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Thursday, April 30, 2009

ऐसे में यह बालर तो सस्ता साबित हुआ.......




क्रिकेट है तो देश है. देश है तो नेता है. नेता हैं तो उद्योगपति है. उद्योगपति है तो नेतागीरी है. नेतागीरी है तो चमचागीरी है. चमचागीरी है तो नेता हैं. और नेता हैं तो क्रिकेट है.

लीजिये वृत्त पूरा हुआ और हम वहीँ पहुँच गए, जहाँ से चले थे.

फालतू में भूगोल-विदों ने पृथ्वी को गोल साबित करने के लिए तरह-तरह के प्रयोग किये. मैं तो कहता हूँ क्रिकेट से शुरू करते नेता, चमचा वगैरह से होते आगे चले जाते तो क्रिकेट पर पहुँच जाते. साबित कर देते कि पृथ्वी गोल है.
लेकिन शायद उनदिनों क्रिकेट ऐसा नहीं था.

अब ऐसा हो गया है.

वैसे यह बात तो बहुत दिनों पहले की है. दस साल पहले की बात ही ले लीजिये. उनदिनों क्रिकेट में पैसा होता था. अब स्थिति बदल गई है. अब पैसे में क्रिकेट है. अब सच बात तो यह है कि कवि ने; "सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है" नामक महान 'काव्य एक लाइना' पहले न लिखा होता तो हम ताल ठोंक कर कह देते कि उन्होंने आज के क्रिकेट को देखकर ही प्रेरणा ली कि वे ऐसी लाइन गढ़ सकें.

पैसे में क्रिकेट समा गया है. बहुत मज़ा आ रहा है. आज ही अखबार में पढ़ रहा था कि इंग्लैंड के खिलाड़ी श्री एंड्र्यू फ्लिंटाफ ने आई पी एल में खेलते हुए तीन विकेट लिए. लिए क्या कमेंटेटर की भाषा में कहें तो झटक लिए. झटक के चल दिए.

इस साल के आई पी एल में अब और नहीं खेलेंगे. तीन विकेट लेकर ही घायल हो गए. जब चले गए तब हिसाब लगाया गया. पता चला उन्होंने जो तीन विकेट लिए उसपर विजय माल्या जी का करीब ढाई करोड़ रुपया खर्च हो गया. तिरासी लाख रुपया प्रति विकेट.

सुनकर लगा जैसे इस फीस में से अगर बैट्समैन को कुछ किकबैक देने के लिए तैयार हो जाते तो बैट्समैन बेचारा बिना खेले ही अपना विकेट दे देता. न रन-अप पर दौड़ने का झमेला रहता न ही ताकत लगाकर गेंद फेंकनी पड़ती.

अब आप यह तो नहिये पूछिए कि माल्या जी कौन ठहरे? आपने अगर यह पूछ लिया तो याद रखिये ममता दी को कहकर आपके घर के सामने धरना करवा दूंगा.

खैर, वापस आते हैं माल्या जी पर. माल्या जी कुछ महीने पहले ही अड़ गए थे. नरेश गोयल जी के साथ मिलकर सरकार से लड़ गए थे. बोले; "हमारे पास पैसे नहीं हैं. अगर सरकार ने हमें बिना ब्याज वाला लोन नहीं दिया तो हम अपनी एयरलाइन्स बंद कर देंगे."

सरकारी सहारे पर या फिर मंदी पर कोई विज्ञापन तो बनता नहीं. बनता होता तो कोई लिख डालता कि;

ये बेचारा मंदी का मारा
इसे चाहिए सरकारी सहारा

अब हमदर्द का सिंकारा नहीं होता. अब हमदर्द का सहारा होता है. माल्या जी को दर्द हुआ. ऐसे में उनके हमदर्द निकले हमारे नागरिक उड्डयन मंत्री. दर्द से पीड़ित इन मंत्री जी ने माल्या जी के लिए खुलकर बैटिंग की. प्रेस कांफ्रेंस में चौकों-छक्कों की झड़ी लगा दी.

तमाम लोगों ने ताली बजाई. बोले; "क्या खेलते हैं. वाह!"

जिनके पास पैसा नहीं होता वे तीन विकेट के लिए केवल ढाई करोड़ देते हैं. पैसा रहता तो न जाने क्या दे देते. शायद पचास करोड़ दे देते. बैटिंग करके बनाये गए रनों का हिसाब अलग से होता. उसके पैसे श्री एंड्र्यू फ्लिंटाफ को अलग से मिलते.

क्रिकेट को चलनेवाले नहीं बदलते तो कोई बात नहीं, क्रिकेट तो बदल ही गया है. टेस्ट मैच होता था. वन डे होने लगा. उससे भी बोर हो लिए तो ट्वेंटी-ट्वेंटी खेलवा डाला. इससे बोर होंगे तो क्या करेंगे? वो अगले तीन-चार साल में पता चल जाएगा.

विद्वान टाइप लोग बता रहे हैं कि मंदी की मारी अर्थव्यवस्था में पैसे की कमी हो गई है. उधर विद्वान बता रहे हैं कि पैसे की कमी है और इधर अज्ञानी टाइप लोग पूछ रहे हैं कहाँ है कमी? क्रिकेट खिलाड़ियों को इतना पैसा मिल रहा है.

अरे अज्ञानियों, यह समझो कि पैसे की कमी है तब इतना पैसा मिल रहा है. नहीं तो एक-एक खिलाड़ी को एक विकेट लेने के लिए कम से कम चालीस करोड़ मिलते.

शाहरुख़ खान परेशान हैं. उन्होंने भी एक-एक विकेट के लिए कितना पैसा खर्चा किया है. पैसा खर्चा हो गया लेकिन टीम नहीं जीत पा रही है. दो मैच तक तो बोले कि; "हम स्पोर्ट्समैन स्पिरिट वाले लोग हैं." तीसरे मैच तक स्पिरिट में कमी हो गई. चौथे तक स्पोर्ट्स जाता रहा. टीम हारती रही.

अब तो खान साहब दक्षिण अफ्रीका से भारत चले आये हैं. आते-आते बोले; "अब तो तभी आऊंगा जब टीम जीतेगी."

हाय रे. इतने अमीर आदमी की टीम नहीं जीत पा रही. इतना पैसा खर्चा किया इन्होने. इसके बावजूद टीम नहीं जीत पा रही.

मेरे एक मित्र एक मैच के दूसरे दिन बोले; "कल देखा युवराज सिंह ने दो रन पर आउट होकर क्या किया?"

मैंने कहा; "नहीं तो. क्या किया उन्होंने?"

वे बोले; "आउट होते ही अपनी टीम के मालकिन का चेहरा देखने लगा. शायद देखने की कोशिश कर रहा था कि मालकिन कितनी नाराज़ है."

सही बात है. इस क्रिकेट में कोच का चेहरा ज्यादा मायने नहीं रखता. मालिक-मालकिन का चेहरा मायने रखता है. फोटोजेनिक चेहरा है न. हमेशा फोटोजेनिक चेहरे ही मायने रखते हैं.

अजीब क्रिकेट है यह ट्वेंटी-ट्वेंटी. तमाम नए तरीके इस्तेमाल होते हैं. अलग तरह का विश्लेषण होता है. स्ट्रेटजी ब्रेक होता है. मैदान में खेल रहे खिलाड़ी से कमेंटेटर भाई लोग डायरेक्ट बात कर लेते हैं. "कैसा फील कर रहे हो?"

उधर से आवाज़ आती है; "हवा चल रही है. हम ऐसा खेल रहे हैं. फील्डिंग साइड वैसा खेल रही है."

अरे प्रभु. आप कैसा खेल रहे हैं वो तो हम देख ही रहे हैं. मुंह से नहीं बताएँगे तो हमें पता नहीं चलेगा क्या?

आने वाले दिनों में नए-नए तरीके और जुडेंगे. जन टूर्नामेंट पूरा हो जाएगा तो हर खिलाड़ी की बैलेंसशीट बनेगी. देखेंगे इस बात पर बहस हो रही है कि फलाने बालर ने पॉँच विकेट तो लिए लेकिन इस पांच विकेट को अगर उनके फीस से डिवाइड करें तो देखेंगे कि प्रति विकेट एक करोड़ का खर्च आया.

कोई विद्वान यह बात भी बीच में ला पटकेगा कि इन पांच विकेट में से दो विकेट ऐसे थे जिन बैट्समैन को फीस के तौर पर दो-दो करोड़ मिले थे. बाकी के तीन को अस्सी-अस्सी लाख मिले थे. मतलब यह कि इन्होने जिन पांच बैट्समैन को आउट किया उनकी टोटल फीस चार करोड़ चालीस लाख थी.

ऐसे में यह बालर तो सस्ता साबित हुआ.......

Tuesday, April 28, 2009

परीक्षा लेने वाले देवता और कैल्कुलेटिव मनुष्य




परीक्षा देना और लेना, दोनों बहुत महत्वपूर्ण काम है. परीक्षा के लेन-देन का यह कार्यक्रम तब से चला आ रहा है, जब देवता लोग मनुष्य को दूर बैठे देख पाते थे. ऊपर बैठे देवता मनुष्यों को देखते रहते और जब इच्छा होती परीक्षा ले डालते.

तमाम पुरानी धार्मिक कथाओं में भी यही वर्णित है. कोई मनुष्य जब सुख के सागर में कई सालों तक गोते लगा लेता तो आसमान में बैठे देवतागण इस मनुष्य के ऊपर शंका करने लगते. सोचते कि; ' क्या बात है? ये आजकल पूजा वगैरह कम करता है. हमें याद ही नहीं रखता. ये सुख पाकर अँधा तो नहीं हो गया?'

बस देवतागण परीक्षा लेना शुरू कर देते.

परीक्षा के पहले चरण में इस मनुष्य को थोड़ा और समय दिया जाता. यह सोचते हुए कि; 'थोड़े दिनों के लिए इसे बेनेफिट ऑफ़ डाऊट दे देते हैं. हो सकता है कि ये सुधर जाए.'

