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Wednesday, June 30, 2010

डायलाग इज द ओनली वे फॉरवर्ड - पार्ट २




अगर यह पार्ट -२ है तो जाहिर सी बात है कि पार्ट -१ भी होगा ही. तो पार्ट -१ को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये.


अब आगे का हाल....


एक नेता जी से पत्रकार ने सवाल किया कि; "कट-मोशन में तो आप सरकार के साथ थे. आज उसके विरुद्ध क्यों हैं?"

उन्होंने जवाब दिया; "ढेर दिन हो गया था जे हम सरकार का विरोध नहीं किये थे. पब्लिक सब सोच रहा था कि कहीं हम सरकार के साथ त नहीं हो गए? दू महीना हो गया था आ हमलोग को विरोध करने का कोई मुद्दा नहीं मिल रहा था एही बास्ते हम विदेश नीति का बात पर सरकार के विरोध में चले गए."

उसके बाद पत्रकारों का सवाल और नेता जी का जवाब. पत्रकारों के हर सवाल का नेता जी ने जवाब दे डाला. विद्यार्थी जीवन में कॉपी में जवाब लिखते तो कम से कम ग्रैजुएट तो होकर निकलते लेकिन कोई बात नहीं. जब जवाब दो तभी सबेरा. पूरी प्रेस कॉन्फरेंस ख़त्म होने के बाद तीन-चार मोटी बातें निकल कर आयीं. जैसे नेताजी बहुत इम्पार्टेंट हैं. उनके पास तीन सांसद हैं तो क्या हुआ, सरकार चलाने के लिए उनका समर्थन चाहिए ही चाहिए. सरकार को आगे 'वूमेन रिजरभेशन' बिल, न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल वगैरह-वगैरह लाना है. और लास्ट बट नॉट द लिस्ट जो बात थी वह ये थी नेता जी को सरकार हल्के में नहीं ले सकती.

ये तो रही अशुद्ध विपक्ष के नेता की बात.

उधर विशुद्ध विपक्ष के नेता लोग भी सरकार के खिलाफ बोल रहे थे. दबाव वगैरह बनाने में जब सफल नहीं हो सके तो बोले कि; "हम इस मुद्दे को जनता के बीच ले जायेंगे."

बताइए, जनता के बीच क्या मुद्दों की कमी है? ये नेता लोग बोलते समय कुछ सोचते नहीं. यहाँ तक कह देते हैं कि; "मंहगाई के मुद्दे को हम जनता के बीच ले जायेंगे." अब इन्हें कौन समझाये कि; "हे चिरकुट, तुम मंहगाई के मुद्दे को जनता के बीच क्या ले जाओगे? वह मुद्दा वहीँ से तो निकला है."

लेकिन वही बात है न. राजू श्रीवास्तव के शब्दों में; "मुँह खोला और भक्क से बोला."

विषयांतर हो गया. ब्लॉग पर रिपोर्टिंग में यही सुविधा है कि जब चाहे रिपोर्टिंग को छोड़कर अपना ज्ञान और दर्शन ठेल दो. अब बताइए अगर मैं अखबार का संवाददाता होता तो ऐसा कर पाता? नहीं न.

खैर, आगे बढ़ते हैं. हाँ तो जब विशुद्ध विपक्ष ने भी मामले को गरमा दिया तो अपनी ईमेज बनाने के लिए सरकार इस बात पर राजी हो गई कि वह एक सर्वदलीय बैठक बुला देगी. उसमें सभी दलों को विश्वास में लेने की कोशिश के जायेगी. अगर ठीक उस दिन विश्वास की शार्ट सप्लाई नहीं हुई तो शायद इन दलों को सरकार सिश्वास में ले ले.

मीटिंग के दिन एक जगह सभी दलों के प्रतिनिधि इकठ्ठा हुए. मेज थी. मिनरल वाटर की बोतलें थीं. कुर्सी के आगे नेमप्लेट थीं. सब अपनी-अपनी नेम प्लेट के पीछे बैठ गए. कुछ लोगों ने दबे स्वर में प्रोटेस्ट भी किया कि नेमप्लेट अंग्रेजी में क्यों लिखी गईं हैं? प्रोटेस्ट वगैरह करके जब सब शांत हुए तो सरकार की तरफ से डिप्यूट किये गए मंत्री ने इन प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए शुरू किया; "ऐज उई आल आर अभेयार, गभार्मेंट हैज रिसेंटोली डिस्कोभार्ड द फैक्ट दैट उइथ द हेल्प आफ डायोलाग..."

अभी वे इतना ही बोल पाए थे कि मीटिंग हाल में बत्ती गुल हो गई. अँधेरा हो गया. एक आवाज़ आई, " मानीय मंत्री महोय अंगेजी में मीटिंग शुरू करेंगे तो ऐसा ही होगा. अंगेजी निशानी है अँधेरे की."

उस आवाज़ को समर्थन देते हुए पास से ही एक और आवाज़ आई; "आप ठीक कहे हैं. ओही खातिर गई है बत्ती. दादा सरकार की बत्ती शुरुवे में गुल हो गया?"

ये आवाज़ सुनकर सब हँस पड़े. मंत्री महोदय को भी हँसना पड़ा.

अभी सब हँस ही रहे थे कि एक गंभीर आवाज़ आई; "पॉवर जनरेशन एंड डिस्ट्रीब्यूशन में रेफोर्म्स के लिए ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर बनाया होता तो कम से कम बिजली तो नहीं जाती."

"अरे त आप जब बोले थे कि कायद-ए-आजम सेकुलर हैं तब त बिजली नहीं गया था. तब त बिजली था औ तब भी त नहीं लौका आपको? दस महीना बाहर रहकर पाटी में आये हैं त बड़ा-बड़ा बात?"; फिर से आवाज़ आई.

इन आवाजों के बीच मंत्री महोदय ने सोचा कि मौज-मस्ती में विषयांतर न हो जाए. यही सोचते हुए वे बोले; "में आई हैव इयोर अटेंशोन...."

फिर से एक आवाज़ आई; "फेर ओही अंग्रेजी? पहला बार बोले तो बत्ती गुल हो गया. फेर ओही भाषा में शुरू करेंगे त अबकी बार हाल में आगे न लग जाए.."

"आच्छा ठीक है. हाम हिंदी में बोलता है. रेस्पेक्टेड डेलिगेट्स जैसा कि जानता है कि सोरकार ने पकिस्तान के साथ सोभी सोमस्सा को डायलाग..."

अभी उन्होंने अपनी हिंदी में संबोधन शुरू ही किया था कि एक तरफ से आवाज़ आई;"वाट यिज दिस सार? यानरेबल
मिनिस्टार यिज यिस्पिकिंग इन यिंदी? वी वांट टाल रेट यिट. आवर रिस्पेक्टेड डाक्टर कलैन्य्गार सार विल नाट याल्लो यिट. प्लीज यिस्पीक यिन यिन्ग्लिश."

फिर से झमेला. अंग्रेजी और हिंदी की लड़ाई में आखिर में अंग्रेजी जीत गई. मंत्री महोदय ने फिर से शुरू किया; "ऐज उई आर अभेयार, उई आर हीयार टू मेक सोम काइंड ऑफ़ कोंसेंसोस ऑन द डायोलाग डोस्सियोर हूविच उई उविल साब्मिट टू द पाकिस्तान फार देयार अप्रूभाल..."

अभी तक बिजली नहीं आई थी लेकिन देश के बड़े दिमागों का एक मिनट भी व्यर्थ न हो, इसलिए मीटिंग जारी थी.

अँधेरे में एक आवाज़ उठी; "हाँ त सरकार सही सोचा है. बढ़िया डायलाग लिखने वाला सब को बुलाया जाय और उससे डायलाग लिखवाया जाय. हम अनुमोदन करते हैं ऊ आदमी का नाम जो फिलिम मुग़ल-ए-आजम का डायलाग लिखे रहे. का नाम था उनका...एक मिनट हम लिख के लाये हैं..नेता जी तनी अपना मोबाइलवा जलाइए..हाँ..अमानुल्ला खान..उनसे लिखवायें. ऊ बढ़िया लिखेंगे और पाकिस्तान का मामला है त उर्दू में डायलाग रहने से ही ठीक रहेगा ."

"आई नोट डाउन इयोर रेकोमेंडेशोन बाट आई थिंक ही में नॉट बी अलाइभ नाऊ. बाट आई अस्योर इयु दैट उई उविल चेक ह्वेदार...."; मंत्री जी ने नेता जी को आश्वासन दिया.

मंत्री जी का आश्वासन पूरा हुआ ही था कि एक आवाज़ आई; "वी हैव आब्जेक्शान सार. वी तिंक यिट विल बे बेटर यिफ डायलाग्स यार रीटेन यिन तमिल. आवर रिस्पेक्टेड डाकटार कलैन्यगार सार येज रीसेंटली डिमांडेड दैट तमिल बी मेड या नेशनल लैंग्वेज. ही विल बी वेरी हैपी यिफ डास्सियर टू बी सबमिटेड टू पाकिस्तान विल बी रिटेन यिन क्लासिकल तमिल..आवर रिस्पेक्टेड डाकटार कलैन्यगार सार आर्गेनाइज्ड यिन्टरनेशनल क्लासिकल तमिल कांफेरेंस टू टेल टू दा वाल्ड..."

एक आवाज़ और आई; "बस करो. बस करो. खुदे बोलते रहोगे कि औउर भी कोई बोलेगा? अरे डायलाग लिखायेगा त हिंदी में या उर्दू में. तमिल कौन समझेगा वहाँ?"

ये बात सुनकर पहले वाली आवाज़ फिर आई; "बट यिफ यू रिमेम्बर सार, वन ऑफ़ द डास्सियर सबमिटेड टू पकिस्तान यिन दा ट्वेंटी-सिक्स एलेवेन केस येज समथिंग रिटेन यिन मराठी..."

"अरे ऊ छोड़ो..ऊ त गलती था. एक ही गलती केतना बार करेगा सरकार?"; फिर से वही विरोध जताने वाली आवाज़ आई.

"दीस इज नाट दा स्टेज टू फाईट ईच-ओदर"; मंत्री जी ने सलाह दी.

अँधेरे में एक धीर-गंभीर आवाज़ उभरी; "हमारी पार्टी का ऐसा मानना है कि हमारे पार्टी माऊथपीस के जो सम्पादक हैं उनसे लिखवाया जाय..बढ़िया लिखते हैं. वे बढ़िया डायलाग लिखेंगे."

"अरे त आप भी त किताब लिखे हैं. किसको-किसको सेकुलर बताते फिरते हैं. आप किताब लिख सकते हैं त डायलाग भी लिख दीजिये. दस महीना बाद पार्टी में लौटे हैं और पार्टी भेज भी दिया मीटिंग में"; पूरी मीटिंग में डोमिनेंट आवाज़ फिर से उभरी.

