परेशान होना शुरू करती तो भ्रष्टाचार से न परेशान होने की बात पर हीन भावना से ग्रस्त हो जाती. सड़क के गड्ढों की बात पर परेशान होना शुरू करती कि कामनवेल्थ गेम्स में पैसों की हेरा-फेरी पर परेशान न हो पाने की बात खलने लगती. कामनवेल्थ गेम्स में हुई पैसों की हेरा-फेरी से परेशान होने के लिए कमर कस रही होती कि कोई पूछ बैठता; "नक्सली समस्या पर परेशान नहीं हुए? उसका नंबर कब आएगा?"

जनता की इस परेशानी को ध्यान में रखते हुए किसी तत्कालीन न्यूज चैनल के नारा सर्जक ने नारा भी लिख दिया था; "किस पर हो परेशान किसको दे फेंक, जनता एक और समस्याएं अनेक".

हाँ, उनदिनों टीवी न्यूज चैनल्स की चांदी थी. न्यूज चैनल वाले एक समस्या पर पैनल डिस्कशन करते और दूसरी पर चले जाते. फ़ॉलो-अप के लिए समय देने की ज़रुरत नहीं पड़ती.

एक दिन जनता के रूप में जन्मे किसी गुनी ने बताया कि सारी समस्याओं का जन्म एक ही समस्या से हुआ है और वह है भ्रष्टाचार. मतलब यह कि अगर भ्रष्टाचार को रोक लिया जाय तो बाकी समस्याएं अपने आप ख़त्म हो जायेंगी.

बस फिर क्या था. जनता का एक प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री के पास पहुँचा. वहाँ लोगों ने देखा कि प्रधानमंत्री एक एक्सेल शीट और पेंसिल लिए बैठे थे. वे बार-बार अपनी आँख बंद कर कुछ बुदबुदाते हुए पेंसिल को घुमाते और एक खाने पर रख देते. पेंसिल कभी ८.९ प्रतिशत पर बैठती तो कभी ८.७५ पर. कभी ९ प्रतिशत पर बैठती तो ८.६५ प्रतिशत पर.

प्रतिनिधमंडल के लोग प्रधानमंत्री का यह कार्यक्रम बड़े ध्यान से देख रहे थे. उनमें से एक ने अपने पास खड़े आदमी से धीरे से कहा; "शायद कोई टोटका कर रहे हैं."

उसकी बात सुनकर प्रतिनिधिमंडल में से ही एक विद्वान् बोला; "टोटका नहीं है यह. यह अर्थशास्त्र है. प्रधानमंत्री जी अगले क्वार्टर के लिए जीडीपी का फिगर फाइनल कर रहे हैं."

अभी वे बात कर ही रहे थे कि प्रधानमंत्री ने कहा; "हैं जी? आपलोग किसी काम से आये हैं? बताइए मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ?"

जनता में से ही एक नेता टाइप दिखने वाला व्यक्ति भाषण देने वाले अंदाज़ में बोला; "प्रधानमंत्री महोदय हम आज देश के हालात अच्छे नहीं हैं. समस्याओं की भरमार हो गई है. एक तरफ मंहगाई की समस्या है तो दूसरी तरफ आतंकवाद की. एक तरफ बाढ़ की समस्या है तो दूसरी तरफ नक्सलवाद की. एक तरफ....."

अभी वह बोल ही रहा था कि प्रधानमंत्री उसे टोंकते हुए बोले; "आप प्वाइंट की बात करें. समस्याएं हैं यह मुझसे बेहतर कौन जान सकता है? आपको मुझसे क्या काम है वह बताइए."

प्रधानमंत्री की बात सुनकर उस नेता टाइप आदमी ने हडबडाते हुए कहा; "महोदय हमने अपने अध्ययन से यह पता लगाया है कि देश की सारी समस्याओं की जड़ भ्रष्टाचार है. आप भ्रष्टाचार को रोक दें तो देश सुधर जाएगा."

उसकी बात सुनाकर प्रधानमंत्री बोले; "मैं क्या-क्या करूं? देश को ९ प्रतिशत की ग्रोथ दूँ या भ्रष्टाचार रोकूँ? मैं अपना समय ऐसी फालतू बातों में खर्च करूँगा तो ग्रोथ का क्या होगा? वैसे भी आप ९ प्रतिशत की ग्रोथ रेट पर खुश होइए. भ्रष्टाचार की बात क्यों करते हैं?"

उनकी बात सुनकर जनता में से एक और विद्वान बोला; "महोदय, आज देश की हर समस्या की जड़ है भ्रष्टाचार. यह बात मैंने कल ही टीवी पर होनेवाले पैनल डिस्कशन में एक विद्वान् के मुँह से सुनी. अगर आप भ्रष्टाचार को रोक दें तो भारत एक बार फिर से सोने की चिड़िया हो जाएगा. आपके ही सरकार के मंत्रीगण भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं. टेलिकॉम मिनिस्ट्री को ही ले लें...."

प्रधानमंत्री ने उसे बीच में टोकते हुए कहा; "देखिये, मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई सबूत नहीं है. मैंने अपने मंत्रियों से खुद पूछा था कि क्या वे भ्रष्टाचार में लिप्त हैं? उन्होंने बताया कि वे भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हैं. वैसे अगर आपको लगता है कि भ्रष्टाचार के बार में मुझे कुछ करना चाहिए तो ठीक है. मैं आज शाम को ही राष्ट्र को संबोधित करूँगा और अपील कर दूंगा कि जो लोग भी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं तो तुरंत उसका त्याग कर दें."

उनकी बात सुनकर एक व्यक्ति बोला; "लेकिन सर, सरकार को कुछ कार्यवाई भी करनी चाहिए. छापे वगैरह मारने चाहिए. केवल अपील से क्या होनेवाला है?"

उसकी बात सुनकर प्रधानमंत्री बोले; " आपलोगों को अपील की ताकत का अंदाजा नहीं है. यह महात्मा गाँधी का देश है. जयप्रकाश नारायण का देश है. विनोबा भावे का देश है. यहाँ अपील से सबकुछ हो जाता है. अपील पर मुझे पूरा विश्वास है. मैंने कल ही कश्मीर में पत्थर फेंकने वालों से अपील की कि वे पत्थर फेंकना बंद कर दें. अभी हाल ही में मैंने नक्सली 'भाइयों' से अपील की कि वे हिंसा छोड़कर राष्ट्र की मुख्यधारा में लौट आयें."

"लेकिन सर...?" एक व्यक्ति फिर बोला.

"देखिये, मैं और कुछ नहीं कहूँगा. आप जाइए. मैं आज शाम को ही देश के तथाकथित भ्रष्टाचारियों से अपील कर दूंगा"; प्रधानमंत्री ने यह कहकर उन्हें विदा कर दिया.

शाम को राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचारियों से अपील कर दी. बोले; "लोग चाहे जो भी कहें परन्तु मुझे विश्वास नहीं होता कि हमारे देश में भ्रष्टाचार फैला है. विश्वास इसलिए नहीं होता क्योंकि देश में फैले भ्रष्टाचार का सबूत नहीं है. लेकिन फिर भी अगर कोई मंत्री, अफसर, दरोगा, क्लर्क वगैरह-वगैरह भ्रष्टाचार में लिप्त हो तो मैं उससे अपील करूँगा कि वह तुरंत उसे त्याग दे और सामान्य व्यवहार करें. ऐसा करने से देश की तरक्की होगी और हमारा देश फिर से महान हो जाएगा. यहाँ तक कि हम डबल डिजिट ग्रोथ भी अचीव कर सकते हैं."

दूसरे दिन पूरे देश में क्रान्ति हो गई. देश के हर शहर, हर जिले, हर ताल्लुके में लोगों ने भ्रष्टाचार त्याग दिया. मंत्री, अफसर, पुलिस, दरोगा, क्लर्क, चपरासी वगैरह वगैरह ने भ्रष्टाचार का त्याग कर दिया. हर महकमे में काम करने वालों ने घूस लेना बंद कर दिया. महानगर पालिका के सफाई इंस्पेक्टर से लेकर क्लर्क तक, सभी ने फैसला किया कि अब से वे घूस नहीं लेंगे. अब पी डब्ल्यू डी डिपार्टमेंट में भी घूस को घुसने की अनुमति नहीं थी. पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम के इंस्पेक्टर ने घूस लेने से मना करना शुरू कर दिया और राशन दूकान वालों को फाइन करना शुरू कर दिया. मिलावट की जांच करने वाले इंस्पेक्टर ने मिठाई की दूकानों से गिफ्ट में मिठाई लेना बंद कर दिया. ट्रैफिक कांस्टेबल ने अब पचास की पत्ती न लेकर रसीद काटना शुरू कर दिया. म्यूनिसिपल कारपोरेशन के क्लर्क ने जन्म प्रमाणपत्र अब बिना सौ रूपये लिए देना शुरू कर दिया.