लेकिन जब मनुष्य सुखसागर में गोते लगाना जारी रखता और बेनेफिट ऑफ़ डाऊट देते-देते देवतागण बोर हो जाते तो टेस्ट चेंज करने के लिए इस मनुष्य की परीक्षा ले डालते. उसे दुःख-कष्ट, बीमारी, महामारी, खुमारी वगैरह से गुजारते.

अगर देवताओं का सताया हुआ यह मनुष्य देवताओं की शरण में चला जाता, उन्हें याद कर लेता, उन्हें पूज लेता तो देवतागण प्रसन्न हो जाते. कई बार तो प्रसन्नता इतनी बढ़ जाती कि इस मनुष्य का कष्ट वगैरह तो दूर करते ही, उसे ऊपर से और बहुत कुछ दे देते. कई बार तो जितना नुकशान हुआ रहता उससे चार गुना ज्यादा तक दे डालते.

पुष्पवर्षा करते सो अलग.

कुल मिलाकर बड़ी सॉलिड पटकथा रहती. मनुष्य की परीक्षा भी हो जाती और नीति-कथा वगैरह का भी निर्माण हो जाता.

कई केसेज में तो परीक्षा देने वाले मनुष्य को जब देवता बहुत सताते तो उसे बचाने के लिए उस मनुष्य की पत्नी सामने आती. देवताओं की पूजा वगैरह करती. देवताओं से क्षमा दान का आग्रह करती. कई बार १२, १६, या अट्ठारह शुक्रवार ब्रत रखती. तब कहीं जाकर देवता जी लोगों का ह्रदय पिघलता और वे उस मनुष्य को क्षमा करते.

कई बार तो देवता जी लोग इस मनुष्य या इसकी पत्नी के सामने ही प्रकट हो लेते. हाथ की हथेली से आशीर्वाद ठेलते हुए, प्रसन्न मुख देवता या देवी आकर राज खोलते कि; "पुत्री हम तुम्हारी परीक्षा ले रहे थे. तुम्हारी भक्ति देखकर हम प्रसन्न हुए. कहो, तुमको क्या वरदान चाहिए?"

देवी-देवताओं की यह बात सुनकर 'पुत्री' प्रसन्न हो जाती. अगर वह इन देवी-देवताओं से वह कुछ नहीं मांगती तो इनलोगों की प्रसन्नता और बढ़ जाती. तब तो मजाल है कि ये लोग उस 'पुत्री' को बिना कुछ दिए वहां से हिल जाएँ. ना.

अब ऐसी कथाएँ सामने नहीं आतीं. पता नहीं क्या कारण है? आजकल मनुष्य सुखसागर में गोते तो क्या, और न जाने क्या-क्या लगता रहता है लेकिन मजाल कि देवतागण वैसी परीक्षा ले लें जैसी पुराने जमाने में लेते थे.

शायद इसीलिए लोग अक्सर कहते पाए जाते हैं कि; "ज़माना पहले जैसा नहीं रहा अब."

एक मित्र से बात चली. वे बोले; "असल में देखा जाय तो नीतिकथाओं का उद्भव और विकास पूरी तरह से बहुत पहले ही हो चुका है. अब इस क्षेत्र में ज्यादा कुछ स्कोप नहीं है.

पता नहीं ऐसा उन्होंने क्यों कहा? अगर उनकी बात मान ली जाय तो क्या देवतागण परीक्षा-वरीक्षा इसलिए लिया करते थे ताकि कथाएँ लिखी जा सकें?

मुझे लगा घोर नास्तिक आदमी है जो ऐसा बोल रहा है.

मैंने उनसे पूछा; "यार, क्या तुम नास्तिक हो लिए?"

वे बोले; "नहीं ऐसी बात नहीं है. मैं तो ऐसा केवल इसलिए कह रहा हूँ कि आजकल देवता कष्ट वगैरह दें, उससे पहले ही मनुष्य चौकन्ना हो गया है. वो देवताओं को कष्ट देने ही नहीं देता."

मैंने पूछा; "मतलब?"

वे बोले; "देख नहीं रहे, आजकल मनुष्य ने देवताओं का आशीर्वाद वगैरह पहले से ही न जाने कितने कवच, कंठी, माला, रुद्राक्ष वगैरह में कैद कर लिया है. कोई देवता बचा नहीं है जिसका कवच वगैरह न मिलता हो. टीवी पर नहीं देखा क्या?"

मैंने कहा; "हाँ वो बात तो है. लेकिन फिर भी देवतागण देखते तो होंगे ही सबको."

वे बोले; "वे देखेंगे तो देखें. वैसे भी मनुष्य आजकल बहुत कल्कुलेटिव हो लिया है. वो सोचता है कि भाई तैंतीस करोड़ हमारे और बाकी के धर्मों के पचीस-पचास हज़ार ले लो. कुल मिलाकर तैंतीस करोड़ पचास हज़ार. अब तैंतीस करोड़ पचास हज़ार देवता छ सौ साठ करोड़ मनुष्यों पर कितनी नज़र रखेंगे? पर देवता बीस मनुष्य.....

Monday, April 27, 2009

हजारों साल.....एक माइक्रो पोस्ट




पिछले करीब दो महीने से जब भी कुछ दोस्तों के साथ राजनीति की बात होती है तो यह शेर हमेशा याद आ जाता है;

हजारों साल 'नर्गिस' अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा

Sunday, April 26, 2009

जोरा-जामा





पण्डित शिवकुमार मिश्र को याद नहीं तो आत्मप्रचार खुदै करना होगा। आज से उनतीस साल पहले यह पारम्परिक जोरा-जामा-मुकुट पहन कर रीता के साथ मैं विवाह सूत्र में बंधा।

उस समय के हिसाब से भी मैं बड़ा कंजरवेटिव था। अन्यथा इस जोकरई पोशाक को उस समय भी स्वीकार नहीं करते थे युवा लड़के!

GyanRitaMarriage1   


Saturday, April 25, 2009

सर्टिफिकेटधारी शिक्षित




परीक्षा के दिन है. परीक्षाएं हो रही हैं. नेताओं की परीक्षा का मौसम तो है ही, साथ-साथ विद्यार्थियों की परीक्षाएं भी हो रही हैं. परीक्षाएं होनी भी चाहिए. परीक्षा न हो तो विद्यार्थी पास कैसे होगा? कभी-कभी लगता है जैसे परीक्षा लेने का आईडिया ज़रूर विद्यार्थियों ने ही दिया होगा. आखिर विद्यार्थी को पास जो होना है. और पास होने के लिए परीक्षा से बढ़िया कोई चीज नहीं. ज्ञान हो या न हो, परीक्षा ज़रूर होनी चाहिए नहीं तो विद्यार्थी पास नहीं हो सकेगा.

शायद कभी किसी जमाने में विद्यार्थियों के प्रतिनिधिमंडल ने ही परीक्षा लेने पर जोर लगाया होगा.

टीवी पर खबर देख रहा था. नेशनल ओपन स्कूल के एक परीक्षा रूम का सीन दिखाया जा रहा था. संवाददाता यह दिखाने की कोशिश कर रहा था कि परीक्षार्थियों की जगह कोई दूसरे लोग परीक्षार्थी बने बैठे हैं. केवल बैठे ही नहीं हैं, उत्तर पुस्तिकाएं लिख डाल रहे हैं.

संदीप का एडमिट कार्ड हाथ में दबोचे परमीत पेपर लिख रहे हैं. संदीप बाबू शायद आज बिजी होंगे. हो सकता है किसी मल्टीप्लेक्स में बैठे कोई मूवी देख रहे होंगे. इसीलिए नहीं आ पाए होंगे. नहीं आ पाए तो परमीत को भेज दिया. हिदायत देते हुए कि; "आज मेरी परीक्षा है. मैं तो आज बिजी रहूँगा, तुम मेरी जगह परीक्षा देकर आ जाओ."

परमीत से संवाददाता ने पूछा; "एडमिट कार्ड आपका है?"

लीजिये. भाई देख रहा है कि एडमिट कार्ड में जो फोटी चिपकी है, उस फोटो का चेहरा किसी भी एंगल से उत्तर पुस्तिका रंगने वाले लड़के से मेल नहीं खा रहा. लेकिन वो तो संवाददाता है. उसे तो अपने संवाददाता धर्म का पालन करना है.

उसे तो अदालत की तरह से पेश आना है.

संवाददाता जी का सवाल सुनकर शोले फिल्म का डायलाग; "तुम्हारा नाम क्या है बसन्ती याद आ गया."

परमीत जी भी शायद टीवी कैमरे के सामने आने से खुश हैं. बड़े आराम से बता रहे हैं; "नहीं ये एडमिट कार्ड मेरा नहीं है."

उसकी बात सुनकर मेरे मन में आया कि बड़ा ईमानदार लड़का है. आखिर वो तो यह भी कह सकता था कि; "ये तो जी मेरा ही एडमिट कार्ड है."

साथ ही यह कहकर अड़ जाता कि "साबित कीजिये कि मेरा एडमिट कार्ड नहीं है."

ठीक कसाब जी की तरह जो अब इस बात पर अड़े हैं कि; "साबित कीजिये कि मैंने ही मुंबई में हमला किया था."

लेकिन नहीं जी. हमारे देश के बच्चे ऐसे नहीं हैं. वे ईमानदार हैं. वे ईमानदारी से सबकुछ कुबूल कर लेते हैं.

खैर, संवाददाता जी ने और भी लोगों को दिखाया जो किसी और को पास करवा कर ज्ञानी बनाने का महान कर्म अपने कंधों पर लिए बैठे थे.

एक और लड़के को दिखाया गया. वो भी किसी दूसरे का एडमिट कार्ड लिए उत्तर पुस्तिका पेंटिंग में लीन था. उसे देखकर मन में आया कि दोस्त को पास कराने आया होगा. साथ ही इस बात पर भी मन प्रसन्न हो गया कि आज के जमाने में भी एक दोस्त दूसरे दोस्त के काम आता है. कौन कहता है कि दुनियाँ भले लोगों से महरूम होती जा रही है.