अब बारी थी एक नई आवाज़ के उभरने की. उसने कहा; "अभी प्रकाश झा की फिल्म राजनीति हिट हुई है. हमारा कहना है कि उन्हें डायलाग लेखन की समझ है. उनसे डायलाग लिखवाया जाना चाहिए. हमारे नेता और मुख्यमंत्री भी इस पक्ष में हैं."

एक बार फिर से डोमिनेंट आवाज़ उभरी; "का कहे? प्रकाश झा? अरे नाम लेना था त किसी सेकुलर डायलाग राइटर का नाम नहीं मिला? ओइसे भी मिलेगा कैसे? आपके मुख्यमंत्री का फोटो किसके साथ अखबार में प्रकाशित हुआ ऊ त सब देखा ही है."

"हमारी पार्टी बिहार के किसी राइटर को डायलाग नहीं लिखने देगी. वईसे भी पकिस्तान की बात पर किसी भी बात का विरोध पहिले महाराष्ट्र से ही होगा"; एक नई आवाज उभरी.

"नै..नै..ई नहीं चलेगा. बिहार के लोगों का बिरोध बम्बई में त करता ही था तुम लोग, अब पाकिस्तान में भी करने लगा? आ सुनिए दादा, हम एक और नाम देते हैं. जाभेद अख्तर. सबसे बड़ा बात है कि आदमी सेकुलर है. उर्दू भी जानते ही होंगे. औउर ऊ अब त पार्लियामेंट में भी है"; डोमिनेंट आवाज़ ने फैसला जैसा कुछ सुनाते हुए कहा.

"बाट सार, वी रेकमेंड नेम ऑफ़ बासंती, दा प्येमस तमिल राइटर फॉर दिस काज"; पहले वाली आवाज़ ने एक बार फिर से ट्राई मारा.

"प्रकाश झा"

"जाभेद अख्तर"

"बासंती"

"सुनील गंगोपाध्याय"

सब अपना-अपना रेकमेंडेशन अँधेरे में ही दोहराते जा रहे थे.

मंत्री महोदय को लगा कि अँधेरे में पता भी नहीं चल रहा है कि केवल गले काम कर रहे हैं या फिर और भी अंग? कहीं ऐसा तो नहीं कि हाथ-पैर भी काम करने पर उतर आयें. उन्हें लगा कि मीटिंग अगर ख़त्म न की गई तो कोई अनहोनी हो सकती है. यही सोचते हुए वे बोले; "ओके..ओके..भाट आई हैभ कोंक्लूडेड ईज, दैट उई हैभ नाट एराइव्ड ऐट एनी कोंसेंसोस.... आई उविल आस्क आनरेबल प्राइम मिनिस्टर टू फार्म आ ग्रूप आ मिनिस्टोर हुविच उविल कोऑर्डिनेट बिटभीन गभार्मेंट ऐंड दा अपोजीशोन"

मीटिंग ख़त्म हुई. अब सरकार को-ओर्डिनेशन बनाने के लिए डायलाग राइटर ढूढ़ रही है.

Monday, June 28, 2010

डायलाग इज द ओनली वे फॉरवर्ड - पार्ट 1




पूरा देश साँसे थाम कर बैठा था. भारत और पकिस्तान के विदेश सचिव वार्ता कर रहे थे. पिछला रिकॉर्ड बताता है कि जब भी पाकिस्तान के साथ अपने देश की वार्ता होती, देश के लोगों की सांसें थम जाती थीं. उसी परंपरा और संस्कृति का निर्वाह आज भी हो रहा था. लोग गुटों में बैठे थे और गुटों में ही खड़े थे. गुटों की ये सक्रियता आभास दिला रही थी कि गुटबाजी ही भारत को एक एक्टिव देश का दर्जा दिलवाती है. टीवी चैनल के संवाददाता वार्ता स्थल के बाहर अपनी हार्ट-बीट थामने की एक्टिंग करते हुए क्यूट जैसे कुछ लग रहे थे. कैमरे क्लिक होने के लिए बेताब थे. टीवी न्यूज चैनल के स्टूडियो में बैठे पैनेलिस्ट कयास लगा रहे थे.

नुक्कड़ों पर गुट चर्चारत थे. कुछ गुटों को देखकर डर लग रहा था कि कहीं ये लोग उसी जगह खड़े-खड़े अपनी पॉलिटिकल पार्टी न लॉन्च कर डालें. चाय की बिक्री बढ़ गई थी. बाज़ारों में पान की कमी हो गई थी. लोगों को खाने-पीने की सुध नहीं थी. टेंशनग्रस्त देश यही सोच रहा था कि क्या होगा आज? वार्ता ख़त्म होने के बाद सुनने को क्या मिलेगा? कुछ लोगों को वार्ता करने वालों पर पता नहीं किन कारणों से विश्वास तो नहीं लेकिन विश्वास जैसा कुछ था. ये लोग यह सोचते हुए डर रहे थे; "ऐसा तो नहीं कि पकिस्तान के साथ हमारी समस्याएं आज ही सॉल्व हो जायेंगी?" फिर उन्ही मन में सांत्वना के स्वर उभरते; "नहीं-नहीं ऐसा नहीं हो सकता."

सांत्वना के ये स्वर सही थे. जिन दिलों से ये स्वर निकल रहे थे उनके मालिकों को अपने देश के नेताओं पर पूरा भरोसा था. उन्हें पता था कि जवाहरलाल से लेकर देवीलाल तक, सभी ने जबानी जमाखर्च तो बहुत किया था लेकिन किसी ने आजतक पकिस्तान के साथ एक भी समस्या नहीं सुलझाया था. ऐसे में समस्या न सुलझा पाने की हमारी संस्कृति की रक्षा करने का काम वर्तमान पीढ़ी के जिम्मे है और हमारे नेता देशवासियों के इस विश्वास की रक्षा कर के छोड़ेंगे.

इन स्वरों को थोड़ा-बहुत बल इस सिद्धांत से भी मिल रहा था कि हर देश का अपने पड़ोसी देश के साथ कुछ न कुछ लफड़ा रहना ही चाहिए. लफड़ा नहीं रहे तो लगता ही नहीं कि देश जिन्दा है. लफड़े ही देश के जिंदा रहने का सुबूत होते हैं.

इन्ही सोच-विचार की लहरों में दिन डूबा जा रहा था. अचानक शाम को कॉन्फरेंस रूम का दरवाजा खुला. दरवाज़ा खुलने के बाद जो हरकतें हुई उन्हें देखकर लगा कि कुछ दरवाजे कितने महत्वपूर्ण होते हैं. खैर, दरवाजा खुला और अन्दर से दोनों देशों के विदेश सचिव निकले. भारतीय विदेश सचिव मुस्कुराते हुए आगे बढीं. संवाददाताओं ने उन्हें घेर लिया. इन संवाददाताओं को देख कर लगा जैसे उन्हें पूरा विश्वास था कि आज विदेश सचिव कुछ ऐसा कहने वाली थीं जो भारत और पकिस्तान के पंगात्मक इतिहास में किसी प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री या विदेश सचिव ने नहीं कहा था.

विदेश सचिव ने संवाददाताओं के इस विश्वास को थाम लिया और कहा; "विद टूडेज मीटिंग, वी हैव अराइव्ड ऐट द कान्क्लूजन दैट डायलाग इज द ओनली वे फॉरवर्ड."

उनकी बात सुनकर वहाँ उपस्थिति लोगों की बांछें खिल गईं. सब हतप्रभ होकर एक-दूसरे को देखने लगे. लोगों को देखकर लग रहा था जैसे उन्हें विश्वास हो चला था कि विदेश सचिव द्वारा कही गई डायलाग वाली बात बहुत गहरी थी और अब भारत और पकिस्तान के बीच समस्याओं का सुलझना निश्चित है. कुछ लोगों ने इस विदेश सचिव की सराहना करते हुए पुराने विदेश सचिवों की आलोचना कर डाली. यह कहते हुए कि; "इतनी-इतनी सैलेरी लेते थे वे लोग, कहने को बढ़िया दिमाग रखते थे लेकिन उनके दिमाग में कभी यह बात नहीं आई कि; "डायलाग इज द ओनली वे फॉरवर्ड."

लानत है.

विदेश सचिव द्वारा बोले गए 'बयानीय सेंटेंस'को सुनकर मन में भाव आ रहे थे जैसे देश के एक सौ बीस करोड़ लोग डायलाग बोलते हुए पाकिस्तान की तरफ बढ़ते जा रहे थे और उनके रास्ते की तमाम मुश्किलें अपने आप हटती जा रही थीं.

बधाइयाँ दी जा रही थीं. बधाइयाँ ली जा रही थीं. विदेशी टीवी चैनलों के रिपोर्टर्स भी खुश थे, खासकर अमेरिकी रिपोर्टर्स, जिन्हें यह लगता है कि भारत और पकिस्तान के बीच अगर मारपीट न हो सके तो कम से कम बातचीत या वैसा ही कुछ होते रहना चाहिए. वे अपने-अपने चैनलों के लिए अपनी रिपोर्ट रिकॉर्ड करवा रहे थे. चारों दिशायें मुस्कुराहटों से भरी हुई थीं. भारतीय दल खुश था तो पाकिस्तानी दल महाखुश.

शाम को सरकार ने इस डायलाग वाली बात के बारे में बताया कि यह इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा रहस्योद्घाटन है और इस रहस्य के साथ ही पाकिस्तानी पंगों का अंत तय है. प्रधानमन्त्री खुश थे. विदेश मंत्री तो बहुत खुश थे. कूटनीति की सफलता ने सबके चेहरे चमका दिए थे. रूलिंग पार्टी के प्रवक्ता से लेकर उठभैये और छुटभैये नेता तक माइक्रोफोन के सामने बाईट देने में बिजी थे. प्रस्ताव पारित करके लड्डू वितरण समारोह का आयोजन किया गया. तमाम पत्रकार इस बात से चकित थे कि एक रहस्योद्घाटन कितना महत्वपूर्ण हो सकता है.

