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Wednesday, January 28, 2009

ब्लॉग महिमा




इन्द्र परेशान बैठे थे. माथे पर 'तिरशूल' के जैसे तीन-तीन बल पड़े हुए थे. बहुत कोशिश करने के बाद भी विश्वामित्र की तपस्या इस बार भंग नहीं हो रही थी. मेनका लगातार बहत्तर घंटे डांस करके अब तक गिनीज बुक में नाम भी दर्ज करवा चुकी थी लेकिन विश्वामित्र टस से मस नहीं हुए.

मेनका के हार जाने के बाद उर्वशी ने भी ट्राई मारा लेकिन विश्वामित्र तपस्या में ठीक वैसे ही जमे रहे जैसे राहुल द्रविड़ बिना रन बनाए पिच पर जमे रहते हैं. उधर मेनका और उर्वशी से खार खाई रम्भा खुश थी. इन्द्र को समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाय?

दरबारियों और चापलूसों की मीटिंग बुलाई गई. मीटिंग बहुत देर तक चली. बीच में लंच ब्रेक भी हुआ. आधे से ज्यादा दरबारी केवल सोचने की एक्टिंग करते रहे जिससे लगे कि वे सचमुच इन्द्र के लिए बहुत चिंतित हैं. काफी बात-चीत के बाद एक बात पर सहमति हुई कि इन्द्र को उनके मजबूत पहलू को ध्यान में रखकर ही काम करना चाहिए.

दरबारियों ने सुझाव दिया कि चूंकि इन्द्र का मजबूत पहलू डांस है सो एक बार फिर से डांस का सहारा लेना ही उचित होगा. डांस परफार्मेंस के लिए इस बार रम्भा को चुना गया. मेनका और उर्वशी इस चुनाव से जल-भुन गई. लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता था.

रम्भा ने तरह तरह के शास्त्रीय और पश्चिमी डांस किए लेकिन विश्वामित्र जमे रहे. उन्होंने रम्भा की तरफ़ देखा भी नहीं. हीन भावना में डूबी रम्भा ने एक लास्ट ट्राई मारा. मशहूर डांसर पाखी सावंत का रूप धारण किया और तीन दिनों तक फिल्मी गानों पर डांस करती रही लेकिन नतीजा वही, ढाक के तीन पात.

रम्भा को वापस लौटना पडा. रो-रो कर उसका बुरा हाल था. रोने की वजह से पूरा मेक-अप धुल चुका था. उसे अपनी असफलता का उतना दुख नहीं था जितना इस बात का था कि उर्वशी और मेनका अब उठते-बैठते उसे ताने देंगी.

प्लान फेल होने से इन्द्र दुखी रहने लग गए. सप्ताह में तीन चार दिन तो दारू चलती ही थी, अब सुबह-शाम धुत रहने लगे. राहत की बात ये थी कि उनके प्रमुख सलाहकार को अभी तक नशे की लत नहीं लगी थी. काफी सोच-विचार के बाद वो एक दिन चंद्र देवता के पास गया. वहाँ पहुँच कर उसने पूरी कहानी सुनाई और साथ में चंद्र देवता से सहायता की मांग की.

चंद्र देवता की गिनती वैसे ही इन्द्र के पुराने साथियों में होती थी. सभी जानते थे कि चन्द्र देवता इन्द्र के कहने पर एक बार मुर्गा तक बन चुके थे. वे इन्द्र के लिए एक बार फिर से पाप करने पर राजी हो गए.

चंद्र देवता रात की ड्यूटी करते-करते परेशान रहते थे, सो वे बाकी का समय सोने में बिताते थे. लेकिन इन्द्र की सहायता की जिम्मेदारी कन्धों पर आन पड़ी तो नीद और चैन जाते रहे. दिन में भी बैठ कर सोचते रहते थे कि 'इस विश्वामित्र का क्या किया जाय. इन्द्र के सलाहकार को वचन दे चुका हूँ. इन्द्र को भी दारू से छुटकारा दिलाना है नहीं तो आने वाले दिनों में पार्टियों का आयोजन ही बंद हो जायेगा.'

एक दिन बेहद गंभीर मुद्रा में चिंतन करते चंद्र देवता को 'नारद' ने देख लिया. देखते ही नारद ने अपना विश्व प्रसिद्ध डायलाग दे मारा; "नारायण नारायण, किस सोच में डूबे हैं देव?"

"अरे देवर्षि, बड़ी गंभीर समस्या है. वही इन्द्र और विश्वामित्र वाला मामला है. इसी सोच में डूबा हूँ कि इन्द्र की मदद कैसे की जाए. वैसे, हे देवर्षि, आप तो देवलोक, पृथ्वीलोक, ये लोक, वो लोक सब लोक घूमते रहते हैं. आप ही कोई रास्ता सुझायें. आख़िर इस विश्वामित्र की क्या कोई कमजोरी नहीं है?"; चंद्र देवता ने लगभग गिडगिडाते हुए पूछा.

"नारायण नारायण. ऐसा कौन है जिसकी कोई कमजोरी नहीं है. वैसे आप तो रात भर जागते हैं, लेकिन आप भी नहीं देख सके, जो मैंने देखा"; नारद ने चंद्र देवता से पूछा.

"हो सकता है, आपने जो देखा वो मुझे इतनी दूर से न दिखाई दिया हो. वैसे भी आजकल जागते-जागते आँख लग जाती है. लेकिन हे देवर्षि, आपने क्या देखा जो मुझे दिखाई नहीं दिया?"; चंद्र देवता ने पूछा.

"मैंने जो देखा वो बताकर इन्द्र की समस्या का समाधान कर मैं ख़ुद क्रेडिट ले सकता हूँ. लेकिन फिर भी आपको एक चांस देता हूँ. आज रात को ध्यान से देखियेगा, ये विश्वामित्र एक से तीन के बीच में क्या करते हैं"; नारद ने चंद्र देवता से कहा.