देश में हाहाकार मच गया. एक तरफ जहाँ कुछ लोग खुश थे वहीँ दूसरी तरफ कुछ लोगों को यह शिकायत थी कि जब प्रधानमंत्री को यह मालूम था कि उनकी एक अपील से ऐसा जादू हो सकता था तो उन्होंने यही अपील पहले क्यों नहीं की? ऐसे लोगों को देखकर यही लगा कि कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके सामने अगर सरकार अपना कलेजा निकालकर भी रख देगी तो भी उन्हें संतुष्टि नहीं होगी.

सरकारी महकमों में जगह-जगह नारों की तख्तियां लटक रही थीं जिनपर सरकारी कर्मचारियों ने लिखकर बता दिया था कि वे अब घूस नहीं लेंगे. म्यूनिसिपल कारपोरेशन के हर डिपार्टमेंट में कोई न कोई नारा लटक रहा था. जैसे जन्म-मृत्यु पंजीकरण विभाग की दीवार पर नारा लटक रहा था जिसमें लिखा था; "दिन भर में घूस के लिए अब नहीं कोई सत्र, बिना घूस के ही लीजिये जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र".

पी डब्लू डी में सड़कों के टेंडर जिस विभाग में खुलते थे वहाँ दीवार पर नारा लटक रहा था; "पूरे देश में होगी अब सड़क ही सड़क, अब हम नहीं सहेंगे घूस की तड़क-भड़क."

कुल मिलाकर कहा जा सकता था कि सरकार के सभी विभागों के कर्मचारियों ने अपनी भावनाओं को नारों में कैद करके लटका दिया था.

टीवी वाले हर शहर के सरकारी विभागों में होनेवाली चहल-पहल का लाइव कवरेज दिखा रहे थे. दिखाना बनता भी था. जब घूस का लेन-देन कार्यक्रम बंद हो ही चुका था तो छुपाने के लिए कुछ नहीं था. विदेशों के पत्रकार देश में होनेवाली इस क्रान्ति के बारे रपट ठेले जा रहे थे. ट्रांसपरेंसी इंटर्नेशनल के पदाधिकारी दंग थे. उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि एक अपील से ऐसा कुछ हो सकता है. कई विदेशी विश्वविद्यालयों ने अपने छात्रों को "गणतंत्र में भ्रष्टाचार की रोक-थाम" पर शोध और केस स्टडी के लिए यहाँ भेजना शुरू कर दिया.

सरकार के हर महकमे के कर्मचारी सड़कों पर नारे लगा रहे थे. जगह-जगह सम्मलेन हो रहे थे. वे नारे लगा रहे थे कि देश में होगा शिष्टाचार, नहीं बचेगा भ्रष्टाचार....वगैरह-वगैरह. वे चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे कि हम अब घूस नहीं लेंगे...नहीं लेंगे-नहीं लेंगे.

बिना घूस के चलते हुए गणतंत्र को अभी बीस-पच्चीस दिन हुए थे कि अचानक पता चला कि सभी महकमों में जनता और सरकारी कर्मचारियों के बीच तू-तू मैं-मैं होना शुरू हो गया. एक-दो दिन तो मामला केवल कह-सुनी तक अटका रहा लेकिन तीसरे दिन जब सरकारी कर्मचारी घूस और भ्रष्टाचार विरोधी नारे लगाते हुए सड़कों पर जा रहे थे तो जनता और उनके बीच मार-पीट हो गई.

जनता इस बात पर अड़ी थी कि सरकारी कर्मचारियों को घूस लेना ही पड़ेगा वहीँ महकमों के कर्मचारी इस बात अड़े थे कि चाहे जो हो जाए वे घूस नहीं लेंगे. वे जनता से कह रहे थे; "तुम्ही लोगों ने तो कहा कि हम घूस न लें और अब जब हम नहीं ले रहे हैं तो क्यों परेशान हो रहे हो?"

जनता में से भी कुछ लोगों ने सड़क पर नारे लगाने शुरू कर दिया. वे चिल्ला रहे थे; "घूस न लेने का यह निर्णय नहीं सहेंगे-नहीं सहेंगे..."

नारेबाजी हो ही रही थी कि दोनों तरफ के अति उत्साही तत्वों ने एक-दूसरे के ऊपर हमला कर दिया. टीवी वाले, रेडिओ वाले, देसी पत्रकार, विदेशी पत्रकार सब दंग थे कि यह क्या हो रहा है? किसी को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि एक गणतंत्र की जनता इस बात पर अड़ी है कि भ्रष्टाचार करने वालों को सुधरने नहीं देंगे. मार-पीट इतनी बढ़ गई कि शहरों में कर्फ्यू लग गया.

दूसरे दिन जनता का एक प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री से मिला. जनता ने प्रधानमंत्री से रिक्वेस्ट किया कि वे अपनी अपील वापस ले लें. जब प्रधानमंत्री ने कारण जानना चाहा तो प्रतिनिधिमंडल के नेता ने कहा; "सर, आपने अपील क्या की हमारी जान की तो आफत आ गई. घूस न लेने के कारण सभी महकमों में इतना नियमपूर्वक काम हो रहा है कि हम नियम के सामने टिक नहीं पा रहे. सड़कें नहीं बन रही हैं क्योंकि सड़कों के लिए निकलनेवाले टेंडर की शर्तें कोई भी ठेकेदार पूरी नहीं कर पा रहा. फ़ूड इंस्पेक्टर ने घूस लेना बंद कर दिया है इसलिए मिठाई दूकानदारों की शामत आ गई है. अब वे न तो बासी मिठाइयाँ बेंच पा रहे हैं और न ही नकली मावा यूज कर पा रहे हैं. इनकम टैक्स अफसर नियम के हिसाब से चल रहा है तो जनता के लोग टैक्स की चोरी नहीं कर पा रहे हैं. सेल्स टैक्स वाले नियम पालन के लिए जगह-जगह छापे मार रहे हैं. ऐसे में तो जनता का जीना ही मुश्किल हो जाएगा. और तो और न जाने कितनी गाड़ियाँ मोटर वेहिकिल वालों ने जब्त कर ली हैं. ट्रैफिक पुलिस वाला......"

"बस-बस. मैं समझ गया. मुझे नहीं पता था कि मेरी एक अपील की वजह से इतना बड़ा बवाल हो जाएगा"; प्रधानमंत्री ने उनसे कहा.

नेता बोला; "सर, हमने भ्रष्टाचार को रोकने के लिए आपसे जो रिक्वेस्ट किया उसके लिए हम आपसे क्षमा मांगते हैं. आप कुछ कीजिये जिससे स्थिति पहले जैसे हो जाए और देश एक बार फिर से प्रगति की राह पर चल निकले."

प्रधानमंत्री ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे जल्द ही स्थिति पहले जैसी कर देंगे.

दूसरे दिन उन्होंने देशवासियों से अपील करते हुए कहा; "मैंने आप सब से सामान्य व्यवहार करने की अपील की थी. घूस न लेना कोई सामान्य व्यवहार थोड़ी न है. मैं आपसब से अपील करता हूँ कि आप सब पहले जैसे हो जाएँ और देश को प्रगति की राह पर आगे ले जाएँ."

दूसरे दिन फिर सब पहले जैसा हो गया और देश प्रगति की राह पर दौड़ने लगा...

नोट: यह लेख परसाई जी के लेख एक अपील का जादू का नया संस्करण हैं. लेख के 'आइडिये'की मौलिकता पर मेरा कोई दावा नहीं है. परसाई जी का लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कर सकते हैं.

Monday, August 23, 2010

The Rozabal Line (द रोज़ाबल लाइन)




किताब पढ़ना शुरू ही किया था और मैंने आश्विन से पूछा; "आश्विन, आपको नहीं लगता कि एक कश्मीरी के लिए राशिद-बिन-इशार थोड़ा कम कश्मीरी नाम है?"

मेरी बात पर उन्होंने हँस कर कहा; "मैं मानता हूँ लेकिन क्या तुमने पूरी किताब पढ़ी? पूरी पढ़ोगे तो पता चलेगा कि हर नाम के पीछे एक कारण है."

मैंने उनसे कहा; "मुझे पूरी किताब पढ़े बिना यह स्ट्युपिड सवाल नहीं पूछना चाहिए था."

मेरी इस बात पर उन्होंने कहा; "कोई सवाल स्ट्युपिड नहीं होता."