विदेश सचिव की डायलाग वाली बात पर पूरा देश ही कयास लगा रहा था. सब अपने-अपने अंदाज़ में बातें कर रहे थे. सरकार किसे चुनेगी डायलाग लिखने के लिए? क्या किसी पुरानी फिल्म के डायलाग राइटर को लाया जाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि पकिस्तान के साथ समस्याएं सुलझाने के लिए सलीम-जावेद एक बार फिर से जोड़ी बना लेंगे? कोई कह रहा था कि कादर खान जी से लिखवाना चाहिए. कोई बोला कि अब के ज़माने में कादर खान जी के डायलाग नहीं चलेंगे. अब जमाना बदल गया है. अब किसी नए राइटर को ट्राई किया जाएगा. किसी ने सुझाव दिया कि पाकिस्तान की बात है लिहाज़ा डायलाग उस राइटर से लिखवाना चाहिए जिसने सनी देओल की फिल्म में एक डायलाग लिखा था कि "दूध मांगोगे तो खीर देंगे, कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे." किसी ने कहा धत्त, उससे लिखवाओ जिसने ग़दर एक प्रेम कथा का डायलाग लिखा था. कोई बोला हो सकता है सरकार किसी पत्रकार को हायर कर ले.

टीवी चैनलों ने सात-आठ नामों को दिखाकर एस एम एस वोटिंग करवाना शुरू कर दिया था.

उधर लड्डू बँटे. मीटिंग्स हुईं. लोग जमा हुए. कहीं-कहीं लोग जमे भी. देश-विदेश के टीवी चैनलों ने भारतीय सरकार की सराहना की. अमेरिकी राष्ट्रपति ने राहत की सांस लेने की एक्टिंग की. उन्होंने हमारे प्रधानमंत्री को बधाई दी. हमारे प्रधानमन्त्री ने फट से बधाई लेकर उसे अपनी उस एक्सक्लूसिव आलमारी के हवाले किया जिसमें वे अमेरिकी राष्ट्रपति की बधाइयाँ और सन्देश बड़े करीने से सजाते थे.

जब अमेरिकी राष्ट्रपति के सन्देश आलमारी के हवाले हो गए और इनिशियल सेलिब्रेशन की धूल-धक्कड़ सेटल हुई तो विदेश सचिव ने एक राज खोला. डिप्लोमेसी की यही विशेषता है कि सबकुछ एक बार में सामने नहीं आता. वैसे भी बातें रह-रह कर सामने आयें तो डिप्लोमेसी में दिलचस्पी बनी रहती है. इसी दिलचस्पी को बरकरार रखते हुए विदेश सचिव ने बताया कि यह डायलाग वाली बात पर पाकिस्तान की तरफ से एक रायडर लगा दिया गया है.

जब विदेश सचिव से इस रायडर के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा; "पाकिस्तान चाहता है कि भारत पहले डायलाग के कम से कम दस डोस्सियर बनाकर पकिस्तान को दे जिससे उसके डोस्सियर एक्सपर्ट उसे जांच सकें. वे जब डायलाग को जांचकर उसे अप्रूव कर देंगे तब अगला स्टेप लिया जाएगा."

विदेश सचिव की बात सुनकर प्रधानमन्त्री मुस्कुरा दिए. पीए ने धीरे से पूछा; "सर आपकी मुस्कराहट देखकर लगता है जैसे आपको कुछ याद आ गया."

अपने पीए की बात सुनकर प्रधानमंत्री बोले; "हाँ. दरअसल मुझे अचानक एक लाइन याद आ गई कि; म्यूचुअल-फंड इन्वेस्टमेंट्स आर सब्जेक्ट टू मार्केट रिस्क. प्लीज रीड द ऑफर डाक्यूमेंट केयरफुली बिफोर इन्वेस्टिंग."

उसके बाद दोनों ने एक दूसरे को देखा और दोनों मुस्कुरा दिए.

खैर, उसके बाद प्रधानमंत्री विदेश सचिव से मुखातिब होते हुए बोले; "तो इसमें कौन सी बड़ी बात है? डायलाग का डोस्सियर ही तो बनवाना है. पहले की बात होती तो कोई चिंता भी थी लेकिन अब बिलकुल चिंता नहीं है. अब तो हमारे पास ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स का फंडा भी है. एक काम करता हूँ. मैं एक ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स बना देता हूँ जो मीटिंग्स करके बताएगा कि किस राइटर से डायलाग लिखवाना है? अपने यहाँ डायलाग लिखने वालों की कमी थोड़ी है. देश के ट्वेंटी परसेंट लोग कई सालों से डायलाग बोल रहे हैं और बाकी सुन रहे हैं. कहिये तो पूरा देश ही डायलाग से ही चल रहा है. आप बिलकुल निश्चिन्त रहें. हम डायलाग के ऐसे-ऐसे डोस्सियर देंगे कि वहाँ के डोस्सियर एक्सपर्ट उसे रिजेक्ट नहीं कर पायेंगे. मुझे अपने ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स पर पूरा भरोसा है."

दूसरे दिन लोकसभा में प्रधानमंत्री ने सदन को जानकारी देते हुए कहा; "हमें यह बताते हुए ख़ुशी हो रही है कि पाकिस्तान के साथ हमारी समस्याएं अब ख़त्म हो जायेंगी. हमें पता चल गया है कि डायलाग का सहारा लेकर सबकुछ ठीक किया जा सकता है. मैंने आज आफिस पहुँचते ही एक ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स बना दिया है जो उन राइटर्स का सेलेक्शन करेगा जो डायलाग लिखेंगे और साथ ही उन एक्टरों का भी सेलेक्शन करेगा जो लिखे गए डायलाग की डेलिवरी करेंगे."

प्रधानमंत्री की बात सुनकर विपक्ष और साथी दल वाले भड़क गए. शोर जब थमा तो पता चला कि बाकी के दल चाहते हैं कि चूंकि यह विदेश नीति का मामला है इसलिए बाकी दलों को विश्वास में लेना ज़रूरी है. वैसे भी कई महीने हो गए थे सरकार ने सभी दलों को विश्वास में नहीं लिया था. पिछली बार सरकार ने सांसदों की सैलेरी बढ़ाने के मामले में सभी दलों को विश्वास में लिया था. लेकिन उस बात को करीब सात महीने बीत गए थे. ऐसे में बाकी दलों की यह बात जायज भी लगी.

कभी विपक्ष में और कभी पक्ष में रहने वाले एक नेता जी बोले; "भाट इज दिस? ऐसा नै चलेगा. हम नाराज हूँ. सरकार का ड्यूटी है कि ऊ जेतना सेकुलर दल है ऊ सबको विशबास में ले.... आल दी सेकुलर पार्टी...का समझा? आ हम क्लीयर कर दें कि ई मुद्दा पर पर हम आ नेताजी साथ-साथ हैं. टूगेदर...कह सकता है सब कि ई मुद्दा पर हम विपक्ष में हैं...एतना इम्पार्टेंट फैसला बिना सब सेकुलर पार्टी से बात किये लिया कैसे सरकार ने? हमर डिमांड है कि इसके लिए 'सर्भदलीय' बैठक बुलाई जाय...आल पार्टी मीटिंग..तब जाके फैसला फाइनल होगा."

शोर मच गया. हंगामा हो गया. वाक आउट हो गया. अध्यक्ष ने लोकसभा की कार्यवाई स्थगित कर दी. विपक्ष ने जहाँ इसे लोकतंत्र की हत्या बताया वहीँ सरकार ने इसे लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने वाला कदम बताया. एक ही मुद्दे पर लोकतंत्र के ट्रीटमेंट को लेकर सरकार और विपक्ष एक्सट्रीम पर थे. यह देखकर एक बार फिर से लगा कि देश में केवल और केवल लोकतंत्र है, लोकतंत्र के अलावा कुछ नहीं है.

मीडिया में भी लोकतंत्र छाया रहा. जहाँ इस मुद्दे पर मीडिया का एक ग्रुप सरकार के पक्ष में था वहीँ दूसरा ग्रुप विपक्ष के पक्ष में था. दूसरा ग्रुप चाहता तो सरकार के विपक्ष में भी हो सकता था लेकिन पता नहीं क्यों उसे इस मुद्दे पर विपक्ष के पक्ष में होना ज्यादा उचित लगा. खैर, दोनों तरफ के लोग अपने-अपने स्टैंड पर डटे रहे.

नेता जी से पत्रकार ने सवाल किया कि; "कट-मोशन में तो आप सरकार के साथ थे. आज उसके विरुद्ध क्यों हैं?"

उन्होंने जवाब दिया; "ढेर दिन हो गया था जे हम सरकार का विरोध नहीं किये थे. पब्लिक सब सोच रहा था कि कहीं हम सरकार के साथ त नहीं हो गए? दू महीना हो गया था आ हमलोग को विरोध करने का कोई मुद्दा नहीं मिल रहा था एही बास्ते हम विदेश नीति का बात पर सरकार के विरोध में चले गए."

...जारी...

Wednesday, June 23, 2010

सांस्कृतिक फ़ुटबाल.




फ़ुटबाल वर्ल्ड कप चल रहा है. चल क्या उछल रहा है. मजे लिए जा रहे हैं. पिछले कई दिनों से जानबूझ कर मैं ऐसी जगह नहीं जाता जहाँ दो-चार लोग बैठे हों. डर लगा रहता है कि कहीं कोई फ़ुटबाल के बारे में न पूछ ले. कारण यह है कि हम रविन्द्र जडेजा की बैटिंग ज्यादा इंज्वाय करते हैं. वही जडेजा जिन्होंने पिछली कई पारियों में शून्य पर आउट होकर शून्य को अमर कर दिया है. वैसे भी उस वर्ल्ड कप में कैसे मन लगेगा जहाँ अपने देश की टीम गई ही नहीं. ऐसे में अगर हम अपने शहर वालों की तरह फ़ुटबाल के मजे लेना चाहें तो हमें अर्जेंटीना को समर्थन देना पड़ेगा क्योंकि चे का जन्म उस धरती पर हुआ था और मैराडोना भी वही के हैं, या फिर ब्राजील को, क्योंकि वहाँ के सबसे महान खिलाड़ी पेले कोलकाता में खेल चुके हैं.

हमारे शहर के लोगों के हिसाब से वर्ल्डकप में दो ही टीमें खेलती हैं. अर्जेंटीना और ब्राजील.

ज्यादातर दफ्तर पूरे दिन अलसाई आँखों से भरे हुए हैं. अंग्रेजी न्यूज चैनलों के स्टूडियो में एक्सपर्ट लोग लगे हुए हैं. किसी न किसी टीम की जर्सी पहने हुए ये एक्सपर्ट रोज सुबह टीवी चैनल के स्टूडियो में कैरमबोर्ड जैसी तख्ती पर काठ के छोटे-छोटे खिलाड़ियों को इधर से उधर घुमाकर बताते हैं कि फलाना टीम आज इधर से अटैक करेगी. सामने वाली टीम के डिफेंडर्स बायें से उस अटैक का जवाब देंगे और जो टीम अटैक करेगी वह उस जवाब का तोड़ फलाना तरीके से निकालेगी और मैच जीत जायेगी. फलाना प्लेयर सबसे इम्पार्टेंट है. आज अगर वह खेल गया तो फिर उसकी टीम लास्ट सिक्सटीन में पहुँच जायेगी. एक्सपर्ट की ऐसी बातें मुझे युवराज सिंह की याद दिला देती हैं. लगता है जैसे एक्सपर्ट कह रहा है कि युवराज सिंह बहुत टैलेंटेड खिलाड़ी हैं और अगर वे आज चल गए तो भारत मैच जीत जाएगा.