मुझे लगा कि परमार्थ के कार्य में लीन यह लड़का सामने होता तो इसे प्रणाम कर लेते.

लेकिन दूसरे ही क्षण इस लड़के की दोस्ती को मज़बूत करने वाली छवि दो टुकड़े हो गई. संवाददाता जब उससे पूछा कि; "आप अपने दोस्त के लिए पेपर लिखने आये हैं?" तो उसने जवाब में बताया कि; "नहीं. जिसका एडमिट कार्ड है वो मेरा दोस्त नहीं है. मैं तो इसलिए आया था कि मुझे पेपर लिखने के १७५ रूपये मिलेंगे."

लीजिये. रूपये की बात करके इस लड़के ने मेरा विश्वास ही तोड़ दिया. कहाँ मैं सपना देखने लगा था कि दुनियाँ अभी भी बहुत अच्छी है और कहाँ यह नालायक पैसा लेकर पेपर लिख रहा है? लानत है.

एक परीक्षार्थी तो दस कदम आगे थे. वो जिसका एडमिट कार्ड लिए बैठा था, वो किसी लड़की का था.

समझ में नहीं आता कि एडमिट कार्ड किस लिए है? एडमिट कार्ड पर फोटो क्यों चिपकाई जाती है? क्या एडमिट कार्ड यह देखने के लिए नहीं बनते कि परीक्षा रूम में परीक्षार्थी के अलावा और कोई न आ सके?

या फिर एडमिट कार्ड इसलिए बनाया जाता है ताकि साबित किया जा सके कि परीक्षार्थी के रूप में जो लड़का बैठा है वह असल में परीक्षार्थी नहीं है. एक बार यह साबित हो जाए तो टीवी न्यूज़ बनाई जा सके.

हद तो तब हो गई जब एक बुआ जी अपनी भतीजी के एडमिट कार्ड के साथ बरामद हुई. बुआ जी दिल्ली से पधारी थी बुलंदशहर ताकि भतीजी को पढ़ा-लिखा साबित कर सकें.

शायद उन्होंने जिस लड़के से भतीजी के शादी की बात चलाई होगी वो लड़का केवल बारहवीं पास लड़की से शादी करने पर अड़ा होगा. बुआ जी बुआ-धर्म का पालन कर रही थीं और टीवी वाले इतने पापी कि वे बुआ जी के धरम-पालन कार्य में विघ्न डाल रहे हैं.

ठीक वैसे ही जैसे राक्षस लोग ऋषि-मुनियों के यज्ञ में विघ्न डालते थे.

एक तरफ तो शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए नेशनल ओपन स्कूल है दूसरी तरफ ये टीवी वाले हैं जो शिक्षा के प्रसार में टांग अडा रहे हैं. यह तो ठीक बात नहीं लगी मुझे. अरे भाई, शिक्षित होने का अधिकार सबको है. बिना सर्टीफिकेट के किसी को शिक्षित नहीं माना जाता. ऐसे में विद्यार्थियों को परीक्षा पास करके सर्टिफिकेट तो लेने दीजिये. बिना सर्टिफिकेट के वे अशिक्षित कहलायेंगे.

नेशनल ओपन स्कूल इस कार्य में इतना महत्वपूर्ण कदम उठा रहा है और आप हैं कि उसे ऐसा करने से रोक रहे हैं. आप तो उन्हें सहयोग करें जिससे देश में शिक्षा का प्रसार हो सके.

Thursday, April 23, 2009

आम आदमी तो पापी साबित हो जायेगा




आजकल विदेशी बैंकों में अपने देश के वीरों द्बारा रखा गया कालाधन बहुत चर्चा में है. और हो भी क्या सकता है? विदेशी बैंक डूब गए. ऐसे में विदेशी बैंकों में रखे काले धन की ही चर्चा कर डालो. हम चर्चाकार लोग हैं. हमें तो कोई कुछ पकड़ा दे, हम चर्चा कर डालते हैं. 'करके डाल देते हैं.'

अनुमान पर अनुमान लग रहे हैं. कोई कहता पचहत्तर लाख करोड़ रुपया जमा है. कोई कहता है," केवल पचहत्तर लाख करोड़? पता है कि नहीं? पिछले पॉँच साल में ही सात लाख करोड़ जमा हुए हैं. नया-पुराना हिसाब लगाने से कम से कम एक सौ दस लाख करोड़ रुपया होगा."

कितने तो बोलते-बोलते कन्फ्यूजिया जा रहे हैं. पचहत्तर लाख करोड़....कुछ ज्यादा नहीं हो गया? शायद पचहत्तर हज़ार करोड़ होगा....नहीं-नहीं रुकिए बताता हूँ. ऊँगली पर फिर से गणना शुरू हो गई....इकाई.. दहाई... सैकडा..हज़ार.. दस हज़ार..लाख...नहीं नहीं ठीक है. पचहत्तर लाख करोड़ ही है.

लिखते समय लग रहा है कि कुछ गड़बड़-सड़बड़ तो नहीं लिखा जा रहा है?

आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ तो इस बात पर मशगूल हैं कि कितना पैसा आएगा. कहाँ-कहाँ जायेगा. लेकिन कुछ लोग हैं जो इस बात का अनुमान लगा रहे हैं कि इतना पैसा है किसका? नेताओं का? उद्योगपतियों का? अफसरों का?

हम भी यही अनुमान लगा रहे हैं.

कल एक टीवी कार्यक्रम पर एक नेता जी को बोलते देखा. वे बता रहे थे; "देखिये हम सभी राजनीतिक दल के लोग इस बात पर तो राजी ही हैं कि यह कालाधन देश में वापस आ जाए."

उनकी बात सुनकर आश्वस्त हो लिया कि भाई जिनके ऊपर शक किया जा रहा है कि पैसा उनका है, उनमें से एक वर्ग तो चाहता ही है कि पैसा देश में आ जाये. मतलब इस वर्ग का पैसा तो नहिये होगा. अब उद्योगपति और अफसर बचे. उन्हें भी मौका मिले तो वे भी यह बोलकर फारिग हो लें कि वे भी चाहते हैं कि यह कालाधन देश में वापस आ जाए. मतलब यह धन उनका भी नहीं है.

फिर किसका है? शायद देश की आम जनता का हो.

कोई कह रहा है कि शासन में आते ही वे सौ दिन के भित्तर पूरा कालाधन अपने देश में ला पटकेंगे. ठीक वैसे ही जैसे गाँव-देश में लोग गर्मी के दिनों में खांची या बोरे में भूसा ढोते हैं. खलिहान में भरा और दुआरे लाकर पटक दिया. भूसे का अम्बार लग जाता है.

ठीक वैसे ही देश में भूसा सॉरी कला धन का पहाड़ खड़ा हो जायेगा.

अब इतनी बड़ी मात्रा में कालाधन लाने की बात होगी तो तमाम विशेषज्ञ और आर्थिक मामलों के जानकार, एनालिस्ट वगैरह पेन और कल्कुलेटर लेकर बैठेंगे ही. बस, भाई लोग बैठ गए हैं. कोई कह रहा है कि पूरा काला धन आ जायेगा तो भारत की गरीबी दूर हो जायेगी. देश में कोई गरीब रहेगा ही नहीं.

बहुत डराते हैं ये एनालिस्ट लोग. भाई, डरने की तो बात ही है. अब ऐसी बातों से न जाने कितने साहित्यकार, लेखक, ब्लॉगर वगैरह परेशान हैं. ये लोग इसलिए परेशान हैं कि कहीं ऐसा हो गया तो वे निबंध, किस्से, कहानी, पोस्ट वगैरह किसके ऊपर लिखेंगे? जब कोई गरीब ही नहीं रहेगा तो लेखक बेचारा तो मारा गया न. अमीर भी कोई लिखने की चीज है? वो तो अमीर है. उसके पास पैसा है. वो तो खुद ही लेखक बन सकता है.

पैसेवाला भगवान बन सकता है, लेखक तो कुछ भी नहीं.

राजनीतिज्ञ भी परेशान हैं. सोचकर हलकान हुए जा रहे हैं कि जब कोई गरीब रहेगा ही नहीं तो वे लडेंगे किसके लिए? किसके लिए आरक्षण वगैरह को लेकर मारामारी करेंगे? सामाजिक न्याय तो नैनो की बैकसीट पर चला जायेगा. संसद में काम होने लगेगा. संसद रोकने का एक उपाय तो निकल जायेगा हाथ से.

इन राजनीतिज्ञों का यह जनम तो व्यर्थ चला जायेगा. पुराने नेता टाइप लोग इसलिए भी परेशान हैं कि उनके बेटा-बेटी अब क्या करेंगे? इन नेताओं ने अपने बेटे-बेटियों को राजनीति का पाठ पढ़ाकर तैयार किया कि वे लोग गरीबों की लड़ाई लडेंगे. और समय की मार देखिये (या फिर काले धन की मार?) कि देश से गरीब ही गायब हो जायेगा.

मंदी के इस दौर में ऐसे लोग तो बेरोजगार हो जायेंगे. मतलब बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच जायेगी. नेता बेरोजगार हो जाए तो समाज में अपराध बढ़ने का चांस और बढ़ जायेगा.

एक स्टॉक ब्रोकर से बात चली. वे बोले; "मज़ा आ जायेगा. सोचिये कि मार्केट में कितना पैसा आ जायेगा. अंधाधुंध खरीदारी होगी. सेंसेक्स पचास हज़ार पहुँच जायेगा."

एक बार के लिए लगा कि ये इतने उत्तेजित हो गए हैं. कहीं यह न कह दें कि सेंसेक्स पचास हज़ार करोड़ पहुँच जायेगा.

सब अपने-अपने स्तर पर खुश नज़र आ रहे हैं. मैं भी अपने स्तर पर खुश हूँ.