रात को ड्यूटी देते-देते चंद्र देवता विश्वामित्र की कुटिया के पास आकर ध्यान से देखने लगे. उन्हें जो दिखाई दिया उसे देखकर दंग रह गए. उन्होंने देखा कि विश्वामित्र अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिख रहे हैं. पोस्ट पब्लिश करके वे और ब्लॉग पर कमेंट देने में मशगूल हो गए. चंद्र देवता को समझ में आ गया कि नारद का इशारा क्या था.

दूसरे ही दिन इन्द्र के सलाहकार ने इन्द्र का एक ब्लॉग बनाया. ब्लॉग पर पहले ही दिन विश्वामित्र की निंदा करते हुए इन्द्र ने एक पोस्ट लिखी. साथ में विश्वामित्र के ब्लॉग पोस्ट पर उन्हें गाली देते हुए कमेंट भी लिखा.

कमेंट और पोस्ट का ये सिलसिला शुरू हुआ तो विश्वामित्र का सारा समय अब पोस्ट लिखने, इन्द्र के गाली भरे कमेंट का जवाब देने और इन्द्र के ब्लॉग पर गाली देते हुए कमेंट लिखने में जाता रहा. उनके पास तपस्या के लिए समय ही नहीं बचा.

विश्वामित्र की तपस्या भंग हो चुकी थी. इन्द्र खुश रहने लगे.

Monday, January 26, 2009

बधाई दे डालिये शिव-पामेला को





गणतन्त्र दिवस की नहीं जी! आज शिवकुमार मिश्र और पामेला मिश्र की शादी की सालगिरह है।

तुरत-फुरत-धुरत बधाई दे डालिये!
--- रीता-ज्ञानदत्त पाण्डेय


Friday, January 23, 2009

राजू ने घोटाला कर दिया....बाकी के लोगों ने क्या किया?




राजू जी ने जब से सत्यम बोला है, जेल में भर दिए गए हैं. इस घटना से एक बार फिर से साबित हो गया कि सत्यम का रास्ता बहुत कठिन होता है. आदमी उस रास्ते पर चलकर जेल तक पहुँच जाता है. वैसे मेरा मानना है कि उनके वकीलों ने उन्हें चिंता न करने की सलाह ज़रूर दी होगी. आख़िर उन्हें सुगर और हाई ब्लडप्रेशर वगैरह की शिकायत है. ऐसे में वे कभी भी छाती पर हाथ रखकर जेल से अस्पताल पहुँच सकते हैं.

दक्षिण भारत में वैसे भी मेडिकल टूरिज्म का बड़ा बोलबाला है.

सुना है जेल में रहते हुए आजकल गौतम बुद्ध की जीवनी पढ़ रहे हैं. किसी अखबार में रपट छपी होगी. ये अखबार वाले भी क्या-क्या छापते रहते हैं. ऐसे मौकों पर नोस्टैल्जिक होना कोई इनसे सीखे. मैं एक अखबार में राजू बाबू के बचपन के दोस्त का बयान पढ़ रहा था कि कैसे दोनों एक साथ स्कूल जाते थे. एक साथ भैंस चराते थे. एक ही साथ तालाब में नहाते थे और साथ-साथ बकरी के आवाज की नक़ल करते थे. राजू बाबू के उस बचपनी दोस्त के बहाने मीडिया वाले भी नोस्टैल्जिक हो लिए.

वैसे राजू बाबू द्बारा जेल में गौतम बुद्ध की जीवनी पढ़ने की बात पर मुझे सम्राट अशोक याद आ गए. उन्हें भी जमीन हड़प लेने की बीमारी थी और राजू बाबू को भी वही बीमारी थी. अशोक बुद्ध की शरण में गए. शायद इसी बात से प्रेरित होकर राजू बाबू भी बुद्ध की शरण में जाने के लिए उतावले हुए जा रहे हैं.

आज पता चला कि उनकी कंपनी में तेरह हज़ार कर्मचारी ऐसे थे जो थे ही नहीं. मतलब उनका केवल नाम था. और राजू बाबू अपनी कंपनी से इन कर्मचारियों के नाम पर सैलरी ट्रांफर कर लेते थे. बाद में उसी सैलरी से जमीन खरीद लेते थे. इस बात से पता चलता है कि कि दर्शन वगैरह में राजू बाबू का विश्वास बहुत पहले से दही के माफिक जमा-जमाया है.

उन्होंने कहीं पढ़ा होगा कि "जो है वो नहीं है और जो नहीं है वही है."

बस, इसी सिद्धांत के रस्ते पर चलकर उन्होंने तेरह हज़ार कर्मचारी, जो नहीं थे, उन्हें जिन्दा कर के अपनी कंपनी के हवाले कर दिया. तेरह हज़ार कर्मचारी. और हम यहाँ रो रहे हैं कि बेरोजगार लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है. वो भी तब जब हमारे यहाँ ऐसे-ऐसे उद्योगपति है जो इतनी हैसियत रखते हैं कि उनको भी रोजगार दे दें जो रोजगार नहीं चाहते या फिर जो हैं ही नहीं.

इस समाचार को पढ़कर मुझे वो दिन याद आ गया जब मैं बैंक में अकाउंट खुलवाने गया था. तमाम तरह के सवाल पूछे थे बैंक वाले ने. पैन कार्ड है कि नहीं? वोटर कार्ड है कि नहीं? एड्रेस प्रूफ़ कहाँ है? ये वाला नहीं चलेगा? आप अपना ताज़ा एड्रेस प्रूफ़ लाईये. क्या कुछ नहीं पूछा. तब जाकर एक अदद अकाउंट खुला.

और यहाँ ऐसे-ऐसे वीर हैं जो तेरह हज़ार अकाउंट खोल लेते हैं. सोचिये ज़रा. तेरह हज़ार अकाउंट के लिए तेरह हज़ार पैन कार्ड. तेरह हज़ार एड्रेस प्रूफ़. तेरह हज़ार वोटर कार्ड. तेरह हज़ार लोगों की सैलरी मिट्टी में गाड़ दिया इस आदमी ने.