टैलेंटेड खिलाड़ी की बात पर पता नहीं क्यों मुझे हमेशा ही लगता है कि क्रिकेट और फ़ुटबाल में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं है.

खैर, बात कर रहा था एक्सपर्ट टाइप लोगों की. मैंने अभी तक देखा है कि अंग्रेजी न्यूज चैनल के स्टूडियो में ये एक्सपर्ट लोग जो भी बोलते हैं, ज्यादातर वैसा होता नहीं है. और जब वैसा नहीं होता है तो मुझे लगता है कि इनलोगों को न्यूज चैनल ने पैसा-वैसा देकर बुलाया होगा. क्या ज़रुरत है पैसे देने की? इनकी जगह मौसम विभाग वालों को बुला लेते. वे भी इतने ही एफिसियेंट हैं. फ़ुटबाल वर्ल्डकप के मैचों के बारे में इन एक्सपर्ट लोगों के एक्सपर्ट कमेन्ट जितने नकारा साबित हो रहे हैं उतने ही नाकारा उन मौसम विभाग वालों के भी साबित होते. ऊपर से मौसम विभाग वाले फ़ुटबाल के बारे में बोलने के लिए तड से तैयार हो जाते. पैसे कम लेते सो अलग.

मेरी तरह ही मेरा एक मित्र अंग्रेजी न्यूज चैनल के स्टूडियो में हो रहे फ़ुटबाल कार्यक्रमों को देखकर त्रस्त लगा. अब चूंकि हम भारतीयों का काम सांत्वना लेन-देन से चल जाता है इसलिए मैंने उससे कहा; "अरे यार गनीमत है कि अपने अंग्रेजी न्यूज चैनल फ़ुटबाल वर्ल्डकप के बारे में आधे घंटे का प्रोग्राम तो दिखा रहे हैं, अपने हिंदी न्यूज चैनलों को सलमान खान और ज़रीन खान के तथाकथित प्रेम सम्बन्ध से ही फुर्सत नहीं है."

वैसे मैं बता दूँ कि मित्र को सांत्वना देने के लिए कही गई बात केवल उस क्षण के लिए जायज थी. मेरा हमेशा से ऐसा मानना रहा है कि अपने हिंदी न्यूज चैनल फ़ुटबाल के बारे में कुछ नहीं दिखा सकते. कोई प्रोग्राम नहीं बना सकते. कारण मेरा वह पक्का विश्वास है जिसके तहत इंडिया टीवी और आजतक जैसे चैनलों के लिए ई पी एल (इंग्लिश प्रीमियर लीग) यूरोप का सबसे बढ़िया बाइक ब्रांड है और ला-लीगा (स्पेन का फ़ुटबाल लीग) सबसे बढ़िया आईसक्रीम ब्रांड. कोई हिंदी न्यूज चैनल फ़ुटबाल वर्ल्ड कप के बारे में बात भी करेगा तो उसे फ़ुटबाल वर्ल्ड कप न कहकर फ़ुटबाल का महाकुम्भ पुकारेगा और उस वर्ल्डकप का भारतीयकरण कर डालेगा जिसमें हमारी टीम के खेलने के चांस शायद अगले पचास सालों में न के बराबर हैं.

लेकिन मेरी बात मेरे शहर के लोगों की बात नहीं है. मेरे शहर के लोग फ़ुटबाल के पीछे पागल हैं. आज भी मोहन बागन और ईस्टबंगाल का मैच न सिर्फ देखने जाते हैं बल्कि मारपीट भी करते हैं. कहते हैं फ़ुटबाल में मारपीट बहुत ज़रूरी है. अगर मारपीट न हो तो फ़ुटबाल मैच दो कौड़ी का. हमारे शहर के लोग कोलकाता को ही फ़ुटबाल का 'मेक्का' कहते हैं. वर्ल्ड चैम्पियन इटली हो या ब्राजील, फ्रांस या अर्जेंटीना, लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि फ़ुटबाल का जन्म कोलकाता ही में हुआ है और दुनियाँ का सबसे बढ़िया फ़ुटबाल या तो मोहनबागान वाले खेलते हैं या फिर ईस्टबंगाल वाले.ये बात अलग है कि अगर आप इन क्लबों के ग्राऊँड्स में लगी बेंचों पर बैठ जायेंगे तो बेंच नीचे टूट पड़ेगी.

हमारे यहाँ हर वर्ल्डकप के मौके पर दीवारों पर जो कलाकारी होती है उसे देखकर लगता है जैसे मेसी, काका, रूनी और ड्रोग्बा को पकड़कर किसी ने दीवार पर कैद कर दिया है. सभी अपने-अपने पाँव उठाये हुए. जैसे कह रहे हों; "फ़ुटबाल, माय फूट."

हमारे शहर के लोकल चैनलों पर बोलनेवाला फ़ुटबाल एक्सपर्ट खेल और उसकी स्ट्रेटेजी की बारीकियों को छोड़कर बाकी सारे चीजों के बारे में बोलता है. असल में हमारे शहर का फ़ुटबाल एक्सपर्ट आत्मा से दर्शनशास्त्री और व्यवहार से बुद्धिजीवी होता है. अभी दो दिन पहले की बात है लोकल टीवी चैनल पर चल रहे एक प्रोग्राम में एक एक्सपर्ट मैराडोना के बारे में बात करते हुए हर वह बात बोला जिसका फ़ुटबाल से सम्बन्ध न के बराबर है. जैसे मैराडोना जब नैपोली के लिए खेलते थे तो उन्होंने फला तारीख को वहाँ के मैनेजर से क्या कहा? कैसे उन्हें नैपोली के समाज और वहाँ के बेरोजगार युवकों के बारे में चिंता थी? और यह कि मैराडोना इसलिए महान हैं कि उन्होंने जार्ज बुश को गरिया दिया था और पेले आजतक बुश को गरिया नहीं पाए.

अलग तरीके का फ़ुटबाल प्रेम है हमारे शहर का. आप आइये. पायेंगे कि मिठाई की दूकान पर मिठाइयाँ कहीं फ़ुटबाल के आकार की हैं तो कहीं वर्ल्डकप के आकार की. लगता है जैसे हम यह साबित करना चाह रहे हों कि; "अरे ओछे हैं वे लोग जो वर्ल्डकप जीतना चाहते हैं. हम तो वर्ल्ड कप खाकर संतुष्ट हो लेंगे."

नई-नई मिठाइयाँ बन रही हैं और किसी का नाम मेसी रख दिया गया है तो किसी का काका. लोग मेसी और काका को घर लिए जा रहे हैं. फ्रीज में रख रहे हैं और मैच देखते हुए उन्हें खा ले रहे हैं. खाने के साथ-साथ फ़ुटबाल प्रेम दिखाकर हाथ झाड़ लिया.

हमारी फुटबाली कला का असली नमूना मिठाइयों और चित्रकलाओं में दिखाई दे रहा है. विश्व फ़ुटबाल के लिए यह हमारा सांस्कृतिक योगदान है. ऐसे में कह सकते हैं कि फ़ुटबाल संस्कृति में जितनी भी संस्कृति है, सब हमारी ही देन है.

हमारे मोहल्ले के एंट्रेंस पर दो बड़े-बड़े कटआउट लगाये गए हैं. एक तरफ काका और दूसरी तरफ मेसी. फोटो में दोनों टांग उठाकर तैयार हैं. जब गाड़ी उन कटआउट के सामने से गुजरती है तो डर लगा रहता है कि कहीं ये लोग अपनी टांग न चला दें. इतने बड़े कटआउट कि अगर करूणानिधि देख लें तो अपने पुत्र स्टालिन को तुरंत बुलाकर दो तमाचे रसीद कर देंगे. यह कहते हुए कि; "अन्ना नगर में जो चालीस कटआउट कल लगवाए वे इतने बड़े क्यों नहीं बनवाये?"

हमारे शहर के बप्पी लाहिड़ी जी ने एक बार फिर से फ़ुटबाल वर्ल्डकप के मौके पर अपना 'म्यूजीक' विडियो बनाया है. बनाया तो बनाया उसे रिलीज भी करवा दिया है. गाने के बोल हैं; "बोले बोले बोले बोले..फुटबोल फुटबोल फुटबोल..फुटबोल ईज आवर लाइफ..." साथ ही बप्पी दा ने वह फ़ुटबाल भी खरीद लिया है जिसपर दुनियाँ के तमाम बड़े खिलाड़ियों का आटोग्राफ है. टीवी पर देखकर लगा कि बप्पी दा को थैंक्स बोल डालू. यह कहते हुए कि; "आपसे ही फ़ुटबाल है."

असली भारतीय फ़ुटबाल दीवारों, मिठाइयों और 'म्यूजीक' विडियो में कैद होकर विश्व फ़ुटबाल को हमारे योगदान की गाथा सुना रहा है. प्रियरंजन दाशमुंशी ने जब से होश संभाला, भारतीय फ़ुटबाल की देख-रेख की. अब वे नहीं हैं. अब पता नहीं कौन देख-रेख कर रहा है. हाँ, मुझे हमेशा यह भय सताए रहता है कि सत्तासी वर्षीय के करूणानिधि कल से इंडियन फ़ुटबाल फेडरेशन को संभालने न लग जाएँ.

अब चूंकि हम सांत्वना के लेन-देन से खुश हो लेते हैं तो मैं आपको एक सांत्वना देता हूँ और कहता हूँ; "फ़ुटबाल वह नहीं जो वर्ल्डकप में खेला जा रहा है. असली फ़ुटबाल वह है जो हम खेलते हैं. सांस्कृतिक फ़ुटबाल. और यही विश्व फ़ुटबाल को हमारी देन है."

Wednesday, June 16, 2010

ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स




मैं सरकार से नाराज हूँ. आप कह सकते हैं इसमें नया क्या है? मेरा काम ही है सरकार से नाराज होना. मैं सरकार से नाराज हूँ, यह भी कोई न्यूज है? न्यूज तो तब बनेगी जब मैं कहूँ कि ; "मैं सरकार से खुश हूँ." वैसे आपको बता दूँ कि मैं सरकार से कभी-कभी खुश भी हो लेता हूँ. यह अलग बात है कि नाराज होने का काम सार्वजनिक तौर पर यानि ब्लॉग पर करता हूँ और खुश होने का निहायत ही व्यक्तिगत तौर पर. एक दम प्राईवेटली. ऐसा करने से इमेज बनी रहती है. ओह! लगता है विषयांतर हो गया.