मेरे एक मित्र से बात हो रही थी. वे बोले; "जानते हो, अगर पूरा कालाधन आ गया तो हर परिवार को तीन-तीन लाख बांटने पर भी धन ख़त्म नहीं होगा."

उनकी बात सुनकर मैंने तो कह दिया कि; "भैया, मैं तो अपने तीन लाख में से एक लाख का फिक्स्ड डिपॉजिट करूंगा और बाकी जो बचेगा उससे घर के लिए सोफा और एक नैनो गाड़ी खरीदूंगा."

मेरी बात सुनकर हंसने लगे. बोले; "जब देश में इतना पैसा आ ही जायेगा तो तुम्हें फिक्स्ड डिपॉजिट पर ब्याज कौन देगा? एक्कौ परसेंट ब्याज नहीं मिलेगा."

लीजिये, प्लान फेल. पैसा भी क्या-क्या करवाता है. न रहे मुसीबत. ज्यादा रहे तो और मुसीबत. मैंने मन मारकर कहा; "ठीक है. तब खर्चा कर डालेंगे."

वे बोले; "खर्चा कर डालोगे तो फिर पैसा वहीँ चला जायेगा जहाँ से आया था."

लीजिये. मुसीबत ही मुसीबत. हमें क्या मालूम था कि हमारे खर्चने की वजह से ही इतना कालाधन तैयार हो रहा है. मतलब आम आदमी खर्चा करने गया नहीं कि कालाधन बनना शुरू हो जायेगा.

अब तो शायद ऐसा भी दिन देखने को मिले जब नीति-निर्धारण करने वाले काले धन की उत्पत्ति के लिए आम आदमी को दोषी ठहरा सकते हैं. आम आदमी तो पापी साबित हो जायेगा.

Wednesday, April 22, 2009

हमरे बाबू ही देश का सबसे बढ़िया प्रधानमंत्री साबित होंगे




चुनाव के मौसम में लगता है रतीराम जी का लेख ही छापना पड़ेगा. इतना सारा लेख छापने के बाद लग रहा है कि चुनाव तक अपने ब्लॉग पर रतीराम जी का ही डंका बजने दें. तो लीजिये उनका लिखा हुआ एक अउर लेख बांचिये. आज मामला प्रधानमंत्रित्व का है.

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चुनाव का मौसम सबको पागल कर देता है.

आज बेटा बोला; "बाबू, आपसे एगो काम था."

हम सोचे इसका अइसा कौन काम जो हम कर सकते हैं. सोचते-सोचते पूछ लिए; "ससुर, तोहरा भी कोई काम है जो हम कर सकते हैं? आज सूरज पच्छू से उग गया है का?"

बात सुनकर हंसने लगा. बोला; "आपका ही इंटेरेस्ट का काम है."

हम बोले; "तुम हमरा इंटेरेस्ट का बारे में कब से सोचने लगा? आ, सोचता ही होता त कक्षा सात में दू साल से फेल नहीं होता."

ऊ बोला; "हमको शंका का निगाह से हमेशा ही देखते हैं आप. काहे नहीं विशबास रखते कि हम भी कुछ कर सकते हैं. ऊ भी आपका खातिर. आपका इंटेरेस्ट का बास्ते."

हारकर आखिर पूछना पड़ा कि काम का है?

ऊ बोला; "बाबू, ऊ राम बरन उकील का रिश्तेदरवा है न...अरे ओही जो जो सीसीटीवी न्यूज़ चैनल में काम करता है."

हम बोले; "ऊ महेशवा?"

बेटा बोला; "हाँ हाँ..ओही."

हम बोले; "ऊ से तोहरा का काम पड़ गया?"

बेटा बोला; " बाबू उसको कहिये न कि एक बार हमरा इंटरव्यू ले ले."

हम बोले; "तुम्हरा इंटरव्यू! तुम का बोलेगा रे?"

बेटा बोला; " हम देश को बताएँगे कि हमरे बाबू ही देश के लिए सबसे बढ़िया प्रधानमंत्री साबित हो सकते हैं."

एक बार सुनकर लगा कि पागल त नहीं हो गया. ओइसे भी कलकत्ता में चार-पांच दिन से एतना गरमी पड़ रहा है कि पब्लिक सब का पागल होने का चांस बढ़ गया है. बिजली ऊपर से रोजे गायब रहती है.

फिर भी हम बोले; "लेकिन ई बात तोरे दिमाग में काहे आया रे?"

बेटा बोला; "काहे नहीं आएगा? राहुल का सिस्टर प्रियंका कहती है कि उसका ब्रदर प्रधानमंत्री बनने लायक है. पवार का डाटर कहती हैं कि ओनका डैड में प्रधानमंत्री बनने का सारा गुन है. अब त मनमोहन सिंह जी का मिसेज आ डाटर भी कह रहा है कि सिंह साहब ही देश के सबसे बढ़िया प्रधानमंत्री साबित होंगे.....हम सोचे हमहू कह दें कि हमरे बाबू ही देश के सबसे अच्छे प्रधानमंत्री साबित होंगे."

सुनकर लगा कि दू तमाचा गिफ्ट कर दें. पढाई-लिखाई में मन नहीं लग रहा है बाकी पालिटिक्स में ज़रूर लगता है. फिर भी गुस्सा संभाल लिए.

हम बोले; "लेकिन हम त लोकसभा के लिए खड़े भी नहीं हुए हैं. तेरा इंटरव्यू देखकर पब्लिक सब हंसेगा कि नहीं?"

ऊ बोला; "त मनमोहन सिंह जी भी लोकसभा के लिए कब खड़े हो गए? अउर फिर, आपको का लगता है, ई राहुल का सिस्टर अउर सिंह जी का डाटर सब का बात सुनकर पब्लिक रो रहा है? ओनका बात सुनकर भी पब्लिक हँसिये रहा है. हमरा बात सुनकर भी हँसेगा."

बुझाया नहीं कि बोलें का? आपको कुछ बुझाया हो त आपे कुछ कहिये.

Monday, April 20, 2009

हमरा ताकत लेकर नेतवा सब ताकतवर हो जायेगा.




फ़िल्मी दुनियाँ वाले वोटरों को बता रहे हैं कि वोट बहुत ताकतवर होता है, इसलिए वोट दीजिये. इस बात पर रतीराम जी का कहना है कि; "ससुर, जब भोट में ताकत होता ही है त हम अपना भोट नेतवा सब को काहे दें? हमरा ताकत लेकर नेतवा सब ताकतवर हो जायेगा."

बात चली तो बोले; "निकाल दिए हैं मन का भड़ास कागज़ पर. चाहिए त ले जाइये. छाप दीजियेगा."

हम उनका लेख लेकर आये हैं. छाप रहे हैं. आप बांचिये.

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ई फिलिम वाला सब आत्मविश्वास से लबालब भरा रहता है. तरह-तरह का आत्मविश्वास का मारा हुआ. किसी का चिरकुटई से भरा फिलिम हिट होकर इतिहास क्रिएट कर देता है त उसका आत्मविश्वास औरउ बढ़ जाता है. ऊ सोचता है कि ऊ जो भी बोलेगा, जनता सुनेगी. कुछ भी उगलेगा त जनता उहे मानेगी.

कोई कोई हीरोइन त टीवी कैमरा पर इहे बोल कर पांच मिनट तक हंसती है कि; "आय ऍम अ बिग फूडी..."

हम कहते हैं कि तुम्हरे पास पइसा है. तुम फूडी बनो आ चाहे जो. ईमे हंसने का है कुछ? लेकिन नाही. उनका अपना आत्मविश्वास पर बहुत कांफिडेंस है. ऊ त इहे बोलकर हँसेगी. जानती है न कि टीवी देखने वाला न जाने केतना लोग ई बात को अपना डायरी में नोट करने के बास्ते मारा जा रहा है.

एगो आमिर खान हैं. कहते हैं; "भोट दो. भोट बड़ा ताकतवर होता है."

भइया हमें त मालूम ही नहीं था. आप बताये त हमें पता चला कि भोट बहुत ताकतवर होता है. आखिर ताकतवर नहीं होता त ई नेतवा सब हमारा ताकत के पीछे काहे पड़ता. सोचता होगा कि भोटरवा सब का ताकत हथिया लो. खुद ताकतवर बन जाओ.

आमिर खान त ई सब बात बता ही रहे थे. अब करन जौहर भी आठ-दस लोगन का लेकर कह रहे हैं कि भोट दो. भोट दो.
बता रहा है लोग कि; "भ्रष्टाचार, आतंकवाद, जुलुम बगैरह एही वास्ते फैला कि हम भोट नहीं देते."

लो सुन ल्यो बात. पिछला साठ साल से हम अउर का दे रहे है. साल-दू साल में भोट देते हैं अउर हर साल टैक्स. भोट अउर टैक्स देने के अलावा बाकी हम कुछ देने लायक नहीं है. बेटा-बेटी को सलेट-पेंसिल दें चाहे नहीं, बाकी नेतवा सब को भोट अउर सरकार के टैक्स ज़रूर देते हैं."

अउर फिर भोट देकर आतंकवाद रुक जायेगा? भ्रष्टाचार रुक जायेगा? ससुर तुम्हरी समझ का घास चरने गई है? ई नेतवा सब भोट पाकर ही त मस्त है. तुम कहते हो अउर भोट दो. कोई इनसे काहे नहीं पूछता कि भोट देने से आतंकवाद कईसे ख़तम हो जायेगा? भ्रष्टाचार कईसे ख़तम हो जायेगा?

जिनको ई सब ख़तम करना है ऊ लोग भोट लेकर ही त वहां पहुंचा है जहाँ जाकर ई सब चीज को कंट्रोल किया जाता है. काहे नहीं कंट्रोल करता सब?

अउर तुम आ गए हो ई बताने कि भोट दो.

अरे तुम अगर इतना ही जागरूक करना चाहते हो जनता सब को त पाहिले अपना ही नगरी का उन चिरकुटों को काहे नहीं जागरूक करते जो पॉँच-दस लाख लेकर किसी का भी चुनाव प्रचार करने चला जाता है. मंच पर खडा होकर ठुमका लगाता है. गाना गाता है.