वैसे इन्होने उन उद्योगपतियों को रास्ता दिखा दिया जो इस बात का रोना रोते हैं कि हम तो सर्विस इंडस्ट्री वाले हैं. हम ज्यादा घपला नहीं कर पाते. मैन्यूफैक्चरिंग इंडस्ट्री वालों को तो बोगस खर्चा दिखाने का तमाम रास्ता है. इस मामले में हम पीछे रह गए. इसे हम उद्योग के क्षेत्र में क्रान्ति मानते हैं.

तमाम सवाल अपनी जगह हैं.

बैंक वाले कहाँ हैं? सत्यम के केस में उनका रोल कौन देखेगा? इनकम टैक्स डिपार्टमेंट का रोल क्या रहा? प्रोविडेंट फंड डिपार्टमेंट का रोल क्या रहा? एम्प्लाई स्टेट इंश्योरेंस डिपार्टमेंट का रोल क्या रहा?

और हमलोग अभी भी यही कहते हुए घूम रहे हैं कि राजू ने घोटाला कर दिया. तो बाकी के लोगों ने क्या किया?

Wednesday, January 21, 2009

.....ऐसे में काहे का आम आदमी जी?




प्रधानमंत्री जैसे ख़ास लोगों को सारी सुविधायें रहती हैं. इतनी सुविधायें कि वे कुछ भी कर सकते हैं. अब देखिये न, दो दिन पहले प्रधानमन्त्री आम आदमी बन गए. आम आदमी के रूप में तमाम अखबारों में फोटू-सोटू भी छप गए. फोटू के नीचे जानकारी दी गई कि प्रधानमंत्री अपना ड्राइविंग लाईसेंस रि-न्यू कराने के लिए ख़ुद गए.

अखबारों और टीवी न्यूज़ चैनल के कैमरामैन भाई उमड़ पड़े. ये देखने और दिखाने के लिए कि आम आदमी के रूप में प्रधानमंत्री कैसे लगते हैं?

लेकिन सच बताऊँ तो मुझे तो बिल्कुल वैसे ही लगे जैसे प्रधानमंत्री बने लगते हैं. वही पहनावा, वही चाल-ढाल और वही मुस्कुराने का अंदाज़. आम आदमी कब मुस्कुराता है, ये बात कैमरा पकड़े पत्रकार नहीं बता सकते. कहते हैं, समरथ को नहीं दोष गोसाईं. आख़िर वे समर्थ हैं. प्रधानमंत्री हैं. ऐसे में जब चाहे, जो चाहें, बन सकते हैं. यहाँ तक कि आम आदमी भी.

कोई आम आदमी थोड़े न हैं जो कुछ बनने के सपने ही देखता रहता है. बन नहीं पाता.

लेकिन उन्हें अचानक आम आदमी बनने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी? क्या देखना चाहते थे कि आम आदमी बनकर कैसा महसूस होता है? या ये देखना चाहते थे कि प्रधानमंत्री को आम आदमी के रूप में देखकर लोगों का रिएक्शन कैसा रहेगा?

खैर, सोचने लगा तो मुझे लगा शायद आम आदमी बनने का उनका निर्णय अपने सचिव के साथ हुई बातचीत के दौरान लिया गया हो. कैसी बातचीत?

शायद ऐसा कुछ हुआ हो...

प्रधानमंत्री: भाई, बहुत दिन हो गए, कुछ नया नहीं हो रहा है. बड़ी बोरियत के दिन हैं.

सचिव: हाँ सर. मुझे भी यही लग रहा है. जबसे न्यूक्लीयर डील पास हुई है, लगता है जैसे करने के लिए कुछ बचा ही नहीं. मुंबई में हुआ आतंकवादी हमला भी अब पुराना हो गया. संसद का अधिवेशन भी ख़त्म हो गया. सत्यम के डूबने के बाद आपने वक्तव्य दे ही दिए कि किसी को बख्शा नहीं जायेगा. दो-तीन दिन से मैं भी बड़ा बोर हो रहा हूँ.

प्रधानमंत्री: सही कह रहे हो. अब तो पकिस्तान भी कुछ करने की एक्टिंग करने लगा है. अब उसके ख़िलाफ़ कहने को भी कुछ नहीं रहा. ऐसे में बोरियत के दिन काटे नहीं कटते. २६ जनवरी की तैयारियां चल रही हैं लेकिन उससे मन नहीं बहलता.

सचिव: सर, आपका कहना बिल्कुल ठीक है. वैसे एक सुझाव दूँ सर?

प्रधानमंत्री: ज़रूर दीजिये. आप सचिव हैं. आप सुझाव नहीं देंगे तो कौन देगा? आप दीजिये. उसे मानना है कि नहीं, वो मुझपर छोड़ दीजिये.

सचिव: सर, बोरियत दूर करने के लिए आप नई फ़िल्म देख लीजिये. चांदनी चौक टू चाइना.

प्रधानमंत्री: हो गया? छ महीने हो गए जब से लेफ्ट वालों ने हमें सपोर्ट देना बंद किया है. और आप ऐसी फ़िल्म देखने का सुझाव भी दे रहे हैं जिसका नाम चांदनी चौक टू चाइना है. कहाँ गई है आपकी बुद्धि?

सचिव: सॉरी सर. वो क्या हुआ कि मैं कल ही अक्षय कुमार के साथ बैठकर फ़िल्म देख कर आया हूँ न. उन्होंने दिल्ली में हुए फ़िल्म के प्रीमियर के पास मुझे भेजे थे. वहां मिली आवाभगत से मैं प्रभावित हो गया इसीलिए लेफ्ट वाली बात भूल गया.

प्रधानमंत्री: राइट. सॉरी आपको कहना ही चाहिए.

सचिव: सर, आपको एक बात बतानी थी.

प्रधानमंत्री: कौन सी बात?

सचिव: वो क्या है सर, कि आपका ड्राइविंग लाईसेंस रि-न्यू करने का समय आ गया है. कल मोटर वेहिकल डिपार्टमेंट वालों को बुला लूँ?

प्रधानमंत्री: बुला लीजिये. लेकिन बुलाने की क्या ज़रूरत है? उन्हें बोलिए रि-न्यू करके भेज देंगे.