हाँ, तो मैं बता रहा था कि मैं सरकार से नाराज हूँ. वह इसलिए कि कल हमारे प्रिय रबिन्द्रनाथ टैगोर की कलाकृतियाँ नीलाम हो गईं और सरकार ने कुछ नहीं किया. सरकार मंहगाई नहीं रोक पाए, नक्सलियों द्वारा की गई हिंसा नहीं रोक पाए, सुरक्षा वगैरह की बात पर टें बोल जाए, यह बात तो समझ में आती है लेकिन अपने देश के महान कवि और पेंटर की कलाकृतियों की नीलामी भी न रोक पाए, यह बात समझ में नहीं आती.

इस बात पर तो यही कहा जा सकता है कि; "लानत है."

मुझे याद है जब महात्मा का चश्मा, चप्पल और चिट्ठी-पत्री नीलाम हो रहे थे तो शराब बनानेवाले महान उद्योगपति श्री विजय माल्या साहब ने वह सब खरीद लिया था. बाद में सरकार ने बताया कि माल्या साहब ने उसके उकसाने पर महात्मा जी की चीजें खरीद ली थीं. लेकिन इस बार सरकार ने उन्हें क्यों नहीं उकसाया? चलिए उनसे संपर्क नहीं भी हो पाया तो क्या हुआ? सरकार कम से कम एक ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स ही बना देती. वह ग्रुप कविगुरु की पेंटिंग्स खरीदने का कोई न कोई उपाय निकाल ही लेता.

सरकार को तो है ही मुझे भी पिछले कई महीनों में सबसे ज्यादा भरोसा ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स पर ही हुआ है. जब भी किसी समस्या के समाधान के लिए ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स बन जाता है तो मैं निश्चिन्त हो जाता हूँ. यह सोचते हुए खुश हो लेता हूँ कि सरकार समस्या के समाधान के लिए सीरियस है. अगर ऐसा नहीं होता तो वह ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स नहीं बनाती. तेल का दाम घटाना हो तो ग्रुप बना दिया. बढ़ाना हो तो ग्रुप बना दिया. गैस का दाम तय करना हो तो ग्रुप बन गया. मंहगाई रोकने के लिए ग्रुप है ही. यहाँ तक कि अम्बानी बन्धुवों की रार मिटाने के लिए भी ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स बना दिया गया. पिछले एक साल में देश की शायद ही कोई समस्या है जिसके लिए ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स काम नहीं कर रहे. अब तो भोपाल गैस काण्ड के समाधान के लिए भी ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स बन चुका है. उड़ती खबर तो यह भी है कि सरकार ने एक ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स बनाया है जो साल २०२२ के फीफा वर्ल्ड कप को जीतने के लिए भारत की मदद करेगा.

मैं तो कहता हूँ कि भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड को सरकार से चिरौरी करके एक ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स बनवा लेना चाहिए जो अगले साल होने वाले क्रिकेट विश्व कप में भारत की जीत तय करने के लिए आज से ही काम शुरू कर दे.

अगर आप भारत में आविष्कारों का इतिहास ध्यान से देखें तो इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि दशमलव और शून्य के बाद अपने देश में जिस सबसे महान चीज का आविष्कार हुआ है वह है ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स का सिद्धांत. भारत के सबसे बड़े देशभक्त श्री मनोज कुमार अगर आज भी फिल्म बना रहे होते तो वे अपनी किसी न किसी फिल्म के किसी न किसी गाने में दशमलव न देता भारत तो फिर चाँद पर जाना मुश्किल था की तर्ज पर यह लाइन ज़रूर डालते कि जीओएम न देता भारत तो प्राब्लम्स सुलझाना मुश्किल था.

मुझे तो आशा ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास है कि सरकार के इस ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स के सिद्धांत को देश भर के बिजनेस स्कूल्स और कॉलेज अगले सेमेस्टर से कोर्स में लगाकर धन्य हो लेंगे. हम देखेंगे कि हमारे प्रधानमंत्री अगले छ महीने तक कॉलेज-कॉलेज घूमकर वहाँ ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स के सिद्धांत कोर्स में शामिल करने का उद्घाटन करते फिरेंगे. अगर उनके पास समय कम होगा तो शायद वे समय की कमी की समस्या से निबटने के लिए एक ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स अप्वाइंट कर दें. दो-चार मीटिंग्स के बाद ग्रुप समाधान खोजकर प्रधानमंत्री को बता सकता है कि कॉलेज-कॉलेज घूमकर उद्घाटन करने से अच्छा है कि आप एक ही दिन यह ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स वाला सिद्धांत पूरे देश को समर्पित कर दें. हम दूरदर्शन पर समाचार में न्यूज एंकर से सुनेंगे कि; "आज दिल्ली में हुए एक रंगारंग कार्यक्रम में प्रधानमन्त्री ने ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स का सिद्धांत देश को समर्पित किया. राष्ट्रपति ने इस सिद्धांत को देश को समर्पित किये जाने पर पूरे देश को बधाई दी."

एक बार ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स का सिद्धांत देश को समर्पित कर दिया गया उसके बाद सुधार ही सुधार. देश की दशा और दिशा, दोनों चेंज हो जायेगी. कहीं की सड़क ठीक नहीं है ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स बना दो. फट से प्रॉब्लम साल्व हो जायेगी. कहीं पानी जमा हो रहा है एक ग्रुप उसके लिए बना दिया. बेरोजगारी बढ़ रही है और देखा कि अकेला मंत्री बेचारा बढ़ती बेरोजगारी को नहीं रोक पा रहा है एक ग्रुप फिट कर दिया. सारे मंत्री एक साथ बेरोजगारी रोकेंगे तो कैसे बढ़ेगी? एक मंत्री की ताकत और पाँच-सात मंत्रियों की ताकत में कितना बड़ा फरक होता है. ग्लोबल वार्मिंग से लेकर पानी की कमी की समस्या और शिक्षा से लेकर भिक्षा तक, कोई समस्या नहीं बचेगी.

दूरदर्शन पर न्यूज एंकर न्यूज पढ़ते हुए कहेगा; "आज लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान प्रधानमंत्री ने जानकारी दी कि इस वर्ष देश में ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स का रिकार्ड उत्पादन हुआ. पिछले वर्ष की तुलना में ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स के अप्वाइंटमेंट में करीब बहत्तर प्रतिशत की वृद्धि हुई. ज्ञात हो कि पिछले वर्ष कुल दो हज़ार आठ सौ सत्ताईस जीओएम बने थे जिसकी संख्या इस वर्ष बढ़कर कुल चार हज़ार आठ सौ बावन तक पहुँच गई. प्रधानमंत्री ने देश को विश्वास दिलाया है कि जीओएम के उत्पादन में बढ़ोतरी अगले वर्ष भी बनी रहेगी."

ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स के महान सिद्धांत को पढ़कर जब बिजनेस स्कूलों और कॉलेज से छात्र निकलेंगे तो वे अपने-अपने कार्यक्षेत्र में इस सिद्धांत को लागू करेंगे. सोचिये कि अगर ये छात्र देश से बाहर काम करने चले गए तो वहाँ के लोग इस सिद्धांत से कितने प्रभावित होंगे? कोई छात्र अगर यूनाइटेड नेशंस में काम करेगा और वहाँ इस सिद्धांत की चर्चा कर डालेगा तो क्या होगा?

यूनाईटेड नेशंस वाले इतने प्रभावित हो जायेंगे कि भारत से आग्रह करते फिरेंगे. जैसे ईराक की समस्या सुलझानी है. आप अपना यह सिद्धांत अगर हमें यूज करने की अनुमति दे दें तो बड़ी कृपा होगी. या फिर अमेरिका और ईरान, या अमेरिका और नॉर्थ कोरिया के बीच जो टेंशन है उसको सुलझाने के लिए आप अगर एक ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स अप्वाइंट कर देते तो बड़ी कृपा होती. इसके एवज में आपको जो चाहिए वह मिल जाएगा. आप चाहें तो हम आपको सिक्यूरिटी काउंसिल में परमानेंट सीट देने के लिए तैयार हैं. बस एक बार आप हमारा यह काम कर दीजिये.

सोचिये कि देश के लिए कितना गर्व का क्षण होगा? अगर सारी समस्या को सुलझाने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री के पास समय न रहे तो वे जीओएम के इस सिद्धांत को विश्व को समर्पित कर देंगे. उसके बाद दुनियाँ भर के सारे देश अपने-अपने ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स बनाकर अपनी समस्याएं सुलझाते रहेंगे. देखेंगे कि पूरी दुनियाँ में रोज हजारों जीओएम बन रहे हैं और समस्याएं सुलझाती जा रही हैं. पूरी दुनियाँ रोज भारत के प्रति करीब हज़ार-बारह सौ तो धन्यवाद प्रस्ताव पारित कर दे रही है.

इस सिद्धांत का असर घर में देखने को मिलेगा. आज के हमारे प्रधानमंत्री तो उम्रदराज हैं और उनके बेटे-बेटियां तो बड़े हो गए हैं. लेकिन जरा सोचिये कि अगर 'पिलान' के मुताबिक़ सबकुछ हुआ यानि अगर श्री राहुल गाँधी प्रधानमंत्री बन गए तो क्या होगा?

राहुल जी एक नौजवान हैं. कल को उनकी शादी होगी. जब वे प्रधानमन्त्री बनेंगे तो उनके बेटे-बेटियां तो छोटे-छोटे होंगे. बेटे-बेटी सुबह पापा से प्रोमिस ले लेंगे कि आज उनके पापा कम से कम चार जीओएम अप्वाइंट करेंगे. ऐसे में अगर एक कम अप्वाईट हुआ तो क्या होगा? देखेंगे कि राहुल जी घर पहुंचे और पत्नी ने कहना शुरू कर दिया; "आपका लाडला नाराज है. कहता है खाना नहीं खायेगा."

"क्यों?"; राहुल जी पूछेंगे.

"आपने उसे प्रोमिस किया था कि आज आप चार जीओएम अप्वाइंट करेंगे और आपने केवल तीन ही किये. इसीलिए नाराज़ है;" पत्नी बोलेंगी.

वे बेटे को पुचकारते हुए कहेंगे; "बेटा आज खाना खा लो. कल सुबह जाते ही दो और अप्वाइंट कर दूंगा."

बेटा स्कूल से आते समय अगर देखेगा कि सड़क पर जाम हो रहा है तो सीधा वहीँ से फ़ोन करके कह देगा; "पापा इधर सड़क पर रोज जाम लगा रहता है. आप अगले एक घंटे में एक ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स अप्वाइंट कीजिये."