ससुर एक तरफ तुम लोग बता रहे हो कि भोट में ताकत होता है. दूसरा तरफ तुम्हारा ही फिलिम नगरी का न जाने केतना चिरकुट सब पइसा लेकर चुनाव प्रचार करता है. एक तरफ त तुम जनता को ताकतवर बता रहा है दूसरा तरफ तुम्हारा ही भाई बंधू लोग एही जनता को बेवकूफ समझता है. इतना बेवकूफ समझता है कि नाच-गाना करके उनका भोट न जाने कईसा-कईसा कंडीडेटवा सब को दिलाने पर आमादा है.

किसको ठीक माने? तुमको आ फिर उनलोगों को जो ठुमका लगाते हुए पईसा कमा रहा है? पहिले हमरे सवाल का जबाब दो, फिर हमको भोट देने को कहो.

Thursday, April 16, 2009

हम पुरस्कार से हैं कि पुरस्कार हमसे है?




सरकार ने धोनी को सूचित किया. बोली; "तुम तो पद्मश्री हो."

धोनी बोले; "हमें मालूम है. तुम हमें क्या बताओगी?"

सरकार बोली; "सॉरी. हमें लगा कि आपको बता दें."

धोनी जी बोले; "हमें हनुमान समझने की भूल न करो. हम क्या-क्या हैं, हमें मालूम है."

सरकार बोली; "तो अपना पुरस्कार लेने आ जाओ."

धोनी जी बोले; "तुम हमें सम्मान के लायक समझ रही हो. लेकिन हम बदले की भावना से काम करने वालों में से नहीं हैं. हम तुम्हें सम्मान के लायक नहीं समझते."

सरकार बोली; "यह कोई नई बात नहीं है. हमें वैसे भी सम्मान के लायक तो कोई नहीं समझता. हमारा सम्मान मत कीजिये लेकिन पुरस्कार का तो सम्मान कीजिये."

धोनी जी बोले; "ऐसे पुरस्कारों को हम सम्मान नहीं बल्कि सामान समझते हैं. वैसे भी ये पद्मश्री आई पी एल से बड़ा है क्या?"

सरकार बोली; "अरे, बड़ा तो है ही."

धोनी बोले; "काहे का बड़ा है? पुरस्कार देश में दिया जायेगा और आई पी एल विदेश में होगा. ऐसे में कौन बड़ा?"

सरकार बोली; "अरे पद्मश्री सबको नहीं मिलता."

धोनी बोले; "क्यों? सचिन को तो मिला हुआ है."

सरकार बोली; " इसीलिए तो सचिन ने आकर बाकायदा राष्ट्रपति से अपना पुरस्कार लिया था."

धोनी बोले; "सचिन को आई पी एल में हमसे कम पैसे भी तो मिले थे. ऐसे में वे पुरस्कार तो लेंगे ही."

सरकार बोली; "सचिन भी तो महान खिलाड़ी है. अगर वे पुरस्कार लेने आये तो आप क्यों नहीं?"

धोनी बोले; "काहे के महान? आज मेरे पास ज्यादा विज्ञापन हैं कि सचिन के पास?"

सरकार बोली; "पता नहीं."

धोनी बोले; "जब पता नहीं तो बहस काहे करती हो? ट्रेड रेकॉर्ड्स देखो. उसके बाद बात करो."

सरकार बोली; "ये पुरस्कार...."

धोनी बोले; "अरे क्या पुरस्कार पुरस्कार की रट लगाये जा रही हो? हम पुरस्कार से हैं कि पुरस्कार हमसे है?"

धोनी जी इतना कहकर दक्षिण अफ्रीका चले गए.

पुरस्कार धोनी जी का पंथ देखते-देखते सोच रहा है; "फालतू में गले पड़ने गए? न जाने कितने लेखक, कलाकार, अपना काम ईमानदारी से करते-करते इस दुनियाँ से चले गए. मेरी तरफ ताकते रहते थे. इस अभिलाषा के साथ कि मैं उन्हें मिल जाता तो उनका जीवन सफल हो जाता....... "

Tuesday, April 14, 2009

नवपदार्पण करने वाली कलियाँ और टिप्पणी रुपी भ्रमर




रोज चिट्ठाजगत से मेल मिलता है. किसी दिन २५ तो किसी दिन १९ नए चिट्ठे रजिस्टर होते हैं. लिखा रहता है;

"इन्द्रजाल में नवपदार्पण करने वाली इन कलियों का टिप्पणी रूपी भ्रमरों द्वारा स्वागत करें!"

पूरी लाइन पढ़कर लगता है जैसे अति कोमल ह्रदय के ओनर किसी कवि ने रात में खूब तेल खर्च करके इस लाइन को गढा है. कुल मिलाकर घणी गाढ़ी लाइन है.

नवपदार्पण करने वाली कलियाँ! टिप्पणी रुपी भ्रमर. आहा!

लेकिन एक बात है. कवि ने किसी अलग तरह के अलंकार का सदुपयोग कर डाला है. अब देखिये न. टिप्पणी हुई स्त्रीलिंग. भ्रमर जी हुए पुल्लिंग. ऐसे में टिप्पणी रुपी भ्रमर!

ठीक वैसे ही, चिट्ठा हुआ पुल्लिंग. कलियाँ हुई स्त्रीलिंग.

शायद ये ब्लॉग अलंकार है.

काव्य प्रेमी लोगों से भरा है अपना ब्लॉग-जगत. मामला काव्यात्मक न रहता तो थोडा अटपटा लगता.

काव्य रचने को प्रोत्साहित करने वाले नॉर्मल बगीचे में नवपदार्पण करने वाली कलियाँ भ्रमरों को देखकर ज्यादातर विदक जाती हैं. ये कहते हुए तन जाती हैं कि; "मुवों, तुम्हें और कोई काम नहीं है? हम कलियों ने पदार्पण किया नहीं कि चले आये मंडराने? तुम्हारे मन में हमेशा खोट रहता है."

लेकिन चिट्ठा-बाग़ में ऐसा नहीं हो सकता. इस केस में ऐसा होने का चांस नहीं हैं. यहाँ तो नवपदार्पण करने वाली कलियाँ भ्रमरों का इंतज़ार करती रहती हैं. जैसे कह रही हों;

आजा रे..मैं तो कब से खड़ी...ये अँखियाँ थक गई पंथ निहार...आजा रे.

भ्रमर आ जायें तो ठीक. न आयें तो बड़ी मुश्किल. काहे नहीं आये आज? शायद भटक गए होंगे.

नवपदार्पण करने वाली जिस कली का टिप्पणी रुपी भ्रमरों ने स्वागत नहीं किया वे अपने पास वाली कली से पूछती होगी; " सखी, आज तुम्हारा स्वागत किसी भ्रमर ने किया कि नहीं?... क्या कहा?... तीन भ्रमरों ने तुम्हारा स्वागत किया! हमारा तो स्वागत किसी ने किया ही नहीं."

टिप्पणी रुपी भ्रमरों के स्वागत करने से खुश हुई कली बोलेगी; " सखी, हम ठहरे काव्य-कली. इन भ्रमरों को हमें स्वागत करने में आराम रहता है न. स्वागत गान बनता है काव्य से कॉपी की हुई चार लाइन और बधाई नामक शब्द को जोड़कर. इसीलिए तीन भ्रमर हमारे सामने स्वागत गान गाकर गए हैं."

भ्रमर भी कैसे-कैसे. आड़े-तिरछे मंडराते हुए. भिनभिनाते हुए. तीस्ता नदी से चंचल.

इनके ये गुण भ्रमरों से जाने क्या-क्या करवाते हैं. देखेंगे भ्रमर चले नवपदार्पण करने वाली कलियों की बाग़ की तरफ. पहुँच गए कहीं और. पुराने बगीचे में. वहां पहले से ही डेरा जमाये धूल समेटे फूलों को निहार हर्ष की गंगा में गोते लगा रहे हैं.

ऐसा भी हो सकता है कि तीन-चार भ्रमरों का एक झुंड नवपदार्पण कलियों के चिट्ठा-बाग़ की तरफ उड़ा. देखा सामने से एक भ्रमर वापसी का टिकट टेंट में दबाये चला आ रहा है. इस झुंड को देखकर पूछेगा; " कहाँ जा रहे हो?"

ये बोलेंगे; "नवपदार्पण करने वाली कलियों का स्वागत करने."

वापसी करने वाला भ्रमर बोलेगा; " उस तरफ मत जाओ. आज इन नवपदार्पण कलियों में काव्य-कली है ही नहीं."

बस. इतना काफी है भ्रमरों के इस झुंड के लिए. झुंड में से एक भ्रमर बोलेगे;" जब नवपदार्पण कलियों में काव्य-कली है ही नहीं तो कौन वहां जाकर इधर-उधर उड़े? खाली-पीली दो-चार मिनट मंडराएंगे और फिर वहां से बिना स्वागत किये ही एक-दो-तीन."

पुरायट टाइप भ्रमरों को ट्राइड एंड टेस्टेड टाइप फूल ज्यादा भाते होंगे. ऐसे फूलों को देखकर भ्रमर बोर भी होंगे लेकिन आदत पुरानी हो गई है. कुछ नया देखना ही नहीं चाहते. कहते हैं; "हमें तो पता है. जिस फूल पर बैठेंगे उसका रंग क्या है? उसका गंध कैसा है? हम तो उसी पर बैठेंगे."

काहे उन्ही पर बैठोगे? नया देखने की इच्छा नहीं होती? गेंदा के फूल का कितना दिन स्वागत करते रहोगे? इतनी सारी कलियाँ चिट्ठा-बाग़ में अवतरित हो रही हैं. उनपर मंडराओ. उन्हें फूल बनाओ. तरह-तरह के रंग लिए, तरह-तरह का गंध लिए इन नवपदार्पण करने वाली कलियों का स्वागत करो.