सचिव: ठीक है सर. वैसा ही करता हूँ.

प्रधानमंत्री: .....अरे रुकिए. उन्हें ये सब कहने की ज़रूरत नहीं है.

सचिव: क्यों सर?

प्रधानमंत्री: मैं सोच रहा हूँ कि मैं ख़ुद ही चला जाऊं.

सचिव: आप ख़ुद ही जायेंगे! लेकिन सर...लाईसेंस के लिए आप ख़ुद ही जायेंगे? ऐसा तो आम आदमी करते हैं.

प्रधानमंत्री: अरे इसीलिए तो मैं जाना चाहता हूँ. ये बढ़िया रहेगा न. कल एक घंटे के लिए मैं आम आदमी बनना चाहता हूँ. मज़ा आ जाएगा आम आदमी बनाकर. कल एक घंटे के लिए ही सही, बोरियत से छुटकारा तो मिलेगा.

सचिव: ठीक कहा सर. मैं अभी सारे अखबारों और टीवी न्यूज़ चैनल वालों को ख़बर पहुँचा देता हूँ कि कल आप मोटर वेहिकल डिपार्टमेंट के कार्यालय पर आम आदमी बनेंगे.

प्रधानमंत्री मोटर वेहिकल डिपार्टमेंट के कार्यालय जाकर फोटू खिंचा आम आदमी बन गए. लेकिन ये भी बनना कोई बनना है? न तो वहां दलालों को घूस दिया. न तो डिपार्टमेंट के बाबू ने उन्हें घंटे भर बिठा के रखा. न ही बाबू ने फाइल न मिलने के बहाने दूसरे दिन आने के लिए कहा.

ऐसे में काहे का आम आदमी जी? आम आदमी तो हम उन्हें तब मानते जब उन्हें किसी दलाल को पकड़कर घूस देकर अपना काम करवाना पड़ता.

Tuesday, January 20, 2009

भाई-गाथा




हमारे समाज में भाई का महत्व कई युगों से है. हमारे देश के गौरवशाली इतिहास और अति गौरवशाली वर्तमान में भाई के महत्व को नकारने का मतलब है पूरी संस्कृति को ही नकार देना. वैसे भी किसकी हिम्मत है जो भाई के महत्व को नकार सके?

अब जब किसी में हिम्मत ही नहीं है तो कह सकते हैं कि; "जब तक सूरज-चाँद रहेगा, भाई....."

रामायण से लेकर महाभारत और दुबई से लेकर भारत, सब जगह भाई का महत्व किसी से छिपा नहीं है.

रामायण में राम,भरत और लक्षमण जैसे भाई थे. शत्रुघ्न भी थे लेकिन वे थोड़ा डारमेंट टाइप थे. उन्होंने किसी बहुत महत्वपूर्ण काम को अंजाम दिया हो, ऐसा कम ही लगता है. कोई बहुत महत्वपूर्ण कार्य उनके नाम दर्ज हो, ऐसा उदाहरण कम ही होगा.

या फिर उन्होंने किया भी होगा तो उसका विज्ञापन ठीक से नहीं कर सके.

मैं सोच रहा था कि शत्रुघ्न के इस तरह की 'डारमेन्टता' का कारण क्या हो सकता है. शायद वे लक्ष्मण टाइप नहीं थे. मेरा मतलब ये कि लक्ष्मण जी बड़े भइया राम जी के आज्ञानुसार तो चलते ही थे, कभी-कभी बिना आज्ञा के भी परफार्म कर जाते थे. शायद यही फरक था लक्ष्मण और शत्रुघ्न में. शत्रुघ्न केवल आज्ञा वगैरह मिलने पर ही कुछ करते होंगे.

लेकिन वहीँ लक्ष्मण जी को देखिये. कई केस में देखा गया है कि राम जी ने जो नहीं कहा, लक्ष्मण वह भी करने पर आमादा रहते थे. आख़िर राम जी ने नहीं कहा था कि लक्ष्मण भी उनके साथ वन चलें. लेकिन लक्ष्मण जी अपने आप तैयार हो गए.

शायद उन्हें लगा होगा कि सबकुछ बड़े भाई के कहने पर ही करेंगे तो लोग उनकी क्षमता को शंका की दृष्टि से देखते. लोग फब्ती कस सकते थे कि; "जबतक बड़ा भाई नहीं कहता, ये कुछ करता ही नहीं है."

इसलिए धनुष-वाण लेकर श्री राम के साथ वन जाने के लिए तैयार हो गए होंगे.

जब राम जी आर्डर देते थे तो भी सबकुछ करने के लिए तैयार रहते थे. राम ने कहा कि सूर्पनखा को नाकविहीन कर दो, तो उन्होंने फट से कर दिया. आख़िर बड़े भाई की आज्ञा का पालन कैसे नहीं करते? लेकिन दूसरी तरफ़ राम जी के बिना कहे परशुराम से पंगा लेने पर उतारू थे.

बिना आज्ञा के अपनी बुद्धि से कुछ करने से ही लक्ष्मण हमेशा विजिबल रहते थे. यही कारण था कि शत्रुघ्न पीछे रह गए.

भाईयों के समूह में किसी एक या फिर कई भाई के डारमेंट होने की कहानी द्वापर तक में दिखाई दी. महाभारत में युधिष्ठिर बड़े भाई थे. भीम और अर्जुन उनसे छोटे थे. युधिष्ठिर जो कहते थे, उसे तो छोटे भाई करते ही थे, लेकिन अर्जुन और भीम बिना आज्ञा मिले भी ख़ुद डिशीजन ले लेते थे. भीम को ही देखिये. शादी-वादी खुदे कर लिए थे. अर्जुन युधिष्ठिर से आज्ञा लिए बिना ही बाण वगैरह बरसा देते थे. ज्यादातर प्रकरण में यही तीनों दिखाई पड़ते हैं.

रामायण की तर्ज पर ही जैसे वहां शत्रुघ्न डारमेंट थे वैसे ही महाभारत में नकुल और सहदेव डारमेंट भाई थे.
दास्तान-ए-महाभारत में नकुल और सहदेव का रोल छोटा था. ये लोग विजिबल नहीं थे. एक्स्ट्रा कलाकारों की तरह थे जो फिलिम के एक-दो सीन में ही दिखाई देता है.