देखेंगे सड़क पर जाम रोकने के लिए एक घंटे के अन्दर एक ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स अप्वाइंट हो गया. घर में खेलते-खेलते अगर बेटा बोर हो जाएगा और पापा को फ़ोन कर देगा तो उधर से आवाज़ आएगी; "बेटा अभी डिस्टर्ब मत करो. अभी मैं जी ओ एम अप्वाइंट कर रहा हूँ. एक घंटे बाद फोरेन डेलिगेशन के साथ मीटिंग है उसके पहले मुझे तीन जीओएम अप्वाइंट करना है."

सोचिये जरा क्या-क्या सीन होगा. देखेंगे कि ...जाने दीजिये. हटाइये.

Tuesday, June 15, 2010

"एंडरसन को भगाने की जांच का काम हुआ पूरा, उसे भगाने के पीछे रतन नूरा."




उधर वारेन एंडरसन अपने घर के सामने बैठे बागवानी और घर के भीतर बैठे फ़ुटबाल वर्ल्डकप के मज़े ले रहा है और इधर हम उसके बारे में बतिया रहे हैं. कयास लगा रहे हैं कि किस माई के लाल ने उसे भोपाल से दिल्ली और दिल्ली से अमेरिका जाने दिया? जैसे वनोत्सव में पेड़ लगाये जाते हैं और सूख जाते हैं ठीक वैसे ही कयास लगाये जा रहे हैं और दूसरे ही क्षण सूख जा रहे हैं.

क्वांटिटी के हिसाब से अब तक कोई डेढ़ पौने दो टन कयास लग गए होंगे. टीवी पर उस एम्बेसेडर गाड़ी के बारम्बार दर्शन करवाए जा रहे हैं जिसमें एंडरसन भोपाल शहर से एयरपोर्ट रवाना हुए थे. इस दर्शन से पता चला कि गाड़ी स्टार्ट करने से पहले उसके ड्राइवर ने हाथ उठाकर सबकुछ टंच होने का इशारा किया था. मतलब यह कि उन क्षणों में सबकुछ बहुत मस्त था. देखकर लगा कि वह ड्राइवर बाबू एंडरसन को उस गाड़ी में बैठाए सीधा एवरेस्ट पर चढ़ने जा रहा था.

कोई चैनल एंडरसन के मुचलके की कॉपी दिखा रहा है तो कोई उन्हें संसद भवन के सामने खड़ा दिखा रहा है. कोई यह दिखा रहा है कि यूनियन कारबाइड ने अर्जुन सिंह के ट्रस्ट (अर्जुन सिंह और ट्रस्ट?) को डेढ़ लाख रुपया दान में लुटा दिया था तो कोई यह दिखा रहा है कि उसी कंपनी ने बीजेपी को भी डेढ़ लाख दिए थे. पार्टी फंड में. इनसब के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री निर्दोष घोषित हो चुके हैं. कानून मंत्री ने शपथ कर बता दिया कि तत्कालीन प्रधानमंत्री ने बाबू एंडरसन के लिए कालीन नहीं बिछवाई थी. अर्जुन सिंह चुप है. शायद उम्र की वजह से आजकल बोल नहीं पाते या फिर उन्होंने अपनी बोली का सौ प्रतिशत आरक्षण के मुद्दे पर बोलने के लिए रख छोड़ा है. जस्टिस अहमदी तो ठहरे जस्टिस. उनसे कुछ भी कहने या सुनना न्याय के विरुद्ध अन्याय होगा.

फिर कौन बचा? किसने बाबू एंडरसन को देश से बाहर जाने दिया? तमाम टीवी चैनल सवाल पूछ रहे हैं. पैनल डिशकसन करने वालों की डिमांड बढ़ गई है. मुझे इस बात का रंज है कि अभी तक एस एम एस वोटिंग नहीं हुई. कल रतन नूरा जी से तमाम बातों पर बात हो रही थी. 'फिलिम' राजनीति से जो बात उठी तो वर्ल्डकप की पगडंडियों से गुजरते हुए मानसून और गर्मी के मेड़ पर चलते-चलते एंडरसन तक पहुँच गई. अचानक रतन भाई अपना मुंह मेरे कान के पास लाते हुए बोले; "अगर वादा करो कि तुम किसी को नहीं बताओगे तो मैं एक राज की बात तुम्हें बताऊंगा."

मैंने कहा; "रतन भाई, अब राज की बात को किसी को न बताने के बारे में वादा मत करवाइए. राज की बात किसी को न बताने का वादा करना जितना सहल है, उसको निभाना उतना ही मुश्किल."

वे बोले; "अच्छा चलो, यही वादा कर डालो कि इस राज की बात सबको बता दोगे. उधर तुमने वादा किया और इधर मैंने इस राज की बात की लगाम ढीली की."

मैंने कहा; "वादा किया. उधर आपने बताया और इधर मैंने उस राज की बात को सबके सामने रखा. तीन साल पहले यही बात करते तो मेरे लिए सबको बताना थोड़ा मुश्किल रहता. लेकिन अब नहीं है. अब तो मेरा ब्लॉग भी है और वो भी हिंदी में. आज के भारत में जिसके पास हिंदी ब्लॉग है उससे बड़ा कौन है? उससे ज्यादा फालोवर किसके पास होंगे?"

मेरी बात से आश्वस्त होते हुए बोले; "तो सुनो. उस एंडरसन को भगाने का आर्डर मैंने दिया था. मैंने अर्जुन सिंह से कहकर उसके लिए गाड़ी और हवाई जहाज की व्यवस्था करवाई थी. उसके बाद दिल्ली फ़ोन करके उसे अमेरिका जाने की व्यवस्था भी मैंने ही करवाई थी."

मैंने कहा; "क्या बात कर रहे हैं, रतन भाई? आपने! आप इतने बड़े छुप-ए-रुस्तम निकलेंगे यह बात मुझे नहीं पता थी."

वे बोले; "कैसे न करवाता? उस एंडरसन ने मेरे ट्रस्ट को पांच करोड़ रूपये दिए थे. ऐसे में उसे भगाने की व्यवस्था कैसे न करवाता?"

मैंने कहा; "आपका ट्रस्ट? वो भी इतना बड़ा?"

वे बोले; "तो और क्या समझते हो? नेता ट्रस्ट करने लायक कब से हो गए? और वैसे भी उनका ट्रस्ट लाख-डेढ़ लाख लायक ही होता है. पांच करोड़ लायक ट्रस्ट तो मेरे जैसे आम आदमी का ही होगा."

अब मैंने अपने ब्लॉग पर वह राज की बात बता दी है. आशा है, शाम तक इंडिया टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज देखने को मिलेगी; "एंडरसन को भगाने की जांच का काम हुआ पूरा, उसे भगाने के पीछे रतन नूरा."

Wednesday, June 9, 2010

बेल अप्लिकेशन - एपिसोड २




गतांक से आगे...

जै माता दी की चिंघाड़ सुनकर लोग भौचक्के हो एक-दूसरे को देखने लगे. अचानक लोगों ने देखा कि हाथ में माइक और सिर पर बाल रखे हुए हिमेश रेशम्मैया जी खड़े हैं. लोगों को समझते देर नहीं लगी कि जै माता दी नामक नारा उन्होंने ही लगाया है. वे अनु मलिक से गले मिले. पता नहीं चला कि किसने किसे गले लगाया. सरोज खान के पाँव छू लिए. उसके बाद एंकर ने तीनो को बताया कि उन्हें अपनी-अपनी कुर्सी संभाल लेनी चाहिए.

तीनो जब कुर्सी पर बैठ गए तो एंकर ने कहा; "कैसा लग रहा है आप लोगों को? अनु जी यह बताएं कि ये कांसेप्ट कैसा लगा आपको? मेरा मतलब अगर आप जैसे गुनी लोग इस तरह से देश की सेवा करेंगे तो एक तरह से अच्छा ही है?"

एंकर की बात सुनकर वे बोले; "लेट मी टेल यू हुसैन कि टैलेंटेड कलाकार कुछ भी कर सकता है. अगर वह सिंगिंग कम्पीटीशन जज कर सकता है तो वह कुछ भी जज कर सकता है. आज हम यहाँ हैं तो अपने टैलेंट के बूते पर हैं और जैसा कि मैंने कहा कि टैलेंटेड कलाकार कुछ भी कर सकता है. यहाँ तक कि देश सेवा भी."

उनका जवाब सुनकर एंकर हुसैन ने जनता से ताली पिटवा दी. उसके बाद तीनों जज स्टेज की तरफ देखने लगे. वे शायद कंटेस्टेंट लोगों के दर्शन करना चाहते थे. जब उन्हें लगा कि वे लोग वहां अभी तक नहीं आये हैं तो अनु मलिक नाराज हो गए. बोले; "ये लोग अभी तक यहाँ क्यों नहीं आये? किसे इंतज़ार करवा रहे हैं ये लोग मालूम है इन्हें? आई टेल यू हुसैन दे आर प्लेयिंग विद देयर लाइव्स. अनु मलिक ने आजतक किसी का इंतज़ार नहीं किया."

उनकी बात सुनकर हुसैन नामक एंकर बोले; "बस आ जायेंगे अनु जी."

तब तक लोगों ने देखा कि पाँचों कंटेस्टेंट रूपी मुलजिम स्टेज पर आ खड़े हुए.

पाँचों लोग बहुत मज़े में खड़े हुए थे. उनके चेहरे पर ख़ुशी व्याप्त थी. पता नहीं किस बात की ख़ुशी थी? सेलेब्रिटी जजों को देखने की या फिर वे यह सोच कर खुश हो रहे थे कि यहाँ बैठे जज उन्हें रिहा करके ही मानेंगे. एंकर हुसैन ने वहां के नियम वगैरह बता दिए. पता चला कि मुलजिमों से जज लोग ही पूछताछ कर लेंगे. सवाल-जवाब वही लोग करेंगे और उसके हिसाब से फैसला सुना देंगे.

सवाल-जवाब के लिए सबसे पहले राठौर साहब को चुना गया. उन्हें चांस मिला तो वे स्टेज पर आये. आते ही अनु मलिक से बोले; "सर, मैं आपका बहुत बड़ा फैन हूँ. आपका वो गाना 'एक गरम चाय की प्याली हो उसे कोई पिलाने वाली हो' मुझे बहुत पसंद है."

उनकी बात सुनकर अनु मलिक बोले; "लेट मी टेल यू राठौर कि आप मेरे फैन हैं, इसका मतलब यह नहीं कि मैं आपको मुंबई आने का टिकेट...सॉरी सॉरी मैं आपको जमानत दे दूंगा. आई एम अ टैलेंटेड सेल्फ मेड मैन...मैं हमेशा सच्चाई का साथ देता हूँ. मैं जो सवाल करता हूँ आप केवल उसका जवाब दीजिये."