Sunday, April 12, 2009

अब त अपना खुद का एगो ब्लॉग बनाना पड़ेगा....




पिछली पोस्ट जिसमें मैंने रतीराम जी का लेख प्रकाशित किया था, को पढ़ने के बाद कुछ ब्लॉगर साथियों ने डिमांड राखी कि रतीराम जी के और लेख पढ़वाए जाएँ. आज जाकर उनकी दूकान से लेख ले आये. चुनावी भाषणों में नेता जी लोगों की भाषा पर उन्होंने कुछ लिखा है.

आप बांचिये.

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नया कारोबारी साल शुरू हो गया. तमाम झमेला है. ख़तम होने का बखत भी झमेला. शुरू होने का बखत भी झमेला. हम कहते हैं कि ज़रुरत का है पुराना ख़तम करके नया शुरू करने का? कारपोरेशन वाला सब ट्रेड लाइसेंस री-न्यू करने के लिए माथा पर सवार है. अब हम अपना बिजनेस देखें कि कारपोरेशन जाकर ई काउंटर से ऊ काउंटर दौडें. कभी क्लर्के नहीं आता है त कभी कैशियर. एगो ट्रेड लाइसेंस रि-न्यू करने के लिए चार दिन जाना पड़ेगा.

पान लगाना और ग्राहक को खिलाना, लगता है एही काम करते-करते जिनगी बीत जायेगा. ग्राहक भी अईसे-अईसे कि बलिहारी जाऊं. लोग बोलता है सब कि रतीराम बहुत चूना लगाता है. कोई नहीं देखता कि खाता चलाने वाला ग्राहक सब जब-तब चूना लगाकर निकल लेता है.

एगो निंदक जी हैं, चार महीना हो गया हिसाब नहीं करते. ससुर पान का बीड़ा मुंह में दबाकर देश को सुधारने का बीड़ा जब-तब उठाये रहते हैं. इनके लगता है कि इनका भाषन देने से देश सुधर जायेगा. हम कहते हैं; "अरे पहिले खुद तो सुधरो. देश अपने आपे सुधर जायेगा."

बाकी इनका अन्दर आजतक सुधार का कौनो गुन्जाईस रत्ती भर नहीं लौका. जब-तब भाषन देता रहता है. कहता है देश का राजनीति से करप्शन हटा कर छोड़ेगा. खुद एतना करप्ट है कि मोहल्ला में कौनो दूकानदार बचा नहीं है जिसका उधार नहीं है इसका ऊपर. बड़ा-बड़ा बात करने का हो त देखिये फिर. थोडियो बहाना मिला नहीं इसको कि मोहल्ला बंद. चक्का जाम. दूकान बंद.

अऊर कुछ नहीं त चाट्ठो गुंडा लेकर सड़के जाम कर देता है. खुद को समाजसेवी बताता है ससुर. हम पूछते हैं, ई का है? अईसे ही देश सुधरेगा?

कल कह रहा था; "वरुनवा बड़ा खराब काम कर दिया. नौजवान नेता होकर इस तरह का भाषण नहीं देना चाहिए था उसको."

अब इनके कौन समझाए कि; "तुम कभी अपना भाषा के बारे में सोचा है? किस-किस तरह का भाषा उगलता रहता है, कभी विचार किया है इसके बारे में? जिसको-तिसको गाली-फक्कड़ देता रहता है और वरुनवा का विनाजी बतियाता है."

ओइसे देखा जाय तो वरुनवा भी कम नहीं निकला. हम पूछते हैं का ज़रुरत था अईसन भाषन देने का? अभी त राजनीति में इंटर किये हो तुम. पहिले कुछ सीखो. पुराना लोग को देखो. सीनियर लोग का भाषण सुनो. प्राइवेट में त ओइसे ही न जाने का का करते होगे? कम से कम पब्लिक में खड़ा होकर अईसा बात मत बोलो. देश का नेता बनो. न खाली हिन्दू-मुस्लिम का नेता बनोगे? सत्ता में नहीं हो तब त ई हाल है, सत्ता में बैठ जाओगे त न जाने का कर दोगे?

मूंग-दलक यन्त्र
अऊर ई भी सोचने का ज़रुरत है कि तुम कुछ बोल दिए त बकिया भी शुरू हो जायेगा सब. और हुआ भी त ओही. हमरे लालू जी शुरू हो गए. कह रहे थे; "गृहमंत्री होते त वरुण गांधी के छाती पर रोलर चलवा देते."

हम पूछते हैं; " रेलगाड़ी चलवाने का अईसा आदत पड़ गया है कि जो तो चलवा देंगे? और फिर रोलर ही त चलवा सकते हैं. और का कर सकते हैं? देश में मूंग त जाने कब से ख़तम होई गवा है. पहिले के लोग छाती पर मूंग दलते थे. अब खाने-पीने का चीज का ई हाल है कि मूंग त का, मटर भी नहीं मिलता. "

सोचे होंगे कुछ दलवा नहीं सकते त कुछ चलवा ही दें.

देखकर लगता है कि लालू जी भी का से का हो गए हैं? हम कहते हैं; कौनो जिम्मेदारी है कि नहीं? रोलर चलवा देंगे? अईसन सोच ही रखते हैं त काहे कानून का दोहाई देते हैं? आप ही फैसला कर लेंगे? आप ही रोलर चलवा देंगे? न्यायपालिका को पालिका बाज़ार से जादा नहीं समझते का? नेता हैं त जो चाहेंगे बोल देंगे?

बाकी देखा जाय त एही हो रहा है. नेता लोग न जाने का-का बोलकर निकल जा रहा है सब. एगो भाईको जी हैं. ओनका भारत के तमिल लोगों का ओतना चिंता नहीं है जेतना परभाकरण जी का चिंता है. ऊ भी कह रहे थे कि अगर परभाकरण जी को कुछ हुआ त तमिलनाडु में खून का नदी बह जायेगा.

हम कहते हैं; का भईया? कावेरी नदी का पानी तमिलनाडु तक कम ही पहुँचता है त इसका का एही समाधान है कि तमिलनाडु में खून का नदी बहा दो?

आज तुम अईसा बोल रहे हो. कल को कोई आसाम से खड़ा हो जायेगा. बोलेगा उल्फा के नेता सब को कुछ हुआ त असाम में खून का नदी बह जायेगा. ओइसे ही ब्रह्मपुत्र हर साले न जाने का-का बहा ले जाती है. खून का नदी बहना शुरू हो जायेगी त पूरा असमे बह जायेगा.

ई नेतवा सब को देश का पईसा बहाकर संतोख नहीं मिलता जो खून-वून का नदी बहाने के लिए धमकाता रहता है. चुनाव में एतना-एतना खर्चा कर देता है लोग. पता नहीं कहाँ से पईसवा आता है? सुने हैं इनकम टैक्स डिपार्टमेंट आम मनई का हर चीज का जानकारी रखता है. अब त ई बात टीवी पर बताकर जब-तब डराते भी रहता है. समझ में नहीं आता कि आम आदमी का हर जानकारी है तुम्हरे पास. और ख़ास आदमी का जानकारी नहीं है?

कहीं अईसा त नहीं कि आम आदमी का इनकम छोटा है बोलकर जानकारी रखने में सुबिस्ता है. खास आदमी का इनकम बड़ा है त जानकारी रखना कठिन हो जाता है.

और सारा जानकारी का खाली इनकम टैक्सवे को है? ऊ चुनाव आयोग के पास भी जानकारी-ओनकारी है कि नहीं? ठाकरे जी का ही बात ले लो. अरे ओही आमची मुम्बई वाले. उत्तर भारतीय सब को खदेड़ने वाले. हम पूछते हैं उनका बात का जानकारी काहे नहीं रखते हो?

बहुत लबेदर आदमी है. बताईये प्रधानमंत्री को इतना खराब बात कह दिया.

समाचार चैनलवा वाला सब देखा रहा है. बाकी जब ठाकरे का बोला हुआ शब्दवा आता है त एक ठो न जाने पी से बजा देता है. हम पूछते हैं काहे भाई? का ज़रुरत है अईसा करने का? जब एक मनई बोल ही दिया है त तुम्हरे पी बजाने से भाषन बदल जायेगा का? भोटरवा सब को सुनने दो कि उनका नेतवा सब कैसा-कैसा बात करता है?

याद आता है त बड़ा खराब लगता है आज का नेता सब का बात सुनकर. पहिले बाबूजी कहा करते थे कि शास्त्री जी केतना नीक भाषन देते थे. बाजपेई जी केतना बढ़िया बोलते थे. इंदिरा जी बढ़िया बोलती थीं. इतना बड़ा-बड़ा लीडर सब था. अऊर ई टुटपुजिया सब को देखो. ससुर हम त जानते हैं कि कुछ करने के लायक नहीं हो. अईसे में बातचीत त ढंग का करो. लेकिन नहीं. उहे बात है कि एक त करेला आ दुसरे नीम चढा.

का कहें? केतना कहें? ई त ओइसे ही है कि हरि अनंत, हरि कथा अनंता....

अई हो मईया. एतना लिखा गया? हम भी का-का करते रहते हैं. रात के नींद नहीं आ रहा त इहे लिख दिए. बाकी ई सब करने का फायदा का? आजकल त मिसिर बाबा भी हमरा लेख नहीं मांगते अपना ब्लॉग पर छापने के लिए. खाली सिंगुर पर लिखा एक पोस्ट छापकर चुप हो गए. लगता है इन्सीक्योर फील करता होगा मनई. पानवाला कहीं लेखक न बन जाए, एही बास्ते आजकल लेख नहीं मांगता.

अब त अपना खुद का एगो ब्लॉग बनाना पड़ेगा.

Saturday, April 11, 2009

औउर बहुत सा सीन दिखाई दे सकता है....का का लिखें?