शायद उनके कहने का मतलब था सवाल स्ट्युपिड नहीं होता हाँ, आदमी होता है.

खैर, उसके बाद मैंने किताब पढ़ी. मेरे साथ ऐसा पहली बार हुआ कि किसी फिक्शन को पढ़ते हुए मैं जैसे-जैसे आगे बढ़ता मुझे लगता कि किताब में जो कुछ लिखा हुआ है वह अगले एक-दो साल में होकर रहेगा. अगले एक-दो साल की बात इसलिए क्योंकि किताब की कहानी का समय साल २०१२ है और जहाँ तक उसमें लिखी गई बातों के सच होने की बात है तो वह इसलिए कि अश्विन सांघी की स्टोरी टेलिंग ही ऐसी है.

अब मैं आपको किताब का नाम बताता हूँ. किताब का नाम है The Rozabal Line (द रोज़ाबल लाइन) और इसके लेखक हैं अश्विन सांघी. मैंने डैन ब्राउन की प्रसिद्द किताब The Da Vinci Code (द डा विंची कोड) तो नहीं पढ़ी लेकिन जिनलोगों ने दोनों किताबें पढ़ी हैं उनमें से बहुत से लोगों का कहना है कि अश्विन सांघी की यह किताब डैन ब्राऊन की किताब से ज्यादा पेंचीदा और डरावनी है.

और हो भी क्यों न? जरा सोचिये. पाँच हज़ार सालों के इतिहास को तथ्यपरक तरीके से रखना और उसके साथ एक ऐसी कहानी को जोड़ देना जिसे पढ़कर पाठक को लगे कि जिस फिक्शन को किताब में नैरेट किया गया है वह किसी भी ऐंगेल से फिक्शन नहीं है. अगर पाठक को यह लगने लगे कि अगले दो साल में वह सबकुछ सच होनेवाला है जो उपन्यास में लिखा गया है तो यह लेखक और उसकी स्टोरी टेलिंग की सफलता है.

उपन्यास है ईशा मसीह के बारे में.

ईशा मसीह के बारे में हम जितना जानते हैं क्या वह पूरा है? किताब न केवल यह सवाल उठाती है बल्कि तथ्यों को आगे रखते हुए यह बताती भी है कि ईशा के बारे में हम जितना जानते हैं, या कह सकते हैं जितना बताया गया है वह पूरा नहीं है. ईशा की मृत्यु सूली पर नहीं हुई थी यह तो हम सभी जानते हैं लेकिन उनका फिर से जिन्दा हो जाना उस धार्मिक कथा का हिस्सा है जिसे सुनाकर ईशा मसीह को भगवान साबित किया गया है.

लेकिन क्या कहानी यहीं तक है?

शायद नहीं. यह किताब हमें आगे की कहानी बताती है. ऐसा नहीं है कि ईशा के बारे में आगे की कहानी सुनाने वाली यह अकेली किताब है. तमाम और किताबें लिखी गई हैं. हाँ, उन किताबों और इस किताब के बीच अंतर है. जहाँ और किताबें केवल इतिहास के परिप्रेक्ष्य में लिखी गई हैं वहीँ अश्विन की यह किताब इतिहास के साथ एक फिक्शन को बड़े करीने से जोड़ देती है. कितने लोगों को पता है कि सूली पर चढ़ने और वहाँ से बचने के बाद ईशा मसीह भारत आ गए थे? भारत आने के बाद वे कश्मीर में रहे? कश्मीर में ही उन्होंने अपना बाकी जीवन बिताया और वहीँ उनकी मृत्यु भी हुई? कश्मीर के श्रीनगर में उनकी समाधि है? रोज़ाबल उसी समाधि को कहते हैं?

मुझे तो नहीं पता था. यह अलग बात है कि इसके ऊपर तमाम लेखकों और विद्वानों ने शोधपूर्ण तरीके से किताबें लिखी हैं. न जाने ऐसी कितनी किताबों और घटनाओं का जिक्र करते हुए आश्विन ने अपना यह उपन्यास लिखा है. वह भी अद्भुत तरीके से.

कल्पना कीजिये कि आप एक कहानी पढ़ रहे हैं जिसका समय साल २०१२ है. आप पढ़ रहे हैं उस समय में होनेवाली एक साजिश के बारे में और अचानक लेखक आपको ईशा पूर्व ७६५ ईसवी में ले जाता है. सोचिये कि एक कहानी साल २०१२ में अमेरिका के एक नगर में चल रही हो और अचानक लेखक आपको ईशा पूर्व ३१२७ में भारत के मथुरा में ले जाता है और बताता है कृष्ण का जन्म ईशा पूर्व ३१२७ में १३-१४ जुलाई को हुआ था. एक कालखंड से दूसरे में पहुँच जाने को अगर हम सफ़र मान लें तो हर सफ़र की दूरी तय करते हुए आप कन्विंश होते रहेंगे कि अगर तीन हज़ार वर्ष पहले नहीं जाते तो साल २०१२ में जो कहानी चल रही है उसे ठीक से समझ ही न पाते. जरा सोचिये कि लेखक साल २०१२ में होने वाली एक आतंकवादी साजिश को नैरेट कर रहा है और उसी समय वह आपको ईशा के साल २९ में ले जाता है. क्यों? केवल इसलिए नहीं कि इतिहास खुद को दोहराता है बल्कि इसलिए भी कि आज की कहानी लगभग दो हज़ार साल पहले की कहानी से जुडी हुई है.

कहानी आज की दुनियाँ के बारे में है. एक आम इंसान होने के नाते और अपने जीवन की तमाम मुश्किलों में उलझे रहने के कारण हमें यह सोचने का समय नहीं मिलता कि हम जिस दुनियाँ में रहते हैं उसे कौन कण्ट्रोल कर रहा है? उस दुनियाँ पर अपरोक्ष रूप से राज करने के लिए कौन से लोग और संस्थाएं सक्रिय हैं? सोवियत संघ के विघटन के बाद 'न्यू वर्ल्ड ऑर्डर' क्या वैसा ही है जैसा दिखाई देता है? शायद नहीं.

उपन्यास में एक तरफ है अमरीकियों द्वारा बनाई गई एक संस्था इल्यूमिनाटी है जिसमें दुनियाँ भर में तमाम क्षेत्रों के, जैसे राजनीति, उद्योग, विज्ञान, स्पोर्ट्स के लोग हैं जो दुनियाँ पर राज करना चाहते हैं और दूसरी तरफ वेटिकेन का एक सीक्रेट कल्ट है जो दुनियाँ भर में न केवल ईसाई धर्म का प्रचार करना चाहता है बल्कि बाइबिल में लिखी गई बातों को सच साबित करने पर तुला है. एक तरफ इल्यूमिनाटी आतंकवादियों को इसलिए सपोर्ट करता है जिससे तमाम और शक्तियों को कंट्रोल किया जा सके वहीँ ईसाई धर्म का प्रसार करने वाले आतंकवादियों को इसलिए सपोर्ट करते हैं जिससे बाइबिल में की गई भविष्यवाणियों को सच साबित किया जा सके.

माडर्न डे वर्ल्ड ऑर्डर कितना पेंचीदा है इस बात का अनुमान इससे लगाइए कि जिन लोगों के बारे में हम यह समझते हैं कि वे चर्च और वेटिकेन को सपोर्ट करते ही होंगे वही लोग आतंकवादियों को इसलिए सपोर्ट करते हैं ताकि वेटिकेन को कंट्रोल में रखा जा सके.

धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए रोमन कैथोलिक्स द्वारा किये गए अत्याचार से इतिहास भरा पड़ा है. ईसाई धर्म के प्रचारकों ने बाहर से आकर न केवल हिन्दुओं और मुसलमानों के ग्रन्थ नष्ट किये, मंदिर और मस्जिद को तोड़ा बल्कि कपड़े और परिधान तक को बदल डाला. जिन लोगों ने विरोध किया उन्हें ख़त्म कर दिया गया. परन्तु धर्म के प्रचार/प्रसार के लिए उनदिनों किये गए किये अत्याचार ही सबसे घिनौने कृत्य थे? शायद नहीं.

धर्म के प्रचार/प्रसार में अत्याचार की शायद कोई लिमिट नहीं है.