भाईयों के विजिबल न रहने की कहानी दूसरे खेमे में भी दिखाई देती है. दुर्योधन के निन्यानवे भाई थे. इन निन्यानवे में से दुशासन को छोड़कर बाकी के अट्ठानबे डारमेंट गति को प्राप्त हो चुके थे. दुर्योधन ने दुशासन को छोड़कर बाकी के भाईयों को शायद उभरने का मौका ही नहीं दिया. या फिर बाकी के अट्ठानबे निकम्मे टाइप थे. मैं कहता हूँ कि अगर दुर्योधन ने दुशासन को द्रौपदी का चीरहरण करने का काम सौंपा था तो बाकी के भाईयों को भी लग जाना चाहिए था.

और कुछ नहीं तो चीरहरण वाला एपिसोड कम से कम तीन-चार महीना तो चलता ही. मामला लंबा खिंचता. समय मिलता तो शायद दुर्योधन को भी बुद्धि आ जाती और ख़ुद ही रोकवा देता.

वैसे ये पता नहीं चल सका कि दुर्योधन ही अपने बाकी के भाईयों को कैपेबल नहीं मानता था या फिर बाकी के भाई सचमुच निकम्मे थे. अगर उसके बाकी के भाई निकम्मे नहीं थे तो मैं तो यही कहूँगा कि दुर्योधन की बेवकूफी उसे ले डूबी. अरे डेलिगेशन ऑफ़ अथॉरिटी भी कोई चीज है कि नहीं?

रावण के भी कुम्भकरण और विभीषण जैसे ब्रह्माण्ड प्रसिद्द भाई थे जो अपने बड़े भाई के लिए कुछ भी करने के वास्ते तत्पर रहते थे. लेकिन एक बात है. विभीषण बिना रावण के आज्ञा पाये भी अपनी बुद्धि लगाकर परफार्म कर लेते थे. वहीँ कुम्भकरण ऐसा नहीं था. वो बिना रावण जी के आज्ञा के कुछ करता ही नहीं था.

शायद यही कारण था कि विभीषण सरवाईव कर गए और कुम्भकरण मारा गया. रावण ने कुम्भकरण से कहा कि राम की सेना के ख़िलाफ़ मैदान में उतर जाओ तो बेचारा उतर गया. ये जानते हुए कि मारा जायेगा. लेकिन अपनी बुद्धि अप्लाई नहीं किया उसने.

सदियों से चली आ रही भाईयों की ये गाथा आगे ही बढ़ी. हाँ थोड़ा अन्तर है. अब सगे भाई का महत्व उतना नहीं रहा जितना 'भाई जैसे' भाई का है. अब अमर सिंह जी को ही देख लीजिये. वे कहते हैं कि अमिताभ बच्चन उनके बड़े भाई जैसे हैं. और देखिये कि क्या-क्या कर डाला उन्होंने. मिसेज बच्चन से नेतागीरी तक करवा दी. ठीक वैसे ही अमिताभ बच्चन जी ने क्या-क्या करवा डाला उनसे. हम सभी जानते ही हैं.

अमिताभ बच्चन जी अमर सिंह जी के बड़े भाई जैसे हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि अमर सिंह जी केवल वही काम करते हैं जो करने के लिए उनके बड़े भाई उन्हें कहते हैं. अमर सिंह जी अपना दिमाग चलाते हैं. उनके सरवाईव करने का राज ही यही है.

दिमाग नहीं चलाते और पार्टी बदल कार्यक्रम को अंजाम न देते तो अभी तक कांग्रेस में रहते हुए 'डारमेंटता' का शिकार हो जाते.

अपनी बुद्धि से काम करने का नतीजा ये हुआ है कि अमर सिंह जी, जो ख़ुद दस दिन पहले तक छोटे भाई थे, अब बड़े भाई बन गए हैं. संजय दत्त जी के बड़े भाई. दत्त साहब ने हाल ही में बताया कि अमर सिंह उनके बड़े भाई जैसे हैं. वे जो कहेंगे, दत्त साहब उसको झट से कर डालेंगे.

बड़े भाई के कहने पर लखनऊ से चुनाव लड़ रहे हैं. लेकिन देखने वाली एक ही बात है. दत्त साहब क्या केवल वही करेंगे जो अमर सिंह कहेंगे? क्या वे बड़े भाई नहीं बनना चाहेंगे? क्या वे लॉन्ग रन में सरवाईव नहीं करना चाहेंगे?

कैसे करेंगे सरवाईव? वही, अपने हिसाब से चलकर. कुछ ऐसा भी करें जो बड़े भइया न कहें. ऐसा क्या कर सकते हैं?

आने वाले समय में शायद पार्टी बदल लें. राजनीति में सरवाईव करने का इससे बढ़िया तरीका और क्या है? वो भी एक 'अभिनेता' के लिए.

मुझे तो पक्का विश्वास है कि संजय दत्त भी एक दिन बड़े भाई बनेंगे.

Friday, January 16, 2009

पूरा माहौल ही 'बेल आऊटीय' हो जायेगा...




कभी नाव गाड़ी पर और कभी गाड़ी नाव पर. गाड़ी नाव का ये खेल सदियों से होता आया है. सदियों पहले लोगों ने नाव बनाई होगी तो यही सोचकर कि ये गाड़ी को पार उतारेगी. और गाड़ी बनाई होगी तो भी यही सोचकर कि ये नाव को पानी में उतारेगी.

अभी जुलाई की बात है. सरकार को कौन बेलआउट करेगा और कौन आउट करेगा इसको लेकर क्या-क्या नहीं किया गया. कयास, प्रयास से लेकर उपवास तक. सरकार आउट नहीं हुई क्योंकि उसने अपने लिए नया बोर्ड गढ़ लिया था. अमर सिंह मैनेजिंग डायरेक्टर और मुलायम सिंह डायरेक्टर. बोर्ड के तीसरे मेंबर थे कैश.