बहुत दिन बाद कल रतीराम जी की दूकान पर गया था. पान खाने. आफिस जिस दिन बंद रहता है, उस दिन पान खाने के अलावा काम ही क्या है? छुट्टी वाले दिन पान खाने में सुभीता रहता है. फ़ोन-वोन ज्यादा नहीं आते लिहाजा पान का मज़ा पूरा मिलता है. एक बार मुंह में पान घुसा नहीं कि मौज ही मौज. फ़ोन नहीं आता तो पीक थूकने की जल्दी भी नहीं रहती.

खैर, रतीराम जी से बातचीत शुरू हुई. मैंने पूछा; "कैसा चल रहा है धंधा?"

वे बोले; "ई भी कोई पूछने का बात है? पान का धंधा ससुर अमेरिका के ऊपर थोड़े न निर्भर करता है. हमें कौन सा पान लगाकर एक्सपोर्ट करना है? हमरा कस्टमर तो ईहै रहता है."

मैंने कहा; "मतलब धंधा मस्त चल रहा है."

वे बोले; "इलेक्शन का मौसम में पब्लिक का स्टेटस बढ़ गया है. ई मौसम में लोकतंत्र उसी के हाथ में रहता है. बाकी सब त पब्लिक का नौकर चाकर हो जाता है लोग. अब पब्लिक मस्त है त हमरा धंधा भी मस्त है. ओईसे नेता लोग आजकल भाषण जादा दे रहा है त ऊ लोग पान कम खा रहा है. लेकिन नेता लोग का रस-विहीन भाषण पब्लिक झेल नहीं पा रही है त उसका कन्जम्पशन बढ़ गया है. ऐसे में बैलेंस बना हुआ है. बैलेंस बना का हुआ है, धंधा बढ़ गया है. पब्लिक जादा खा रही है त भाल्यूम का गेम काम कर रहा है."

मैंने कहा; "ये बढ़िया बात है. वाल्यूम गेम ही बिजनेस का असली आईडिया है."

वे बोले; "ठीक बूझे. ओइसे आप बताईये? सुना ब्लागिंग से रूठ गए थे?"

मैंने कहा; "नहीं ऐसी बात नहीं थी. असल में कुछ लिखने का मन नहीं कर रहा था. लेकिन ऐसा होता है."

वे बोले; " अरे त हमको बता दिए होते. हमी कुछ लिख देते. याद नहीं है? सिंगुर वाला हमरा पोस्ट केतना हिट हुआ था?"

मैंने कहा; "याद है रतीराम जी. लेकिन सच कहें तो हमें आपकी लिखी उस पोस्ट की वजह से आप से जलन होने लगी थी. इसीलिए मैंने आपकी लिखी हुई पोस्ट फिर पब्लिश नहीं की."

वे बोले; "बताईये, एक पानवाला का लेखन से एतना जलन है आपको त ब्लॉग-लेखकों से न जाने केतना जलते होंगे?"

मैंने कहा; "देखिये जलना तो बहुत आदमी का बेसिक कैरेक्टर होता है. वैसे आप कहते है तो दीजिये कुछ, मैं छाप दूंगा."

उन्होंने फट से पैसा रखने वाला ड्रार से तीन-चार पन्ने निकाले. बोले; "कौन सब्जेक्ट पर लेख दें आपको? कम से कम तीन सब्जेक्ट पर हाल ही में लिखे हैं. ई देखिये, ई वाला नेता लोगों का भाषा पर लिखे है.... ई वाला क्रिकेट पर लिखे है...औउर ई वाला देखिये, ई वाला जूता-काण्ड पर लिखे है. "

मैंने कहा; "कोई भी दे दीजिये. आप ने लिखा है तो बढ़िया ही लिखा होगा."

वे बोले; "त फिर जूता-काण्ड पर लेख ले जाइये."

मित्रों, उन्होंने हाल ही में हुए जूता-काण्ड पर मुझे लेख थमा दिया. मैं पब्लिश कर रहा हूँ. आप भी पढिये.

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आदमी का तकदीर ऊपर-नीचे होता रहता है. अईसा न जाने कौन बखत से होता आया है. लेकिन जूता का तकदीर? ई नहीं पता था कि जूता का तकदीर उसका ब्रांड पर निर्भर करता है. न जाने केतना बार बेटा को जूता फ़ेंक कर मारे होंगे. लेकिन मजाल है कि उसका अन्दर कोई चेंज आया हो. पिछला साल सातवीं में फेल हुआ था तब जूता फेंक कर मारे थे. लेकिन कोई असर नहीं हुआ. इस साल भी फेल हो गया. केतना चाहते है कि पढ़-लिख कर कुछ करे लेकिन इसका मन शायद बाप का फेमली बिजनेस को आगे बढ़ाने का ही है.

एक हमरा जूता है जिसको चलाने से कौनो असर नहीं होता. वहीँ पर पत्रकार लोग जूता चला देता है त तुंरत असर देखाई देता है. कल सोच रहे थे कि अईसा काहे है कि हमरा जूता असर नहीं देखाता और पत्रकार का जूता का असर ई होता है कि गुंडागर्दी पर उतारू नेता लोग भी गाँधी जी बन जाता है? तुंरत पत्रकार को माफ़ कर देता है.

बात चला त बेटा बोला; "बाबू, ई ब्रांड का असर है. आप जूता खरीदते हैं सुरेश चचा से. आर्डर देते है त सामान ओमान लाकर ऊ आपका जूता बनाते हैं. लोकल जूता फेंक कर मारने से कोई रिजल्ट नहीं आएगा. जरनैल सिंह जी ने जो जूता फेंक कर मारा था, ऊ रीबोक का जूता था. विदेशी ब्रांड. ऐसे में सरकार और नेता के ऊपर असर काहे नहीं होगा? नेता सब का ऊपर विदेशी चीज का असर ही होता है."

इच्छा त हुआ कि कह दें कि; "तुम भी त देसिये है. हमरा जूता भी देसी. तुम्हरे ऊपर काहे असर नहीं होता? ससुर इस साल पास हो जाते त आठ में चले जाते."

लेकिन चुप रहे. पता नहीं का उसके मुंह से निकल आये?

लेकिन ई बात मन में आता है कि जिस तरह से जूता-उता फेंकने का असर देखाई देता है, आनेवाला चार-पांच साल में त बहुत कुछ बदल जायेगा. बैठे-बैठे सोचे त लगा कि का नहीं हो सकता? सोचिये कैसा-कैसा सीन देखाई देगा.

पत्रकार ने कौनो अखबार में नौकरी का अर्जी दिया है. पत्रकार का बायो-डाटा को इंटरव्यू लेने वाला लोग उलट-पलट कर तीन-चार बार देख लिया है. इंटरव्यू ख़तम हो चुका है. पत्रकार हर सवाल का जवाब सही दिया है. उसका बायो-डाटा में क्वालिफिकेशन भी पूरा है. लेकिन उसको नौकरी नहीं मिला.

पत्रकार बेचारा परशान. इंटरव्यू लेने वालों से पूछेगा; " सर, हम त सब सवाल का जवाब सही दिए रहे. हमें नौकरी काहे नहीं मिल रहा है?"

इंटरव्यू लेने वाला बोलेगा; "एक बात में तुम पीछे रह गए. तुमको जूता फेंकने का एक्सपेरिएंस नहीं न है. एही खातिर नौकरी तुमको नहीं मिला. ऊ जिसको मिल रहा है उसका पास सात मंत्री और दू एमपी के ऊपर जूता फेंके का एक्सपेरिएंस है."

पत्रकार मुंह लटका लेगा. सोचने लगेगा कि; 'एक बार कोई अखबार बिना पईसा का ही रख ले. तीन-चार प्रेस कांफ्रेंस में जूता फेंककर एक्सपेरिएंस त ले सकेंगे. बाद में एक्सपेरिएंस का वजह से ही नौकरी मिलेगा.'

चिदंबरम साहेब होम मिनिस्टर हैं. उनके ऊपर सीबीआई का बजह से हुए सवाल-जवाब से जूता फेंका गया. हो सकता है दू साल उनका पार्टी उनको फाइनांस मिनिस्टर बनाना चाहे. सोचिये कैसा सीन हो सकता है.

प्रधानमंत्री बोलेंगे; "आप फाइनांस मिनिस्टर बन जाइये."

चिदंबरम साहेब बोलेंगे; "नहीं सर. हम नहीं बनेंगे."

प्रधानमंत्री पूछेंगे; "का हुआ? का दिक्कत है?"

चिदंबरम साहेब बोलेंगे; " पिछ्ला बार सीबीआई का बजह से हमरे ऊपर जूता फेंका गया था. हो सकता है फाइनांस मिनिस्टर बनने से आरबीआई का बजह से जूता फेंका जाए."

प्रधानमंत्री पूछेंगे; "ऊ काहे? ऐसा काहे सोचते हैं आप?"

चिदंबरम साहेब बोलेंगे; "हमको डर है कि ऊ फाइनांस कंपनी जो पब्लिक का पैसा री-पेमेंट नहीं कर पा रही थी त साल २००८ में सरकार में रहते हुए हम आरबीआई से लीपा-पोती करवा कर मोहलत दिला दिए थे. हमको लगता है ई फाइनांस कंपनी वाला अब की बार भी टाइम पर पब्लिक का पैसा पेमेंट नहीं कर पायेगा सब. फिर से आरबीआई से टाइम दिलाने का प्रेशर देगा. प्रेशर और पैसा या फिर पैसा का प्रेशर के चलते टाइम दिला देंगे. कोई पत्रकार पूछेगा कि ई फाइनांस कंपनी वालों को आपने टाइम काहे दिलवाया? उनका खिलाफ एक्शन काहे नहीं लिया? हम बोलेंगे कि आरबीआई भी सीबीआई का तरह ही इंडीपेंडेंट बॉडी है. इस बारे में हम कुछ नहीं किये हैं. जो किया है आर बी आई किया है. सोचिये कि अगर ऊ पत्रकार का अगर इस कंपनी में कोई डिपोजिट होगा त का हो सकता है. फिर से जूता चलने का चांस रहेगा."