उपन्यास की कहानी में तेरह लोगों का एक ग्रुप जो लश्कर-ए-तैयबा का ही एक ब्रांच है और जिसे लश्कर-ए-तलाश्तार के नाम से जाना जाता है वह वर्ष २०१२ के हर महीने में बड़ी आतंकवादी घटना को अंजाम देता है जो देखने से बाइबिल में की गई भविष्यवाणियों से मिलता है. लेकिन इन बड़ी आतंकवादी घटनाओं से भी बड़ी एक घटना होनेवाली है जिसके बारे में वेटिकेन के एक कार्डिनल को पता है. कार्डिनल वैलेरियो खुद वहाँ के एक सीक्रेट कल्ट का हेड है और वह आतंकवादियों को इसलिए सपोर्ट कर रहा है कि वे जो तबाही मचानेवाले हैं वह बाइबिल में की गई भविष्यवाणी से मिलती है. वहीँ दुनियाँ में और भी लोग हैं जिन्हें लश्कर-ए-तलाश्तार के लीडर की तलाश है.

उपन्यास पढ़ते-पढ़ते माडर्न डे वर्ल्ड ऑर्डर को समझा जा सकता है. आये दिन हम सुनते रहते हैं कि धार्मिक संस्थाएं तमाम देशों में पैसे के बल पर क्या-क्या करती रहती हैं. यहाँ तक की कई देशों की मीडिया से लेकर सामाजिक अनुष्ठानों पर भी अपरोक्ष रूप से उनका राज है. उपन्यास में ये सारी बातें बहुत अच्छी तरह से उभर कर आती हैं. पाँच महाद्वीपों में फैली कहानी, करीब पाँच हज़ार वर्षों का इतिहास लिए हुए. उपन्यास माडर्न डे वर्ल्ड ऑर्डर के सभी खिलाड़ियों के रोल को अद्भुत ढंग से सामने रखता है. कहानी में ओसामा बिन लादेन है तो अब्दुल कादिर खान भी हैं, अमेरिका के राष्ट्रपति हैं तो उत्तरी कोरिया का न्यूक्लीयर प्रोग्राम भी है, रूस के सीक्रेट सर्विस का एजेंट है तो इसराइल वाले भी हैं.

वही दूसरी तरफ इतिहास भी है. बारहवीं शताब्दी में मुसलमान योद्धा सलादीन है तो उसके कब्ज़े से येरुसलम को निकालने के लिए ईसाइयों द्वारा भेजा गया 'रिचर्ड, द लायनहार्ट' भी है. एक तरफ पाइथागोरस के प्रमेय के बारे में जिक्र है तो दूसरी तरफ उस भारतीय ऋषि का भी जिक्र है जिसने पाइथागोरस से पहले ही वह सिद्धांत दिया था. नास्त्रेदमस का जिक्र है तो माया सभ्यता का भी जिक्र है जिसके अनुसार साल २०१२ में दुनियाँ ख़त्म होनेवाली है. प्राचीन नागा राजाओं का जिक्र है तो दूसरी इस बात का जिक्र भी है कि ये नागा राजा और उनसे जुडी हुई बातें प्राचीन अमेरिकी कल्चर का भी हिस्सा थीं. मिडिल-ईस्ट में आज से तीन हज़ार वर्ष पहले कुछ अनुष्ठानों का जिक्र है जो हिंदु धर्म के अनुष्ठानों से मिलता-जुलता है. बौद्ध धर्म का और ईसाई धर्म में बौद्ध धर्म की तमाम पद्धतियों की बातें हैं.

पढ़ते हुए हम इस बात पर सोचने लगेंगे कि यशोदा, यशोधरा और यीशु जैसे ऐतिहासिक चरित्रों के नाम में समानता क्या महज एक संयोग है? ईशा मसीह के ऊपर बौद्ध धर्म का कितना प्रभाव था? मगध से मेरी मगद-लेन का कोई सम्बन्ध है? सेंट साराह जिन्हें साराह-ला-काली भी कहा जाता है, उनका सरस्वती, लक्ष्मी और काली से कोई सम्बन्ध है क्या? ईसाईयत में जिस स्टार को माना जाता है उसका हिंदु धर्म के स्वास्तिक से कोई सम्बन्ध है क्या?

किताब ऐसे ही न जाने कितने सवाल खड़ा करती है. जवाब भी देने की कोशिश करती है. लेकिन किताब का सबसे बड़ा आकर्षण है उसमें वर्णित फिक्शन. जबरदस्त तरीके का 'पाट-बायलर' है. एक पाठक के तौर मुझे तो यही समझ में आया. मैंने किताब की समीक्षा नहीं की है. मेरा लिटरेरी सेन्स वैसा नहीं है कि मैं इतनी बड़ी किताब की समीक्षा कर सकूँ. हाँ, एक पाठक की हैसियत से मुझे जो समझ में आया वह मैंने लिखा. समीक्षा का काम प्रोफेशनल क्रिटिक करते हैं.

कोई ज़रूरी नहीं कि मैं किताब के बारे में कुछ लिखूँ ही लेकिन पढ़कर मुझे इतनी प्रसन्नता हुई कि मैंने सोचा कि इसपर एक पोस्ट लिखी जाय. हाँ, यह बात मन में अवश्य आई कि तथाकथित हिंदी-पट्टी में विद्वान् तो बहुत बड़े-बड़े हैं जो इतिहास, भूगोल और यहाँ तक कि भाषा के बारे में हज़ार पृष्ठ रंग देते हैं लेकिन क्या आधुनिक दुनियाँ के बारे में इस तरह की किताब लिख सकते हैं?

अश्विन सांघी ने पहली बार यह किताब सन २००७ में शान हैगिंस के नाम से लिखी थी और एक अमेरिकी पब्लिशर ने पब्लिश की थी. बाद में वेस्टलैंड-टाटा ने २००८ में किताब को अश्विन संघी के नाम से पब्लिश की.अश्विन उद्योगपति हैं और येल यूनिवर्सिटी में पढ़े हैं. अश्विन सांघी और किताब के बारे में आप उनके ब्लॉग पर जाकर पढ़ सकते हैं.

Saturday, August 14, 2010

दुर्योधन की डायरी - पेज ११८८




बड़ा हंगामा मचा हुआ है. रोज टीवी चैनल पर कामनवेल्थ गेम्स के आयोजन के बारे में नए-नए खुलासे हो रहे हैं. कहीं स्टेडियम की छत टूट जा रही है तो कहीं स्टेडियम में बाथरूम नहीं है. कहीं टायलेट पेपर ४००० रूपये प्रति रोल के हिसाब से खरीदा गया है तो कहीं ट्रेडमिल का किराया ९ लाख रूपये है. कहीं कुर्सी का किराया ८००० रूपये है तो कहीं थाली का किराया साढ़े तीन हज़ार. भ्रष्टाचार का मुद्दा अलग और समय पर तैयारी न हो पाने की आशंका का मुद्दा अलग. सब अपनी-अपनी औकात के हिसाब से आरोप लगा रहे हैं. लोग अपनी-अपनी औकात के हिसाब से उसी आरोप का खंडन कर डाल रहे हैं.

अब मुझे समझ में नहीं आता कि इतनी हाय-तौबा क्यों? क्या यह आज से हो रहा है? युवराज दुर्योधन की डायरी के पेज ९०३ के हवाले से मैंने बताया था कि भारतीय ओलिम्पिक संघ के अध्यक्ष्य पद पर हमारे कलमाडी साहब का अप्वाइंटमेंट युवराज के पिताश्री यानि महाराज धृतराष्ट्र ने किया था. कलमाडी साहब द्वापर युग में भी अपने कारनामे दिखा चुके हैं. उन्होंने तब जो संस्कृति शुरू की थी वह आज तक चल रही है. उस संस्कृति की रक्षा के लिए वे जी-जान लगा देते हैं.

कलियुग में हम उनके कारनामों से रु-बरू तो होते ही रहते हैं आज मैं आपको बताता हूँ कि इन्होने द्वापर युग में क्या-क्या गुल खिलाये थे. क्या कहा आपने? आपको यकीन नहीं हो रहा है? मुझे मालूम था कि मेरी बात का यकीन नहीं होगा आपको. इसीलिए मैं दुर्योधन की डायरी का पेज ११८८ टाइप करके पब्लिश कर रहा हूँ. आपको ब्लॉगर पर विश्वास नहीं हो कोई बात नहीं लेकिन युवराज पर तो विश्वास करेंगे न? करेंगे क्यों नहीं? युवराज के ऊपर पूरा देश विश्वास करने के लिए तैयार है:-)
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वही चिक-चिक, वही आरोप-प्रत्यारोप. वही भ्रष्टाचार के खुलासे. पता नहीं वह दिन कब आएगा जब राज-काज बिना भ्रष्टाचार के आरोपों के चलेगा? मैं कहता हूँ भ्रष्टाचार करो लेकिन ऐसा करो कि कोई आरोप न लगा पाए. ज़रुरत हो तो दो-चार विद्यालय खोलवा दूँ. यह शिक्षा देने के लिए कि भ्रष्टाचार करके उसकी चर्चा कैसे रोकी जाय?