अब ऐसा सॉलिड कम्बीनेशन और कहाँ मिलेगा? लिहाजा सरकार आउट नहीं हुई. तीन तिलंगे, मतलब अमर सिंह, मुलायम सिंह और कैश ने मिलकर सरकार को बचा लिया.

नहीं-नहीं कैश का मतलब मजनू नहीं. वो तो ख़ुद नहीं बच सके, सरकार को क्या बचायेंगे?

सरकार को बेलआउट मिल गया तो सरकार इस पोजीशन में आ गई कि दूसरों को बेल आउट कर सके. हवाई जहाज चलाने वाले फंस गए? बेल आउट कर दो. रीयल एस्टेट वाले फंस गए? बेल आउट कर दो. एक्सपोर्टर जी फंस गए? चिंता काहे का? हम हैं ना बेल आउट आउट करने के लिए.

आउट होने के कगार पर पहुँचने से पहले किसानों को बेल आउट किया ही जा चुका था.

सत्यम को उसके प्रोमोटर ने फंसा दिया तो क्या हुआ? उसे भी बेल आउट कर दो. वो तो नए बोर्ड में ढंग के लोग हैं, बोलकर सरकार का बेल आउट करने का प्रोग्राम बरबाद हो गया.

सत्यम को बेल आउट करने की घोषणा करके सरकार कितनी खुश हुई होगी. लेकिन सत्यम के नए बोर्ड ने बेल आउट लेने से मनाकर दिया. लगा जैसे सरकार निराश हो गई. ये सोचते हुए कि; "कैसे लोग हैं? यहाँ हम बेल आउट करने के लिए तैयार बैठे थे. ये लोग इतना निराश कर देंगे, नहीं पता था."

तिरपन हज़ार कर्मचारियों और उनके परिवार का 'आशीर्वाद' पक्का करने की कोशिश नाकाम कर दिया.

बेल आउट का ये मौसम खिचेंगा. काहे न खिंचे? चुनावी सालों में इन और आउट का खेल तो पहले होता था. एक ही खेल कितने दिन चलेगा? सरकार के साथ-साथ वोटर भी बोर हो जाता है. आख़िर कुछ तो नया हो. ऐसे में इन और आउट से आगे बढ़कर बेल आउट खोज लिया गया.

कभी-कभी लगता है जैसे सरकार और उसके मंत्री बेल आउट करने के लिए अकबकाये से कंपनी और सेक्टर खोज रहे हैं. रोज सरकार के मंत्री घर से निकल कर सड़क पर आ जाते हैं और लोगों को रोक-रोक कर पूछते हैं; "बेल आउट चाहिए?"

सामने वाला अगर ना कह देता होगा तो निराश हो जाते होंगे. फिर खोज पर निकल जाते होंगे.

सरकार की ये हालत देखकर लग रहा है जैसे चुनाव तक मंत्रियों के परफॉर्मेंस का पैमाना बेल आउट ही होगा. कौन सा मंत्री बेल आउट के लिए कितने केस लाया?

देखेंगे कि वित्त मंत्रालय के अफसर होम लोन से लेकर पर्सनल लोन लेने वालों को बेल आउट करते हुए दिखेंगे. हो सकता है कोई अफसर रतीराम जी तक को बेल आउट करने के लिए रोज उनके दूकान के चक्कर लगता हुआ दिखे. अगर रतीराम जी को बेल आउट की ज़रूरत नहीं है तो उनके ऊपर प्रेशर तक दे सकता है. आपको बेल आउट लेना ही पड़ेगा. कैसे नहीं लेंगे? अगर नहीं लिया तो हम आपको देख लेंगे.

अफसर रतीराम जी को बेल आउट करने पर पूरी तरह से उतारू हो जायेगा.

चुनावी भाषण में बेल आउट का ही जिक्र होगा. प्रधानमंत्री कहेंगे; "हमने जनवरी महीने में कुल चार लाख किराना स्टोर्स को बेल आउट पैकेज दिया. आपको ये जानकर खुशी होगी कि हमारे मंत्रियों ने बेल आउट के लिए दिन-रात एक कर दिया. आजतक किसी सरकार ने इस तरह से बेल आउट कार्यक्रम नहीं चलाया."

पूरा माहौल ही 'बेल आऊटीय' हो जायेगा. जनता कहलाने वाले लोग एक-दूसरे से पूछेंगे; "तुम्हें बेल आउट मिला कि नहीं?"

दूसरा बोलेगा; "हमने तो तीन बेल आउट एन्जॉय किया. तुम्हें कितना मिला?"

मंदी के इस दौर में कहीं तो तेजी दिखेगी. कुछ तो बढ़ेगा. घोटाला करने वाले उद्योगपति बेल मांगेंगे और सरकार बेल आउट करने के लिए सेक्टर और कंपनियों को खोजेगी.

Thursday, January 15, 2009

दुर्योधन की डायरी - पेज २३१६




आज दुशाला बहुत खुश है. साथ में हम भाई लोग भी. आख़िर आज दुशाला का जन्मदिन है. जन्मदिन की खुशी बाकी सभी खुशियों से अलग होती है. शादी-व्याह पर उतनी खुशी नहीं होती जितनी जन्मदिन पर होती है. शादी-व्याह पर भी खुशी होती ही है लेकिन रूपये-पैसे के खर्च की वजह से कुछ-कुछ सैडनेश अपने आप क्रीप-इन कर जाती है.

वहीँ जन्मदिन की खुशी में किसी सैडनेश की मिलावट का चांस बिल्कुल नहीं रहता. आख़िर दुशाला के जन्मदिन पर भारी मात्रा में रुपया-पैसा वसूल कर लिया जाता है. सैडनेश दिखाई भी देती होगी तो उनके चेहरों पर जिनसे पैसा वसूला जाता है.

मुझे याद है. पहली बार जब दुशाला ने सार्वजनिक तौर पर अपना जन्मदिवस मनाया था तो उसका नाम 'स्वाभिमान दिवस' रखा था. जन्मदिवस को स्वाभिमान दिवस के रूप में मनाने का कारण भी बड़ा मजेदार था. दुशाला चाहती थी कि उसके जन्मदिन पर द्रौपदी जल-भुन जाए. इसीलिए उसने अपने जन्मदिवस को स्वाभिमान दिवस के रूप में मनाया था.