राठौर साहब को लगा था कि अनु मलिक उनसे वही गाना यानि एक गरम चाय की प्याली हो वहीँ गवा लेंगे. लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो वे मुँह लटकाए बोले; "समझ गया सर. मैं आपकी बहुत इज्जत करता हूँ. आप सवाल पूछिए मैं जवाब दूंगा."

अचानक एक फिर से हिमेश चिल्ला पड़े; "जै माता दी, लेट्स रॉक."

इतना सुनकर अदालत की कार्यवाई शुरू हो गई.

अनु मलिक ने राठौर साहब से पूछा; "हाँ तो ये बताओ राठौर कि आपके ऊपर जो आरोप हैं, उनमें कितनी सच्चाई है?"

सवाल सुनकर राठौर साहब बोले; "जरा भी सच्चाई नहीं है सर. जरा भी सच्चाई नहीं है. ये तो मेरे दुश्मनों की साजिश है. मुझे अनायास ही फंसाया जा रहा है."

"लेकिन कौन फंसा रहा है आपको?"; अनु मलिक ने दूसरा सवाल दागा.

उनका सवाल सुनकर राठौर साहब बोले; "मुझसे लोग जलते हैं सर. ये मीडिया वाले जलते हैं. सारे पत्रकार जलते हैं. मैं कहता हूँ सर कि पूरा देश जलता है मुझसे. पूरे देश ने मिलकर मेरे खिलाफ साजिश रची है."

अनु मलिक ने सवालों का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए पूछा; "लेकिन उस लड़की ने तो आपकी वजह से आत्महत्या की. आरोप है कि आपने उसे मोलेस्ट किया था."

"झूठ है सर. सरासर झूठ है. वह लड़की तो मलेरिया की वजह से मरी थी. आपको तो मालूम ही है. वह लड़की टेनिस खेलती थी. घास में मलेरिया के एक मच्छर ने उसे काट लिया जिसकी वजह से उसे मलेरिया हो गया. मैंने तो डॉक्टर से कहा था कि उसके मलेरिया से मरने का एक सर्टिफिकेट बना दो. वो बोला आप इतने बड़े पुलिस अफसर हैं. आप कह देंगे कि वह मलेरिया से मरी तो मरी"; राठौर साहब ने जवाब दिया.

"लेकिन आपने उसे स्कूल से निकलवा दिया था. और आपने उसके भाई को भी अपनी ऑथोरिटी का इस्तेमाल करके पुलिस से पिटवाया. क्या यह सब झूठ है?"; अनु मलिक ने फिर से पूछा.

"सरासर झूठ है सर. मैंने उसे स्कूल से नहीं निकलवाया. मैंने उसके भाई को पिटवाया था लेकिन वह इसलिए कि वह एक दिन ट्रैफिक सिग्नल तोड़कर भाग रहा था. मुझे जब इसका पता चला तो मुझे उसी समय वह बात याद आई जो पुलिस ट्रेनिंग में सिखाई गई थी कि अगर पॉवर पास में है तो उसका इस्तेमाल भी करना चाहिए. मैंने तो केवल पॉवर का इस्तेमाल किया सर. अब मेरी पावर की वजह से उसका भाई पिट गया तो...."; राठौर साहब बोलते जा रहे थे.

"लेकिन आपके ही डिपार्टमेंट के अफसर ने इन्क्वाइरी करने के बाद रिपोर्ट दी थी कि आप दोषी हैं"; अनु मलिक ने कहा.

"डिपार्टमेंट की बात है सर. डिपार्टमेंट में लोग तो एक-दूसरे से जलते हैं न. आप डिपार्टमेंट में नहीं थे न इसलिए आपको यह बात पता नहीं रहेगी"; राठौर साहब ने अपनी सफाई दी.

"आपको क्या लगता है? आपको जमानत मिल जायेगी?"; अनु मलिक ने उनसे ही पूछ लिया.

"सर मुझे इस देश की न्याय-व्यवस्था पर पूरा भरोसा है. और अब तो आपके ऊपर भी यकीन हो चला है. आप सच्चे इंसान हैं और मैं भी एक सच्चा इंसान हूँ. मुझे मालूम है कि आप मेरी सच्चाई की क़द्र करेंगे"; राठौर साहब ने अपनी सच्चाई का बखान कर डाला.

जब राठौर साहब से सवाल-जवाब का दौर ख़तम हुआ तो एंकर स्टेज पर आ धमका. मामले को आगे बढाते हुए उसने अनु मलिक से पूछा; "अनु जी, क्या कहना चाहेंगे आप राठौर साहब के बारे में? कैसा लगा आपको?"

अनु मलिक बोले; "मैं तो यही कहना चाहूँगा कि; 'राठौर तेरा अंदाज़ निराला है, तूने हमसब को घायल कर डाला है. गजब की तेरी मुस्कान है, तूने चश्मा भी पहन रखा काला है."

अनु मलिक की बात सुनकर सबने ताली बजाई. उसके बाद एंकर सरोज खान से मुखातिब हुआ. बोला; "मास्टर जी, क्या कहना चाहेंगी आप? कैसा लगा आपको?"

"एक्सेलेंट. आपका 'प्रफार्मेंस' बहुत बढ़िया था. आप मुझे सीधा सेवेंटीज में ले गए. फिलिम विश्वनाथ की याद ताजा कर दी आपने. आपको याद हो तो उस फिलिम में प्राण साहब थे. गोलू गवाह के क्रिदार में. उनका प्रोफेशन ही गवाही का था. और वे कितनी सफाई से झूठ बोल जाते थे कि.....आपने वह याद ताजा कर दी. यू आर माई 'सी थ्री'. इधर आइये और अपना ईनाम ले जाइए." सरोज खान ने राठौर साहब के परफार्मेंस के बारे में बताया.

राठौर साहब दौड़ के सरोज खान के पास गए. उन्होंने राठौर को १०१ रुपया ईनाम दिया. ईनाम लेकर वे कूदने लगे. तीन-चार बार हवा में पंच मारा. उसके बाद बोले; "यस...यस...यस...आई न्यू इट..."

उसके बाद बोले; "थैंक यू मैम."

इतना कहकर वे चुप हो गए लेकिन लोगों के मन में एक बात आई कि ये सी थ्री क्या है? एंकर हुसैन बोला; "मास्टर जी, ये आपका सी थ्री क्या है?"

उसकी बात सुनकर सरोज खान ने क्लेरिफिकेशन दिया. बोलीं; "सी थ्री का मतलब है चिरकुट चरित्र, चिरकुट झूठ और चिरकुट बेहयाई. जिन भी कंटेस्टेंट के पास ये तीनों होंगे, ही विल बी माय सी थ्री.."

अचानक एंकर हुसैन बोले; "और अनु जी आज हमारे बीच में हैं राठौर साहब के चाचाजी जो सीधा पानीपत से आये हैं."

उसके इतना कहते ही कैमरा घूमते हुए एक बुजुर्ग के ऊपर जाकर ठहर गया. लोगों को पता चल गया कि वही राठौर साहब के चाचाजी थे. हुसैन ने उनसे पूछा; "नमस्कार चाचाजी. कैसा लग रहा है यहाँ आकर?"

वे बोले; "राम राम जी. बहुत बढ़िया लग रहा है..... मैं सरोज खान जी का बहुत बड़ा फेन हूँ. वो जी इनका कोरियोग्राफ किया गाना था मेरा पिया घर आया ओ राम जी वो मुझे बहुत पसंद है."

उनकी बात सुनकर सरोज खान खुद से थोड़ा और प्यार करने लगीं. अभी वे कुछ कहती तभी हुसैन ने चाचाजी से सवाल किया; "अच्छा ये बताइए चाचाजी कि राठौर साहब क्या शुरू से ही ऐसे थे?"

"हाँ जी शुरू से ही ऐसा था यह तो.लड़कियों को छेड़ने के मामले में बहुत मेहनती था. जब बारहवीं में पढ़ता था तो अपने कोलेज से तीन किलोमीटर पैदल चलकर जाता था दूसरे कोलेज में लड़कियों को छेड़ने के लिए. तब हम उतने पैसे वाले नहीं थे..... बस का किराया नहीं रहता था लेकिन ये पैदल चलकर दूसरे कोलेज जाता था. बहुत स्ट्रगल किया है जी इसने लड़कियों को छेड़ने के लिए....... स्ट्रगल का असर है कि एक दिन ऐसे मोकाम पर पहुँचा जब ये चेंबर में बैठकर लड़कियों को छेड़ने लायक बना. बहुत स्ट्रगल किया है जी....."; इतना कहते-कहते चाचाजी जी की आँखों में आंसू आ गए.

उनके आंसू देखकर राठौर जी की आँखें भी भर आईं. उसके बाद हुसैन ने चाचाजी से सवाल किया; "अच्छा ये बताइए चाचाजी कि जब राठौर साहब लड़कियों को छेड़ते थे तो घर पर शिकायत नहीं आती थी?"

वे बोले; "आती थी. मेरे फादर यानि इसके दादाजी इसे डाटते थे. जब तक यह उनके पास रहता था तब तक तो सिर झुकाकर सब कुछ सुनता था लेकिन जब उनके घर से बाहर निकलता था तो यह मुस्कुराता था. इसकी मुस्कराहट से लोग और नाराज़ हो जाते थे. लेकिन इसके ऊपर....इस मामले में इसने बड़ा स्ट्रगल किया है जी.."

उनकी बात सुनकर हिमेश रेशम्मैया बोले; "बिना स्ट्रगल के कुछ होता नहीं है. मुझे ही देख लीजिये. मैंने कितन स्ट्रगल किया तब जाकर आज इस मोकाम पर पहुँचा हूँ कि इंडिया का नंबर वन सिंगर बना हूँ....सब कहते हैं सलमान भाई ने मुझे आगे बढाया लेकिन यह बकवास है. हुसैन मैं बताता हूँ...मेरे फादर अपने समय के सबसे बड़े म्यूजिक डायरेक्टर थे. लेकिन जब मेरे भाई........तब मैंने अपने फादर से प्रोमिज किया कि मैं आपका बेटा एक दिन आपके सपने पूरा करूंगा. और आज मैं यहाँ हूँ. आज मैं जो कुछ भी हूँ अपने डैड की वजह से. आई लव यू डैड.."

अनु मलिक को हिमेश की बात सुनकर जम्हाई आने लगी थी. साथ ही वहां बैठी जनता भी मुँह बाए जम्हाई ले रही थी. शायद यह इस बात का असर था कि पिछले तीन सालों में कम से तीस बार सभी हिमेश की यह कहानी सुन चुके थे.