अब क्या कहूँ इस कलमाडी को? पिताश्री और मामाश्री ने इसे कुल तेरह एक्टेंशन दिए परन्तु यह आजतक कोई काम ठीक से नहीं कर सका. गुरु द्रोण, चचा विदुर और पितामह तो इसे फिर से भारतीय ओलिम्पिक संघ का अध्यक्ष बनाने के खिलाफ थे ही, अब तो अश्वथामा तक इसके खिलाफ हो गया है. और हो भी क्यों न? बेचारा सात वर्षों से तीरंदाजी संघ का अध्यक्ष है. अब इतने समय तक एक खेल संघ के अध्यक्ष होने के नाते उसका भी तो कुछ हक़ बनता है. उसे भी तो मौका मिलना चाहिए था ओलिम्पिक संघ की अध्यक्षता का.

मामाश्री कुछ समझते ही नहीं और न ही पिताश्री. माडर्न पोलिटिकल बिहैवियर की समझ कब आएगी इन्हें?

पाँच वर्ष पहले कलमाडी की अध्यक्षता में बनी कमिटी ने हस्तिनापुर में राज्य-कुल खेल करवाने का ठेका लिया था. अब जाकर पता चल रहा है कि उसने राज्य-कुल खेलों को हस्तिनापुर लाने के लिए काशी, कैकेय, मगध और मत्स्य राज्यों के प्रतिनिधियों को घूस में स्वर्ण मुद्राएं बाटीं. मुझे याद है, जब चार वर्ष पहले दुशासन ने इससे खर्च का हिसाब माँगा तो इसने उल्टा-पुल्टा खर्च बताया था. ये तो अगर गुडगाँव टाइम्स के स्पेशल करेस्पांडेंट की स्टोरी न आती तो इसके बारे में भी पता नहीं चलता. ऊपर से इतना इन-एफिसियेंट है कि कुछ कर भी नहीं सका. मैं कहता हूँ किसी अखबार वाले के हाथ अगर कोई खबर लग ही गई तो खिला-पिला कर उसे सेट कर लेना चाहिए. पता नहीं कब सीखेगा ये? अगर ये ऐसा ही रहा तो अगले वर्ष अश्वथामा को ओलिम्पिक संघ का अध्यक्ष बनाना पड़ेगा.

और फिर खेल ले आये तो समय पर तैयारी तो करनी चाहिए थी. मुझे क्या मालूम नहीं है कि उल्टा-पुल्टा खर्च दिखाता है? मुझे सब पता है. मैं कहता हूँ भ्रष्टाचार करो, पैसा मारो, सब कुछ करो लेकिन समय पर तैयारी तो करो. केवल भ्रष्टाचार के आरोप हो तो राजमहल झेल भी ले लेकिन निकम्मेपन के आरोप को कैसे संभालें? पिछले एक वर्ष से हर महीने वादा करता आ रहा है कि अगले महीने तक तैयारी पूरी हो जायेगी अब केवल पंद्रह दिन रह गए हैं तो पता चल रहा है कि स्टेडियम नहीं बने. प्रतियोगियों के रहने की व्यवस्था नहीं हुई है. कहीं स्टेडियम बने भी हैं तो आधे-अधूरे.

रोज इसकी बर्खास्तगी की मांग उठती है. कभी जनता के प्रतिनिधियों से तो कभी अखबारों के संपादकों से. अब तो मुझे ये बड़ा बेचारा लगने लगा है. फंस गया है. वैसे भी ठीक है कि अखबार वाले और हस्तिनापुर वासी कलमाडी के पीछे पड़े हैं. इनलोगों की निगाह कलमाडी से हटकर और लोगों के ऊपर नहीं जाए, वही राजमहल और हमारे लिए ठीक है. आखिर जनता को क्या पता कि असली भ्रष्टाचार किसने किया है? सबसे ज्यादा पैसा किसने कमाया? एक-दो पत्रकार जनता का ध्यान कलमाडी के ऊपर से हटाने के लिए काम कर रहे थे. वो तो मैंने उन्हें साध लिया नहीं तो झमेला हो जाता.

दुशासन और जयद्रथ को क्या पता कि उनके चलते मुझे कितनी असुविधा होती है. ये तो अपना दुष्कर्म करके निकल जाते है बीयर पीने. असली झमेला तो मुझे ठीक करना पड़ता है न.पत्रकारों से लेकर बाकी लोगों को तो मुझे साधना पड़ता है. दुशासन को ही ले लो. जिस दूकान पर पान खाता है और जिसको इसने भरत श्री पुरस्कार दिलवा दिया था उसी पनवाड़ी को इसने राज्य-कुल खेलों में आनेवालों प्रतियोगियों के लिए भोजन सप्लाई करने का ठेका दिलवा दिया. मैं कहता हूँ सब ठीक है. आखिर कौन नहीं अपने चमचों के लिए कुछ करता है, लेकिन इस तरह से? एक खिलाड़ी के एक दिन के भोजन का खर्च आठ हज़ार स्वर्ण मुद्राएं? एक पान का खर्च एक हज़ार इक्यावन स्वर्ण मुद्राएं? ऐसा कहीं कोई करता है क्या? अरे खिलाड़ी सामान्य भोजन करेंगे या सोना खायेंगे? ये पनवाड़ी पान में बाकी के मसालों के साथ संजीवनी बूटी डालेगा क्या?

किसी कांट्रेक्ट से प्रोफिट मार्जिन की कोई लिमिट होती है कि नहीं?

जो नर्तकी अपने नृत्य से दुशासन का मनोरंजन करती है उसी को उसने राज्य-कुल खेलों के उद्घाटन समारोह में नृत्य के लिए बीस करोड़ स्वर्ण मुद्राएं देने के लिए हामी भर दी है. मैं पूछता हूँ यह ठीक है क्या? अगर किसी अखबार वाले को यह बात पता चल गई तो क्या होगा? मुझे उसको खिला-पिला कर चुप करना पड़ेगा. दुशासन और जयद्रथ का यह हाल है और उधर विकर्ण इन सब से आगे निकल गया है. खेलों के उपकरण वगैरह की खरीद का ठेका अपने मित्र मंडली को दे दिया है. कल कलमाडी खुद बता रहा था कि विकर्ण के ही कहने पर उसके मित्र ने प्रति धनुष आठ हज़ार स्वर्ण मुद्राएं चार्ज किया है. एक बाण की कीमत सोलह सौ स्वर्ण मुद्राएं हैं. एक लोहार जिसका पूरे वर्ष का टर्नओवर मुश्किल से तीन हज़ार स्वर्ण मुद्राएं हैं उसी को इनलोगों ने केवल भाला और तलवार की सप्लाई के लिए तीन करोड़ का ठेका दे दिया है.

चचा विदुर शिकायत कर रहे थे कि विकर्ण ने बैठने के लिए कुर्सी का ठेका एक ट्रेडर को इसलिए दिया है कि उसकी पुत्री के साथ उसका चक्कर चल रहा है. क्या कर रहे हैं ये लोग? मेरे भाई और जमाई की बात तो जाने दो, मेरी बहन भी कुछ कम नहीं है. अपनी सहेलियों को और उनके रिश्तेदारों को खुद उसने करीब आठ सौ करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का कांट्रेक्ट दिया है. मैंने पूछ लिया तो बोली कि मुझे चिंता करने की ज़रुरत नहीं है, चालीस परसेंट तो वापस आ ही जाएगा.

एक बात माननी पड़ेगी. दुशाला भी अब राजमहल के लगभग सारे हथकंडे सीख चुकी है. मैं तो उसकी इफिसिएंसी देखकर बहुत खुश हूँ. कम से कम दुशासन और जयद्रथ से एफिसियेंट है जो खेल की तैयारियों का खुद जायजा लेने की एक्टिंग करती रहती है. पत्रकारों के साथ घूमती है और कुछ नहीं तो कम से उन्हें हर दूसरे दिन वादा तो कर डालती है कि बस अब तैयारी हो ही जायेगी. ये दुशासन और जयद्रथ तो केवल बीयर-पान करने, नृत्य देखने और पान खाने में अपना समय गुजारते हैं.

जो कुछ भी हो, अब कलमाडी को हटाने का दबाव बढ़ता जा रहा है. कल मामाश्री से कहा तो बोले कि; "तुम चिंता बहुत करते हो भांजे. सबकुछ मैनेज हो जाएगा. कलमाडी भी रहेगा और खेल भी होंगे."