उसका मानना था कि द्रौपदी का अपना कोई स्वाभिमान तो बचा नहीं था. ऐसे में दुशाला के जन्मदिन को स्वाभिमान दिवस के रूप में मनाने से द्रौपदी का जल-भुन जाना पक्का था.

तीन महीने से तैयारियां चल रही हैं. द्वार बनाये जा रहे हैं. पोस्टर छपाए जा रहे हैं. निमंत्रण पत्र छप रहे हैं. नगर को सजाया जा रहा है. नगर के बीचों-बीच एक चिल्ड्रेन पार्क पर कब्जा कर लिया गया है. दुशाला की इच्छा है कि वह इसी चिल्ड्रेन पार्क में प्रजा के बीच अपने जन्मदिवस पर खीर खाने का शुभ कार्य करे.

और फिर उसे सबकुछ करने का अधिकार है. दुशाला राजपुत्र सुयोधन की बहन है. सौ भाईयों की एक बहन. ये बात कोई साधारण तो नहीं. सुयोधन की बहन और महाराज धृतराष्ट्र और महारानी गांधारी की पुत्री का जन्मदिवस है.

दुशाला का जन्मदिवस भी अच्छे दिन और अच्छे पैसे लेकर आता है. जन्मदिवस की तैयारियों के तहत सबसे पहले राज्य के व्यापारियों से पैसा वसूला गया. बाद में व्यापरियों से टैक्स के रूप में पैसा वसूलने वाले सेल्स टैक्स अफसरों से पैसे की वसूली कर ली गई है. सड़क निर्माण के लिए काम करने वाले अभियंताओं से भी खूब पैसा खींचा गया है. मामाश्री ने सुझाव दिया था कि मदिरा के ठेकेदारों से वसूल की जाने वाली रकम इसबार बढ़ा दी जाए. उनके सुझाव की वजह से इसबार भारी मात्रा में वसूली की गई है.

आने-जाने वाले वाहनों से वसूली करने का काम तो वैसे भी जन्मदिवस के एक महीने बाद तक चलता ही रहेगा.

मुझे याद है. पहली बार जब दुशाला द्बारा सार्वजनिक तौर पर जन्मदिवस मनाया गया था, उस वर्ष भी मामाश्री के कहने पर दुशासन और जयद्रथ ने पैसा वसूली का महत्वपूर्ण कार्य किया था. वो तो बाद में कर अधिकारियों ने दुशाला से उसके जन्मदिवस के उपलक्ष में वसूल किए गए पैसों का हिसाब मांगकर थोड़ा लफड़ा खड़ा करने की कोशिश की थी लेकिन मामाश्री ने साबित कर दिया कि ज़बरन वसूली की कोई घटना नहीं हुई थी. ये तो प्रजा के लोगों ने प्यार से अपनी राजकुमारी को धन भेंट किया था.

प्रजा द्बारा धन भेंट करने की वजह से ही उसके बाद हमलोग उसका जन्मदिवस आर्थिक सहयोग दिवस के रूप में मनाते हैं. मुझे याद है, दुशासन ने हँसते हुए कहा था कि आर्थिक सहयोग दिवस के रूप में जन्मदिवस मनाने से प्रजा के बीच संदेश जाता है कि अगर वो आर्थिक सहयोग में हिस्सा नहीं लेगी तो दुशासन प्रजा के ख़िलाफ़ असहयोग पर उतर आएगा.

ऐसे में प्रजा को सहयोग देने वाला कोई दिखाई नहीं देगा.

दुशाला के जन्मदिवस के उपलक्ष में जब मैंने उसे उपहार स्वरुप कुछ देने की मंशा जताई तो उसने कहा कि अगर मैं कुछ देना ही चाहता हूँ तो उसी जगह पर दुशाला की प्रतिमा स्थापित करवा दूँ जहाँ पिताश्री की प्रतिमा है. मैंने उसे वचन दिया है कि मैं अलग से वसूली का कार्यक्रम चलाकर नगर के बीचों-बीच किसी पार्क में दुशाला की प्रतिमा स्थापित करवाऊंगा.

परसों ही कपड़े का एक व्यापारी जन्मदिवस के उपलक्ष में दुशाला के लिए एक नया ड्रेस देकर गया है. इसबार वो बिल्कुल नए तरह का ड्रेस पहनना चाहती थी. उसे किसी इमेज डेवेलपमेंट एजेन्सी ने बताया है कि प्रजा के बीच अपनी इमेज को और लोकप्रिय बनने के लिए उसे नए तरह के कपड़े पहनने की ज़रूरत है.

अज शाम को जन्मदिवस के उपलक्ष में वह पचास लोगों को कम्बल बांटना चाहती है. हँसते हुए बता रही थी कि कम्बल बांटने जैसा महत्वपूर्ण राजकीय कार्य अगर जन्मदिवस पर किया जाय तो इसके दूरगामी परिणाम देखने को मिलते हैं. दुशासन ने किसी व्यापारी की दूकान से कल शाम को ही कम्बल उठवा लिया था.

जन्मदिवस की ये बहार ऐसे ही चलती रही. जन्मदिवस ऐसा ही मनाया जाता रहे. प्रजा ऐसे ही धन भेंट करती रहे. और क्या चाहिए...?

Saturday, January 10, 2009

उद्योगपति फनिल डुबवानी की डायरी - तारीख ०७.०१.२००९




आज आई टी कंपनी चलाने का नाटक करने वाला और रीयल में रीयल इस्टेट कंपनी चलाने वाला एक उद्योगपति कन्फेशनल मोड में आ गया. उसके इस मोड में आने का नतीजा ये हुआ कि लोगों का विश्वास उसकी कंपनी से उठ गया. लोगों के विश्वास उठने का नतीजा ये हुआ कि उसकी कंपनी के शेयर के दाम ज़मीन पर आ गए. शेयर के दाम ज़मीन पर आने का नतीजा ये हुआ कि कोई उन शेयरों को ज़मीन से भी उठाने के लिए तैयार नहीं है.