......जारी रखा जाय?

Tuesday, June 8, 2010

बेल अप्लिकेशन




राठौर साहब की बेल अप्लिकेशन रिजेक्ट हो गई. क्या कहा आपने? अंग्रेजी के शब्द इस्तेमाल करने के लिए मेरे ब्लॉग के सामने धरना दे देंगे? अच्छा चलिए सुधार कर लेता हूँ. कल राठौर साहब की जमानत की अर्जी नामंज़ूर हो गई. अब ठीक है? थैंक यू. ठीक है, ठीक है बाबा..अरे वही, धन्यवाद.

चलिए आगे की बात करता हूँ. हाँ तो मैं कह रहा था कि राठौर साहब की जमानत अर्जी खारिज हो गई. कभी-कभी खारिज भी हो जाती है. जब देश की अदालतों में कुछ बड़े लोगों की जमानत की अर्जी खारिज होती है तो उसे न्याय व्यवस्था में क्रांति कहते हैं. ऐसी घटनाओं की वजह से जनता का विश्वास न्याय व्यवस्था में पुनः स्थापित हो जाता है और वह दाल-रोटी खाओ अदालत के गुन गाओ नामक गाना गुनगुनाने लगते हैं.

वैसे मेरा मानना है कि ऐसे बड़े लोगों की जमानत की अर्जी खारिज करना एक तरह से स्ट्रेटेजिक जुडिशियरी मैनेजमेंट का नमूना है और जुडिशियरी की इमेज बिल्डिंग एक्सरसाइज का हिस्सा है. एक और मजे की बात. जब इस तरह के फैसले आते हैं और अपराधी के वकील से सवाल किया जाता है तो उसका उत्तर होता है; "मैंने अभी तक फैसला पूरी तरह से पढ़ा नहीं है. बिना पढ़े कमेन्ट करना संभव नहीं है."

दूसरी तरफ अपराधी कहता है ; "मुझे देश की न्याय-व्यवस्था में पूरा विश्वास है"; इतना कहकर वह कैमरे के सामने मुस्कुरा देता है. उसकी बेशर्मी देखकर कैमरा खुद शरमा लेता है. अपने देश की न्याय-व्यवस्था पर सबसे ज्यादा विश्वास अपराधियों को ही है.

खैर, राठौर जी की अर्जी के रिजेक्ट होने की बात चल रही थी. अब राठौर जी क्या करेंगे? किसी और अदालत में जायेंगे? वहां जायेंगे तो क्या होगा? मैं सोच रहा था तो मुझे लगा कि अगर सिंगल जज बेंच ने उनकी अर्जी नामंज़ूर कर दी है तो उन्हें किसी बड़ी बेंच के सामने अपनी अर्जी ठेल देनी चाहिए. फिर ख़याल आया कि हमारी अदालतें मुकदमों से लबालब भरी पड़ी हैं. मतलब मुकदमों की बाढ़ का पानी हमेशा खतरे के निशान से ऊपर बहता रहता है. ऐसे में तुरत-फुरत में बड़ी बेंच तो क्या मचिया भी नहीं मिलेगी जिसके सामने वे अपनी जमानत की अर्जी रख सकें.

तो फिर क्या हो सकता है?

मैं इस पर सोच ही रहा था कि मुझे देश की नई संस्कृति की पैदाइश रियलटी शो के जजों की याद आई. मुझे लगा कि क्यों न राठौर साहब जमानत की अपनी अर्जी इन रियलटी शो के जजों की अदालत में ठेल दें. भाई बुराई क्या है? ये भी तो जज ही हैं. वो जज नहीं तो ये जज. रियल्टी शो में जज लोग जिस तरह से कंटेस्टेंट को आंकते हैं, उस तरह से तो अदालतों के जज भी नहीं आंक सकेंगे.

पिछले तीन-चार साल में जिस तरह से फिल्म इंडस्ट्री के तमाम चिरकुट जजबाजी में उतरे हैं अगर उस रफ़्तार से न्याय प्रणाली में जजों की नियुक्ति होती तो तमाम मुक़दमे निबट गए होते. मेरा मतलब है जिस तरह से प्लान बनाकर फिल्म और टेलीविजन वाले चल रहे हैं उससे लग रहा है जैसे वे साल २०१५ तक इस देश में आठ करोड़ सिंगर और नौ करोड़ डांसर्स पैदा करके मानेंगे. लगता है जैसे यह प्लान कलाम साहब के ट्वेंटी-ट्वेंटी अजेंडा का एक हिस्सा है.

लेकिन अगर ऐसा हो गया, मेरा मतलब अगर राठौर साहब ने अपना बेल अप्लिकेशन इन जजों की कोर्ट में दाखिल किया तो कैसा सीन होगा? शायद कुछ ऐसा;

देश में फैले राठौर साहब के तमाम फैन्स, जो उन्हें अपना हीरो मानते हैं, उनलोगों ने राठौर साहब से सामूहिक आह्वान करते हुए लिखा; "आप हमारे आयडल हैं. हमने तमाम ट्रिक्स ऑफ़ द ट्रेड आपसे ही सीखें हैं. चूंकि आप हमारे आयडल हैं इसलिए हम चाहते हैं कि आप अपना केस इंडियन आयडल के जज अनु मलिक की अदालत में पेश करें. हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि वे आपकी जमानत की अर्जी मंज़ूर कर लेंगे."

यह सामूहिक आह्वान पढ़कर राठौर साहब भाव विह्वल हो गए. जिस तरह से नेता अपने चमचों के आह्वान और नारे सुनकर खुश होता है उसी तरह से राठौर साहब खुश हो गए. अपने फैन्स को मान देते हुए उन्होंने अपनी अर्जी अनु मलिक की अदालत में पेश कर दी. अर्जी देखते हुए अनु मलिक बोले; "मुझे अकेले जज-गीरी करने की आदत नहीं है. मैं जबतक अपने अगल-बगल बैठे जजों से डिफर न हो लूँ, मेरा खाना नहीं पचता. दूसरी बात यह भी है कि अगर और जज न रहेंगे तो मैं अपने बनाए गाने सुनाकर किसे बोर करूंगा? मैं चाहूँगा कि कम से कम दो और जजों की नियुक्ति हो."

बहुत छान-बीन करके दो और जज खड़ाकर के तीन जजों की एक बेंच तैयार कर दी गई. इस बेंच में अनु मलिक के अलावा सरोज खान और हिमेश रेशम्मैया को रखा गया. जब बेंच तैयार हो गई तो वह उसने बताया कि उन्हें सिंगल कंटेस्टेंट कोर्ट की आदत नहीं है इसलिए वे चाहेंगे कि राठौर के साथ कम से कम चार और कंटेस्टेंट आयें जिन्हें जमानत की या उसी तरह के किसी चीज की ज़रुरत है. अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर बेंच कोर्ट में नहीं बैठेगी.

उनकी इस डिमांड पर राठौर साहब ने और लोगों की खोज शुरू की. ज्यादा खोज-बीन की ज़रुरत नहीं पड़ी. उन्हें दिल्ली में ही सज्जन कुमार मिल गए. सज्जन कुमार के ऊपर उनकी सज्जनता की वजह से तमाम धाराएं बह रही हैं. आये दिन उनके ऊपर वारंट इश्यू होता रहता है. राठौर साहब ने जब सज्जन कुमार को बताया कि अनु मलिक की अध्यक्षता वाली बेंच उनके लिए कुछ कर सकती है तो वे तुरंत तैयार हो गए. सज्जन कुमार के अलावा छत्रधर महतो, विकास यादव और अब्दुल करीम तेलगी भी अपना मुकदमा इस तीन जजों की बेंच के सामने रखने पर राजी हो गए.

वह दिन आया जब सुनवाई होनी थी. तीनो जज एक-एक करके अदालत में आये. अदालत तो क्या थी, किसी रियलटी शो का मंच था. मंच पर एनाउंसर था. पंद्रह सौ रूपये वाले बिग-बाजारीय सूट में घुसा हुआ. हाथ में माइक. अचानक उसने दहाड़ना शुरू किया; "जिस दिन का इंतज़ार था, आज वह दिन आ गया. जी हाँ दोस्तों आज तीन जजों की इस अदालत में पाँच महान लोगों के मामलों की सुनवाई होगी. चलिए सबसे पहले स्वागत करते हैं अपने पहले जज का हू इज नन अदर देन द
डैशिंग एंड लैशिंग अनु मलिक. लेडिज एंड जेंटिलमैन, गिव अ बिग राऊंड ऑफ़ अप्लाज तो अनु मलिक."

अनु मलिक स्टेज पर अवतरित हुए. बैकग्राऊंड म्यूजिक के साथ उनका गाना बज रहा था, 'ऐसा पहली बार हुआ है सतरा-अठरा सालों में..' अपने गाने के सामने वे बड़े गर्व के साथ खड़े हो गए. मुख पर कुछ इस तरह की संतुष्टि जैसे मन ही मन कह रहे हों; "पंचम दा, ऐसा गाना बनाकर दिखाओ तो जानें. अरे हम असली म्यूजिक बनाते हैं असली...." अचानक उन्होंने गाना शुरू कर दिया; "ऊंची है बिल्डिंग, लिफ्ट तेरी बंद है.."

एंकर ने कहा; "अनु जी, आपको मुक़दमे की सुनवाई करनी है. म्यूजिक कांटेस्ट जज नहीं करना है."

उसकी बात सुनकर अनु मलिक बोले; "बॉस, अनु मलिक इज अ सेल्फ मेड मैं. मजाक नहीं है. टैलेंट है तो दिखाएँगे नहीं?"

एंकर की समझ में नहीं आया कि वह क्या बोले. अभी उसने कोई जवाब सोचने का काम शुरू ही किया था कि अचानक बैकग्राऊंड से म्यूजिक शुरू हो गया. साथ में गाने का झरना फूट पड़ा; "एक दो तीन, चार पाँच छ सात आठ नौ..."

एंट्री हुई सरोज खान की. सौ-सौ के करीब पंद्रह नोटों से लैस सरोज खान न्यू सलवार-सूट में ठुंसी हुई स्टेज पर आई. 'एक दो तीन चार पांच छ सात आठ नौ...' गाने पर सरोज खान ने चार-पांच एनर्जेटिक ठुमके लगाए. देखकर लगा जैसे फिल्म प्रोड्यूसर्स को कन्विंस करना चाहती हों कि 'मैं अभी भी डांस डायरेक्शन कर सकती हूँ.'

दर्शकों ने अभी इन दो जजों की करतूत झेलना शुरू ही किया था कि अचानक स्टेज पर एक धड़ाका हुआ और कोई बड़े जोर से चिल्लाया; 'जय माता दी'.

..........जारी रहेगा.