आज मुझे समझ में आया कि उन्होंने कल क्यों कहा ऐसा? आज सुबह आये तो मदिरा पान करते हुए बोले; "चिंता की बात नहीं है प्रिय भांजे दुर्योधन. आज ही एक प्रेस कांफेरेंस कर डालो और हस्तिनापुर वासियों को बता दो कि राजमहल जल्द ही पितामह की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यों वाली जाँच समिति अप्वाइंट करेगा जिसमें कृपाचार्य और गुरु द्रोण भी होंगे."

आगे बोले; "प्रेस कांफेरेंस करने से पहले दस-बीस पत्रकारों की एक प्राइवेट मीटिंग बुलाओ और उन्हें कुछ ईनाम वगैरह देकर यह बात फैला दो कि पितामह और कृपाचार्य जैसे ईमानदार लोग जांच करेंगे तो सबकुछ निकल कर बाहर आएगा ही आएगा."

खैर, कल सुबह ही पत्रकारों की एक प्राइवेट मीटिंग बुलाता हूँ. और शाम को प्रेस कांफेरेंस करता हूँ. मामाश्री आजतक तो फेल नहीं हुए तो इस बार भी फेल नहीं होंगे. मुझे पूरा विश्वास है कि जांच समिति और हर स्तर पर की जानेवाली बेशर्मी हमें इस मुश्किल से भी निकाल देगी.

Thursday, August 12, 2010

ओलिम्पिक और एथेलेटिक अमरत्व




सुरेश कलमाडी को हम सब जानते हैं. न जाने कितने वर्षों से वे भारतीय एथेलेटिक्स और भारतीय ओलंपिक संघ की गाड़ी हांक रहे हैं. भारत में एथेलेटिक्स और ओलंपिक की बात होती है तो एक ही चेहरा आँख के सामने घूम जाता है और वो है सुरेश कलमाडी जी का. ठीक वैसे ही जैसे पहले भारतीय क्रिकेट की बात होने पर एक ही चेहरा आँख के सामने घूमता था और वो था जगमोहन डालमिया जी का. अब उस चेहरे को ललित मोदी के चेहरे ने रिप्लेस कर दिया है.

वैसे भारतीय क्रिकेट की बात होने पर बीच-बीच में सचिन तेंदुलकर का चेहरा भी आँख के सामने घूम जाता है. लेकिन एथेलेटिक और ओलंपिक की बात पर किसी पी टी ऊषा या फिर किसी मिल्खा सिंह का चेहरा आँख के आगे नहीं घूमता. मुझे तो लगता है कि कभी-कभी खुद मिल्खा सिंह भी मन में सोचते हुए लाउडली बात करते होंगे कि; "जब से होश संभाला, कलमाडी को सामने पाया."

कलमाडी साहब हैं कि उन्हें देखकर लगता है जैसे वे ओलंपिक और एथेलेटिक्स अमरत्व को प्राप्त कर गए हैं.

अब आपको एक राज की बात बताता हूँ. कल मेरी नज़र अचानक युवराज दुर्योधन की डायरी के पेज ९०३ पर पड़ गई. लिखा था;

"आज गुरु द्रोणाचार्य, पितामह और चचा विदुर के विरोध के बावजूद मामाश्री और पिताश्री ने सुरेश कलमाडी को एक बार फिर से भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया. सुरेश कलमाडी पिछले दस सालों से इस पद पर जमे हुए हैं. भारतीय ओलंपिक संघ की स्थापना दस साल पहले ऋषि भृगु के कहने पर हुई जिन्होंने एक दिन अपने कमंडल के पानी में भविष्य दर्शन करके बताया था ग्रीस में करीब तीन हज़ार साल बाद ओलंपिक के खेल शुरू होंगे इसलिए खेल-कूद में महान महाराज भरत के योगदान को याद रखते हुए भारतीय ओलंपिक संघ की स्थापना अभी कर देनी चाहिए."

युवराज दुर्योधन की डायरी का पेज ९०३ के अंश पढ़कर मुझे अचानक एक घटना याद आ गई. पिछले साल कोलकाता के इंडियन म्यूजियम से एक विदेशी एजेंट कुछ न्यूजपेपर कटिंग्स के साथ गिरफ्तार हुआ था. पूछताछ से पता चला था कि न्यूजपेपर कटिंग्स की चोरी करके वह क्रिष्टीज के एक ऑक्शन में बेचने का प्लान बनाकर आया था.

आप पढ़ना चाहेंगे कि ये न्यूजपेपर कटिंग्स में क्या लिखा हुआ था? तो पढिये.

लेकिन मुझसे यह मत पूछिए कि ये कटिंग्स मुझे कहाँ से मिलीं? मैंने (ब्लॉगर)पद और गोपनीयता की कसम खाई है इसलिए मैं नहीं बताऊंगा. आप अलग-अलग तारीख की न्यूजपेपर कटिंग्स पढ़िये.

काशी, ईसा पूर्व तारीख २० अक्टूबर, २३९

हमारे खेल संवाददाता द्बारा

आज सारनाथ में एक रंगारंग कार्यक्रम में सम्राट अशोक ने एक बार फिर सुरेश कलमाडी को भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया. ज्ञात हो कि सुरेश कलमाडी को पहली बार महाराज धृतराष्ट्र ने भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बनाया था. सुरेश कलमाडी तब से इस पद पर जमे हुए हैं. अपनी नियुक्ति पर प्रसन्न होते हुए श्री कलमाडी ने सम्राट अशोक को धन्यवाद दिया और एक बार फिर से विश्वास दिलाया कि वे पहले भी राष्ट्र के लिए समर्पित थे और आगे भी समर्पित रहेंगे..........

दिल्ली, तारीख ७ अक्टूबर, १२०८

आज बादशाह कुतुबुद्दीन ऐबक ने एक बार फिर से सुरेश कलमाडी को भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया. बसद रसूल ने श्री कलमाडी के एक बार फिर अध्यक्ष बनाने पर अपना विरोध यह कहते हुए दर्ज करवाया कि श्री कलमाडी पिछले चार हज़ार से ज्यादा सालों से इस पद पर जमे हुए हैं. उनके इस विरोध को बादशाह ने ज्यादा तवज्जो नहीं दिया. बादशाह का मानना है कि श्री कलमाडी जैसा प्रशासक इतना काबिल है कि वह दस हज़ार सालों तक इस पद पर बने रहने लायक है..................

दिल्ली ९ सितम्बर, १६०४

आज बादशाह अकबर द्बारा आयोजित एक कार्यक्रम में श्री सुरेश कलमाडी को एक बार फिर से भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष चुन लिया गया. इस मौके पर राजा बीरबल ने कुल इक्कीस चुटकुले सुनाये. अबुदुर्रहीम खानखाना ने अपने ताजे दोहे पेश किये जिनमें श्री कलमाडी के भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के रूप में दिए गए उनके योगदान की सराहना की गई है. श्री कलमाडी ने भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के रूप में अपनी प्रतिबद्धता को एक बार फिर से दोहराया......................

ज्ञात हो कि ऐसा वे लगभग पैंतालीस सौ सालों से करते आ रहे हैं.

दिल्ली १६ सितम्बर, १८४६

आज दरबार में आयोजित एक समारोह में जहाँपनाह बहादुर शाह ज़फर ने सुरेश कलमाडी को एक बार फिर से भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया. श्री कलमाडी ने जहाँपनाह को धन्यवाद देते हुए आभार प्रकट किया. इस मौके पर जनाब मिर्जा असदुल्लाह बेग खान 'गालिब' ने जनाब कलमाडी की शान में एक शेर भी कहा. शेर कुछ यूं था;

तुम जियो हजारों साल
साल के दिन हों पचास हज़ार

श्री कलमाडी ने मिर्जा गालिब को धन्यवाद देते हुए भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के रूप में किये गए आपने कार्यों का लेखा-जोखा पेश किया. लेखा-जोखा देखने के बाद एक बार फिर से साबित हो गया कि इस पद के लिए उनसे काबिल और कोई न तो पहले था और न ही होगा....

दिल्ली, १३ जून, १९४७

आज लार्ड माउंटबेटन ने अंतिम नियुक्ति करते हुए श्री सुरेश कलमाडी को भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया. श्री कलमाडी अपनी इस नियुक्ति पर बहुत खुश हुए. कुछ खेल पत्रकारों के बीच ऐसी अफवाह है कि क्वीन विक्टोरिया ने १८९० में ही ब्रिटिश गवर्नर को यह आदेश दिया था कि भारत को स्वतंत्र करने से पहले वे भावी भारतीय शासकों से यह वचन ले लें कि श्री कलमाडी को कभी भी उनके पद से हटाया नहीं जाएगा. सुनने में आया है कि प्रधानमंत्री श्री नेहरु यह बात मान गए हैं.

और अब आज की न्यूजपेपर रिपोर्ट..