प्रधानमंत्री बोलेंगे; "चिंता नहीं न करो. उस समय त इलेक्शन का बखत था त माफी-माफी खेल लिए थे. अभी त इलेक्शन होने में तीन साल का देरी है. ऐसे में पत्रकार को माफ़ नहीं करेंगे, पूरा साफ़ कर देंगे. तुम तो बस बन जाओ."

अईसा सीन भी हो सकता है.

हीरो, हीरोइन, क्रिकेटर, फुटबालर वगैरह को जूता का विज्ञापने नहीं मिलेगा. जूता बनानेवाला बड़ा-बड़ा कंपनी सब पत्रकार लोगों से जूता का विज्ञापन करवाएगा. एक-एक पत्रकार एक्स्पेरिंस का हिसाब से मॉडलिंग का फीस लेगा. पांच बार जूता फेंकने वाला पत्रकार का फीस बीस लाख होगा. जो पत्रकार का पास जूता फेंकने का एक्सपेरिएंस सात से दस बार तक होगा उसका फीस चालीस लाख होगा. सोचिये का सीन होगा?

टीवी वाला एंकर सब अपना-अपना चैनल का मालिक सब से बोलेगा; " हम स्टूडियो में एंकरिंग नहीं करेंगे. हमें फील्ड में काम दीजिये. हम प्रेस कांफ्रेंस में जाना चाहते हैं. जो लोग पहले से फील्ड में काम करके जूता-उता फेंक कर पैसा कम चुके हैं ऊन लोगन को अब स्टूडियो में बैठाईये. पैसा कमाने का हक़ त हमरा भी बनता है कि नहीं?"

अईसा भी होगा. मज़ाक नहीं कर रहे हैं.

ऊ दिखाई देगा अपने इष्टदेव सांकृत्यायन जी के ब्लॉग पर. अरे अपने इष्टदेव,... अरे ओही इयत्ता वाले. देखेंगे का? दू साल बाद ओनके ब्लॉग पर पब्लिक सब लाइन लगाये कमेन्ट पर कमेन्ट दिए जा रहा है. सब एक ही बात का शिकायत कर रहा है लोग. सब एही बात को लेकर हलकान हुए जा रहा है कि अथातो जूता जिज्ञासा का कड़ी नम्बर ५२३ काहे नहीं छपा?

का सोच रहे हैं? कड़ी नम्बर ५२३ कईसे? ता ऊ अईसे कि तब तक भारत में इतना जूता फेंका जायेगा कि इष्टदेव को ई अथातो जूता जिज्ञासा तब तक जारी रखना पड़ेगा.


औउर बहुत सा सीन दिखाई दे सकता है....का का लिखें?

Tuesday, April 7, 2009

धन्य है कविता....धन्य है साहित्य




वैराग्य धारण नहीं किये. धारण हो गया. काहे हुआ, नहीं पता. पता तो अर्जुन जी को भी नहीं था. उनके मन में भी भरम पैदा हो गया था कि; 'जिनको भी मारूंगा, सब अपने ही हैं.' बस एही भरम के वास्ते धर दिए रहे धनुख-बान. बोले लड़बे नहीं करेंगे.

ऊ तो बाद में किशन भगवान सिचुयेशन संभाल लिए. नहीं संभालते तो कंडीशन बड़ा खराब हो जाता. महाभारते नहीं होता. सोचिये केतना लॉस हो जाता. पता नहीं केतना लोग मरने से बच जाता सब. और लोग बच जाते तो इतिहासे का निर्माण नहीं हो पाता. आखिर हमरी संस्कृति में इतिहास का निर्माण मरे हुए लोग करते हैं.

निर्माण नहीं होता ऊपर से इतिहास गरीब भी देखाई देता.

अर्जुन जी के पास किशन भगवान थे, सो ऊ ज्ञान-वान देकर सिचुयेशन संभाल लिए. बोले; "तुम यह न सोचो कि सामने वालों को तुम मार रहे हो. ऊ सब तो पहले ही मरे हुए हैं. ई देखो हमरे मुंह में समाये हुए हैं सब के सब."

अर्जुन बाबू सीन देखकर दंग. बोले; "केशव, अच्छा हुआ जो आप हमको पाप करने से बचा लिए. हम इन लोगों को नहीं मारते तो पापे न होता?

इतना कहते हुए फिर धनुख-बान उठा लिए. सबको सलटा डाले. ओही ज्ञान बाद में गीता का ज्ञान बन गया.

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर के पेश करने का तो रिवाजे है हमारे यहाँ. किशन भगवान का ज्ञान था, पता नहीं किसने उसे गीता का ज्ञान करार दे दिया. गीता जी का उल्लेख महाभारत में कहिंयो नहीं है. लगता है बाद में पैदा होने वाली कोई लेखिका होंगी.

अर्जुन बाबू को तो किशन भगवान मिल गए तो वे पाप करने से बच गए.लेकिन हमें कहाँ से मिलें कोई किशन भगवान जी?

हम एही सोच रहे थे. कोई तो उभरे किशन भगवान बनकर. कोई तो इस स्थिति के बारे में बताये. ऐसा काहे हुआ कि कुछ लिखने का मन नहीं कर रहा है? कहीं टिप्पणी करने का मन नहीं कर रहा है.

लेकिन कोई नहीं उभरा. बाद में याद आया कि ई तो कलयुग चल रहा है. इसमें किशन भगवान कहाँ मिलेंगे? ऊ तो द्वापर में ही पृथ्वीलोक पर अपना कोटा समाप्त कर लिए रहे.

लेकिन दू दिन पहले लगा कि; 'का द्वापर और का कलयुग, बिना भगवान के नहीं चलेगा.'

आप क्वेश्चन रेज करें, ऊका पाहिले ही हम बताय देते हैं.

दू दिन पहिले अनूप जी फ़ोन पर उभरे. हमें बूड़ने से बचाने के लिए. बोले; "क्या हाल बना रखा है? कुछ लिखते क्यों नहीं?"

हम बोले; "भैया बड़ा आफत आ गया है. कुछ भी लिखने का मन नहीं कर रहा. पता नहीं ऐसा काहे हुआ?"

हमरी बात सुनकर बोले; "ऐसा है, कि ब्लॉग-धर्म के पालन के दौरान ऐसी स्थिति आती है जब सबकुछ ख़तम लगता है. कुछ लिखने का मन नहीं करता. कुछ पढने का मन नहीं करता. कहीं टिप्पणी करने का मन नहीं करता. इस सन्दर्भ में आदिकालीन ब्लॉगर, श्री जीतेन्द्र चौधरी उर्फ़ जीतू जी का लेख पढ़ा जा सकता है. इस मनःस्तिथि को ब्लॉग-वैराग्य कहते हैं."

हम बोले; "लेकिन भैया, अभी त हमको दू साल भी नहीं हुआ, ब्लॉग लिखते हुए."

वे बोले; "तुम थेंथर हो तो दो साल टिक गए. टैलेंटेड ब्लॉगर तो दो महीने में ही ब्लॉग-वैराग्य को अचीव कर लेते हैं.कितने तो एक बार अचीव कर लेते हैं तो उसमें से निकल ही नहीं पाते. तुम्हारा तो निकल आने का चांस अभी भी है."

अनुभव बोल रहा था. हम सुन रहे थे.

ब्लॉग-वैराग्य शब्द सुनकर लगा केतना धाँसू च फांसू शब्द है. पूरा तरह से फांसने का काबिलियत रखता है शब्दवा. फिर हम सोचे कि; 'इसका मतलब हम वैरागी हो गए? ई सिचुयेशन तो हमरे ब्लॉग-कुंडली में थी ही नहीं.'


जैसे ही यह बात मन में आई, दिनकर जी का लिखा हुआ याद आ गया. ऊ लिखे हैं;

ज्वलित देख पान्चाग्नि जगत से निकल भागता योगी
धुनी बनाकर उसे तापता अनाशक्त रसभोगी

दिनकर जी का लिखा हुआ तो याद आया ही, साथ-साथ एक कुछ और याद आ गया. आप सोच रहे होंगे कि और का याद आ सकता है? तो हम बता दें कि याद आनेवाली बात थी आदिकालीन ब्लॉग-साहित्य में दर्ज ई कविता. कविता में लिखा है;

जब रोवे ब्लॉगर अज्ञानी
आँखों से बरसावे पानी
तब-तब बड़का ब्लॉगर आवे
ज्ञान-वान दे औ समझावे

जिस स्थिति में तुम हो भाई
तुम्हें देख आँखें भर आई
हमें पता है तुम्हरी पीड़ा
हमरे भी त फटी बेवाई

कहते इसे ब्लॉग वैराग्य
समझो है तुम्हरा सौभाग्य
जो हम तुमको हैं समझाते
कौन बताता हम न आते?

इस स्थिति से निकलो जल्दी
लगे फिटकरी चाहे हल्दी
चिरकुट सा ही कुछ लिख डालो
ब्लॉग-पेज को तुम भर डालो

एक बार वैराग्य जो छूटे
माया आकर तुमको लूटे
माया भी तो तरह-तरह की
कहीं पहेली कहीं जिरह की

अद्भुत माया टिप्पणियों की
ब्लॉग पोस्ट की औ कड़ियों की
कैसे इससे बच पाओगे ?
ब्लॉग-वाग को रच पाओगे?

बस, इतना साहित्य काफी था, ब्लॉग-वैराग्य दूर करने के लिए. जैसे ही कविता याद आई,

वैराग्य ढेर हो गया
पूरा अंधेर हो गया
मन चंगा हो गया
ह्रदय में दंगा हो गया
चिरकुटई करने लौटे आये
जेब में ढेर सारे मुखौटे लाये
फिर से ब्लॉग रंग डालेंगे
ठंडाई में भंग डालेंगे

धन्य है कविता और साहित्य. समीर भाई, कविताओं पर साधुवाद और बधाई ऐसी ही नहीं लुटाते. आज पता चला कि कविता कुछ भी करवा सकती है.

ब्लॉगर को वैराग्य-विमुख भी कर सकती है.