नई दिल्ली, तारीख २० अक्टूबर, २००९

राष्ट्रमंडल खेल महासंघ (सीजीएफ) और आयोजन समिति के बीच राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों को लेकर चरम पर पहुंच गए गतिरोध को तोड़ने की कोशिशों में लगे खेलमंत्री एमएस गिल ने आयोजन समिति के प्रमुख सुरेश कलमाडी से मंगलवार को मुलाकात करके विवादास्पद मुद्दों पर लंबी बातचीत की।

कलमाडी मंगलवार की सुबह गिल के घर पहुंचे और उन्हें इन खेलों की तैयारियों की मौजूदा स्थिति तथा सीजीएफ और आयोजन समिति के बीच उठे विवाद के बारे में जानकारी दी। गिल ने कलमाडी से मुलाकात के बाद कहा ‘मेरी आज उनसे मुलाकात हुई और हम दोनों ने सभी मुद्दों पर विस्तापूर्वक बातचीत की। मैं जल्दी ही सीजीएफ के अध्यक्ष माइक फेनेल से............


नोट: यह एक पुरानी पोस्ट है जो पिछले साल अक्टूबर में लिखी गई है. आज एक बार फिर से इसलिए पब्लिश किया है क्योंकि इसे मेरी अगली पोस्ट के 'कर्टेन रेजर' के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है:-)

Friday, August 6, 2010

हलवा-प्रेमी राजा




उसने कभी राजा के ऊपर एहसान कर दिया होगा. ये राजे-महाराजे होते ही ऐसे हैं कि उनके ऊपर लोग खेल-खेल में भी एहसान कर डालते हैं. हमारा इतिहास राजाओं की बेचारगी के किस्सों से पटा पड़ा है. औरों की जाने दीजिये, सूर्यवंशी दशरथ जी भी कभी इतनी बेचारगी के दौर से गुजरे कि कैकेयी जी जैसों के एहसान तले दबे. नतीजा हम सभी जानते हैं. मजे की बात ये कि कभी-कभी ये राजा जी लोग कैश वगैरह पेमेंट करके मामला वहीँ पर, माने ऑन द स्पाट नहीं सल्टाते थे. बेचारे कैरीड-अवे होकर वादा कर डालते थे; "हम तुम्हें एक वचन देते हैं. अभी तो अपनी तिजोरी में रख लो. जब इच्छा हो, भंजा लेना."

दशरथ जी से प्रभावित इस राजा ने भी इस आदमी को वचन की हुंडी थमा दिया था. एक दिन इस आदमी ने अपनी तिजोरी में रखे राजा के वचन को निकाला. उसे धोया-पोंछा और उसे लेकर राजा जी के पास पहुँचा. बोला; "वो आपने मुझे जो वचन दिया था, आज मैं उसे इन-कैश करवाने आया हूँ."

राजा जी के पास कोई चारा नहीं था. एक बार तो उन्होंने सोचा कि वचन की इस हुंडी को एक कटु-वचन कहकर बाऊंस करवा दें. लेकिन इस बात की चिंता थी कि अगर ऐसा हुआ तो ये आदमी उन्हें बदनाम कर सकता था. हल्ला मच देता कि राजा जी के वचन की हुंडी तो बाऊंस हो गयी. एक प्रेस कांफ्रेंस ही तो करना था. राजा की इज्जत धूल में मिल जाती. टीवी न्यूज चैनल वाले चटखारे लेकर राजा की ऐसी-तैसी करने में देर नहीं लगाते.

इन्ही सब बातों को ध्यान में रखकर राजा जी बोले; "अच्छा मांगो. क्या चाहिए तुम्हें?"

वो बोला; "मैं कुछ दिनों के लिए राजा बनना चाहता हूँ. देखना चाहता हूँ कि राजा बनकर कैसा लगता है? राजा लोग कैसे-कैसे मजे लेते हैं?"

राजा जी बोले; "ठीक है. तुम बन जाओ राजा."

यह कहते हुए राजा जी ने पूरा इंतजाम करके उसे सिंहासन पर बैठा दिया. सिंहासन मिलते ही उसने कंधे पर लटक रही अपनी झोली को महामंत्री के हवाले कर दिया. महामंत्री को हिदायत दी कि उसकी झोली को बहुत संभालकर रखा जाय. आख़िर अब वो एक राजा की झोली थी. बड़ी कीमती.

सिंहासन पर पसरते ही इसने मज़ा लूटना शुरू कर दिया. दरबारियों को बुलावा भेजा. जब सारे दरबारी हाज़िर हुए तो उसने आदेश दिया; "सबके लिए सोने की कटोरी में हलवा पेश किया जाय."

हंसी-मज़ाक करते सबने हलवा खाया. दरबारियों को भी खूब मज़ा मिल रहा था. राजा और उसके दरबारियों की शाम हलवामयी होने लगी.

सुबह-शाम हलवे में डूबा ये राजा मस्त था. एक दिन मंत्री ने आकर कहा; "महाराज, पड़ोस के राजा ने हमारे राज्य पर चढ़ाई कर दी है."

राजाओं को भी कोई काम-धंधा तो था नहीं. शिकार करने से बोर हुए तो पड़ोस के राज्य पर चढ़ाई कर दो.

मंत्री की बात सुनकर राजा बोला; "चढ़ाई कर दी? अच्छा कोई बात नहीं. दरबारियों को बुलाओ."

सारे दरबारी आ पहुंचे. सबके आने के बाद राजा ने फ़िर वही फरमाइस की; "सबके लिए हलवा ले आओ."

प्रेम से हलवा भक्षण किया गया. हलवा खाकर सारे दरबारी खुश. दरबार खारिज.

दूसरे दिन मंत्री फिर दौड़ते हुए आया. बोला; "महाराज पड़ोस के राज्य का राजा तो हमारे नगर में प्रवेश कर चुका है."

राजा ने कहा; "अच्छा! हमारे नगर में प्रवेश कर चुका है? कोई बात नहीं. दरबारियों को बुलाओ."

फिर दरबारियों को बुलाया. फिर वही हलवे की फरमाइस. फिर वही हलवा भक्षण कार्यक्रम और फिर से दरबार खारिज. ऐसे ही एक दिन और बीता.

तीसरे दिन मंत्री फिर दौड़ता हुआ आया. बोला; "महाराज, पड़ोस का राजा तो आपके महल में प्रवेश कर चुका है."

मंत्री की बात सुनकर उसने बिना किसी चिंता के कहा; "महल में प्रवेश कर चुका है? अच्छा, एक काम करो. मेरी झोली ले आओ. वही झोली जो मैंने तुम्हें रखने के लिए दी थी."

झोली को हाज़िर किया गया. उसने अपनी झोली कंधे पर टांगी और वहां से चलने लगा. मंत्री ने कहा; "महाराज कहाँ जा रहे हैं? इस समय सिंहासन छोड़कर जाना उचित नहीं. "

वो बोला; "भइया, मैं तो हलवा खाने आया था. मैंने पेट भरकर अपनी साध पूरी कर ली. अब तुम जानो और तुम्हारे राजा. मैं तो चला."

ये कहते हुए वो आदमी निकल लिया.

इस हलवा-प्रेमी राजा का 'लेटेस्ट एडिशन' इस समय.....

Wednesday, August 4, 2010

वर्ष के सर्वश्रेष्ठ सम्मान वितरक - हलकान 'विद्रोही' .




सुबह-सुबह उनके दर्शन हो गए तो सवा सौ ग्राम शुद्ध तुकबंदी वाला वह गाना याद आ गया कि; 'राह में उनसे मुलाकात हो गई, जिससे डरते थे वही बात हो गई....ल ला ला ला ल ला ला ला ला..'
'

जी हाँ, आज सुबह-सुबह हलकान भाई से मुलाकात हो गई. इधर-उधर की बातें हुईं. उन्होंने बिभूति नारायण राय के बयान की निंदा की. उसके बाद मंहगाई पर चिंतित हुए. बात आगे बड़ी तो सुरेश कलमाडी की आलोचना करते हुए इस बात पर चिंता व्यक्त की कि सरकार हम नागरिकों का पैसा पानी की तरह बहा रही है. पैसे के पानी की तरह बहने की बात शुरू हुई तो याद आया कि मानसून की कमी और बाढ़ पर भी बात कर सकते हैं. फिर उसपर भी बात हुई. उसके बाद उन्होंने सरकार की नीतियों पर क्षोभ प्रकट करते हुए आशंका जताई कि आनेवाला समय मिडिल क्लास और लोवर मिडिल क्लास के लिए बहुत कष्टदायक होगा.

बात करते-करते जब मुझे यह लगने लगा कि अब लगभग सभी मुद्दे ख़त्म हो चुके हैं तभी उन्होंने अपनी वसीयत की बात शुरू कर दी. उन्होंने अपने ब्लॉग पर उनकी वसीयत टाइप करने के लिए मुझे धन्यवाद् जैसा कुछ देते हुए कहा; "दूसरे के लिए इतना कुछ करने का जज्बा मैंने बहुत कम ब्लॉगर में देखा है. मेरी वसीयत अपने ब्लॉग पर पब्लिश करने के लिए मैं पोस्ट लिख कर तुम्हें सम्मानित करना चाहता हूँ."

बस उनकी बात सुनकर मैं डर गया. मुझे लगा कि; 'जिस बात से हमेशा डरते रहे, कहीं ऐसा न हो वह हो ही जाए. ऐसा न हो कि हलकान भाई सचमुच मुझे सम्मानित कर दें. वैसे भी मुझे हमेशा डर लगा रहता है कि ब्लॉग पुरस्कार देने वाले किसी दिन पकड़कर सम्मानित कर देंगे तब क्या करूँगा? देखेंगे न लेते बनेगा और न ही ना करते.'

खैर, मैंने उनसे कहा; "हलकान भाई, जाने दीजिये न. क्या सम्मानित करना है? आपने उस पोस्ट पर कमेन्ट कर दिया, यही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है."

वे बोले; "केवल कमेन्ट से ब्लॉगर का सम्मान पूरा नहीं होता. ब्लॉगर का असली सम्मान तब होता है जब उसके योगदान के लिए उसे पोस्ट लिखकर सम्मानित किया जाय."

मैंने कहा; "जाने दीजिये न हलकान भाई. मैंने आपकी वसीयत ही तो अपने ब्लॉग पर छापी थी. वह तो मुझे वैसे भी छापना ही था."

वे बोले; "अरे ऐसे कैसे जाने दें? नहीं जाने दूंगा.मैं तुम्हें सम्मानित करके रहूँगा."

फिर कुछ सोचने के बाद बोले; "लेकिन कौन सी कैटेगरी में सम्मानित करूं तुम्हें?"

मैंने कहा; "मैं समझा नहीं."

मेरी बात सुनने के बाद सोचते रहे. अचानक बुदबुदाए; "अच्छा, वर्ष का सर्वश्रेष्ठ टंकक सम्मान कैसा रहेगा?"

मैंने कहा; "टंकक? टंकक का मतलब क्या होता है, हलकान भाई? मैं समझा नहीं?"

वे बोले; "अरे टंकक का मतलब टंकण करने वाला. मतलब टाइप करने वाला. तुमने मेरी वसीयत अपने ब्लॉग पर जो छापी उसके लिए तुमने टाइप तो किया ही न."

कुछ समझ में नहीं आ रहा था. मैं सोचने लगा कि सम्मान मिलेगा और वो भी टंकक का! बड़ी दुविधा में फँसा था. क्या कहूँ हलकान भाई से? उन्हें सीधा-सीधा मना कर दूँ?

बीमारी-उपरान्त पटखनी-पांड़े सम्मानग्रस्त ब्लॉगर
मेरी 'सोचनीय' अवस्था को शायद वे भांप गए. मुझसे बोले; "अरे चिंता मत करो. मैं अपने ब्लॉग पर ज्ञान जी को भी सम्मानित करने वाला हूँ. साथ-साथ तुम्हें भी कर दूंगा. लोग यह तो नहीं कहेंगे कि केवल एक को सम्मानित किया और दूसरे को नहीं किया."

उनकी बात सुनकर मन में आया कि; 'मतलब मेरे साथ ज्ञान भइया भी गए?'

वैसे मुझे बड़ा अजीब लग रहा था. अजीब कैटेगरी है; वर्ष का सर्वश्रेष्ठ टंकक. फिर मन में उत्सुकता जागी कि हलकान भाई से पूछें कि वे भइया को कौन सी कैटेगरी में सम्मानित कर रहे हैं? मैंने उनसे पूछा; "वैसे हलकान भाई, आप ज्ञान भइया को कौन सी कैटेगरी में सम्मानित कर रहे हैं?"

वे बोले; " अभी तक तय नहीं हुआ है. असल में कैटेगरी तय करने वाली हमारी समिति में ज्ञान जी के सम्मान की कैटेगरी को लेकर मतभेद हो गया है. लेकिन चिंता करने की बात नहीं है. हम जल्द ही इस मतभेद को सुलझा लेंगे."

मैंने कहा; "मतलब अभी तक तय नहीं हुआ है? वैसे क्या-क्या कैटेगरी हो सकती है उनके लिए?"

वे बोले; "देखो तीन कैटेगरी में मामला उलझा हुआ है. हमारी समिति के दो मेंबर चाहते हैं कि ज्ञान जी को वर्ष का सर्वश्रेष्ट मार्निंग ब्लॉगर सम्मान दिया जाय. दो मेंबर चाहते हैं कि उन्हें वर्ष का सर्वश्रेष्ठ गंगा प्रचारक ब्लॉगर सम्मान दिया जाय. वही समिति के एक मेंबर इस बात पर टिके हुए हैं कि ज्ञान जी को वर्ष का सर्वश्रेष्ठ संचारक ब्लॉगर सम्मान दिया जाय."

मैंने कहा; "संचारक? यह कौन सी कैटेगरी हुई?"

वे बोले; "संचारक ब्लॉगर का मतलब तो मुझे भी नहीं मालूम है लेकिन अगर हमारी समिति के मेंबर ने ऐसी कोई कैटेगरी बनाई है तो उसका कुछ न कुछ मतलब ज़रूर होगा."

मैंने कहा; "तो आपने बाकायदा समिति बना रखी है जो कैटेगरी का आविष्कार करती है? जिससे ब्लॉगर भाइयों और बहनों को पकड़ कर सम्मानित किया जा सके?"

वे बोले; "अरे इतना बड़ा महोत्सव है. बिना तैयारी के कैसे शुरू कर देता? बाकायदा समिति है. फाइव मेंबर कमीटी . मेजोरिटी का डिसीजन फाइनल होता है. हाँ, कभी-कभी किसी कैटेगरी पर झमेला हो जाता है जैसे ज्ञान जी वाली कैटेगरी पर. ऐसी परिस्थिति में मेरा निर्णय फाइनल और मान्य होता है."

मैंने कहा; "तो हलकान भाई, इसका मतलब आप और भी लोगों को सम्मानित करेंगे? वैसे और कौन-कौन सी कैटेगरी है?"

वे बोले; "बहुत लम्बी लिस्ट है कैटेगरी की. सुनाना शुरू करूँगा तो पूरा एक दिन लगेगा. अभी तक सत्तर कैटेगरी का अनाऊँसमेंट हो चुका है. लेकिन अभी भी करीब एक सौ पैसठ कैटेगरी बाकी हैं. कुछ प्रमुख कैटेगरी हैं जैसे सर्वश्रेष्ठ आंचलिक जूनियर ब्लॉगर, सर्वश्रेष्ठ आंचलिक सीनियर ब्लॉगर, सर्वश्रेष्ठ आंचलिक प्रचारक, सर्वश्रेष्ठ आंचलिक प्रताड़क, सर्वश्रेष्ठ कानूनी ब्लॉगर, सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मी ब्लॉगर, सर्वश्रेष्ठ भोजपुरी फ़िल्मी ब्लॉगर, सर्वश्रेष्ठ......"

मैंने कहा; "बस-बस...हलकान भाई मैं समझ गया. आप महान काम कर रहे हैं."

वे बोले; "ब्लागिंग का मतलब केवल पोस्ट और टिप्पणी लिखना नहीं होता है. ब्लागिंग का मतलब सम्मान भी होता है. ब्लागिंग का मतलब अपमान भी होता है. ब्लागिंग का मतलब गुमनाम भी होता है. ब्लागिंग का मतलब...."

मैंने कहा; "समझ गया हलकान भाई. पूरी तरह से समझ गया."

वे बोले; "तो तुम्हारा वर्ष के सर्वश्रेष्ठ टंकक के रूप में सम्मान पक्का..."

पुरस्कार प्रदाता वितरक माननीय हलकान विद्रोही

क्या कहता? कुछ नहीं बोला. हाँ यह सोचते हुए उनसे विदा हुआ कि जब तक पोस्ट लिख रहा हूँ तबतक ठीक है, जिस दिन पोस्ट नहीं लिख पाऊँगा उसी दिन से सम्मान देने का धंधा शुरू करूँगा और सबसे पहले हलकान भाई को वर्ष के सर्वश्रेष्ठ सम्मान वितरक के ख़िताब से सम्मानित करूँगा.