कौन झुके मिट्टी उठाने के लिए?

नया खिलाड़ी था, इसलिए पकड़ा गया. मैं कहता हूँ पाप करो तो उसे पचाने की हैसियत रखो. अगर पाप को दबा नहीं सकते तो उद्योगपति कहलाने में शर्म आनी चाहिए. वैसे फिर सोचता हूँ कि ये भी ठीक है कि बेचारा ऐसी हैसियत कहाँ से लाता? बेचारे के पिताजी किसान थे. हमारे पिता की तरह थोड़े न थे जो हमें सबकुछ सिखा कर स्वर्ग सिधारे.

हमारे पिताजी ने तो यहाँ तक सिखाया कि 'पब्लिक डोमेन' में लड़ाई कैसे करनी है. इसके पिताजी कैसे सिखाते? सारा जीवन तो किसानी में काट दिया.

एक ही घोटाला करने पर पकड़ लिए जाते हैं ये लोग. क्या उद्योग चलाएंगे ऐसे लोग? ऐसे लोगों को उद्योगपति कहलाने में शर्म आनी चाहिए.

मैं तो कहता हूँ कि उद्योग चलाने की काबिलियत का इम्तिहान होना चाहिए. इम्तिहान लेने वाले जबतक इस बात से स्योर नहीं हो जाते कि उद्योगपति पाँच हज़ार करोड़ के कम से कम पाँच घोटाले करके निकल सकता है, उसे शेयर मार्केट से पैसा उगाहने का लाईसेंस मिलना ही नहीं चाहिए.

हमें देखो. आजतक केवल शेयर मार्केट में ही घोटाला नहीं किया. डुप्लीकेट शेयर सर्टिफिकेट की ट्रेडिंग करवा दी लेकिन मजाल किसी की जो पकड़ ले? रक्षा मंत्रालय के क्लासीफाईड डाक्यूमेंट हमारे आफिस से मिले लेकिन मजाल किसी की है जो हमें फंसा दे. अभी हाल ही में दो घंटे के लिए मीडिया में न्यूज़ दिखाई दी कि मैंने कंपनी के काम के लिए जो लोन लिया था, उसे हीरा व्यापारियों के थ्रू मार्केट में लगवाया ताकि मेरी कंपनी के शेयर के दाम बढ़ सकें. लेकिन मजाल किसी की जो मुझे फंसा दे.

वहीँ ये दो कौडी का उद्योगपति केवल पाँच हज़ार करोड़ रुपया खाकर फंस गया. लानत है. और फ़िर फंसता कैसे नहीं? मैं कहता हूँ कि कंपनी तुम्हारी है तो कंपनी के शेयर भी तुम्हारे पास रखो. कम से कम चालीस परसेंट तो रखो. पागल आदमी था. आठ परसेंट रखकर उसे भी प्लेज करने चला गया. आठ परसेंट शेयर रखकर सेंट परसेंट कैश लोगे तो कैसे चलेगा?

ऐसे पागलों की वजह से ही लोग भारतीय उद्योगपतियों को लोग शक की निगाह से देखने लगे हैं. ऐसी छोटी-छोटी घटनाओं से बाहर के लोग ये सोचते हैं कि भारतीय उद्योगपति घोटाले करके उसे पचाने की हैसियत खोते जा रहे हैं. लेकिन सच में ऐसा नहीं है. जबतक हमारे जैसे पुराने और अनुभवी उद्योगपति हैं, पाचन शक्ति का विकास होता रहेगा.

असल में मामले में इसलिए पकड़ा गया क्योंकि आधे से ज्यादा शेयर कैपिटल दस-पन्द्रह लोगों में ही था. हमें देखो, पिछले साल हमने शेयर मार्केट से पैसा उगाहा. लाखों लोगों से तीन-तीन हज़ार लेकर कितने हज़ार करोड़ रुपया ले लिया. किसी को महसूस तक नहीं हुआ. किसे होगा? तीन-तीन हज़ार इन्वेस्ट करने वाले तीन हज़ार के लिए आँसू थोड़े न बहायेंगे. आंसू तो वे लोग बहायेंगे जिनका हजारों करोड़ लगा हुआ है. बस बेचारा इसी में मारा गया.

मुझे तो लगता है कि इसका मीडिया ट्रायल करके ही दफनाने की कवायद शुरू हो गयी है. वैसे सच कहूं तो आज की तारीख में मीडिया ही सबकुछ है. वही पुलिस, वही वकील, वही जज और वही सरकार. अच्छा किया जो मैंने मीडिया में पैसा लगाया.

सोच रहा हूँ इसकी कंपनी के सारे शेयर खरीद लूँ. बाद में साबित कर दूँगा कि आई टी कंपनी का कैश निकालकर ही इसने रीयल इस्टेट कंपनी खड़ी की है. अगर सरकार के लोगों से हिसाब बैठ गया तो रीयल इस्टेट कंपनी अपनी हो जायेगी. और फिर सरकार के लोगों से हिसाब कैसे नहीं बैठेगा? सारी ज़िन्दगी हिसाब बैठाने में ही खर्च कर दी. ऐसे में भी हिसाब नहीं बैठेगा तो लोग मुझपर लानत भेजेंगे.

आईडिया अच्छा है. अभी तो मेरे मित्र पार्टी के लिए लोकसभा उम्मीदवार घोषित कर रहे हैं. उन्हें समय मिले तो तो हिसाब बैठाने का काम शुरू करता हूँ.

नोट:

डायरी का ये पेज मैंने खास तौर पर इसलिए लिखा है ताकि मेरा बेटा आज से बीस साल बाद जब इस पेज को देखे तो उसे अपने पिता पर गर्व हो. साथ में उसे अपने पिता की हैसियत का अंदाजा भी लगे.

Friday, January 9, 2009

हड़ताली चिट्ठाकार........




सं)वैधानिक अपील: ब्लॉगर मित्रों से अनुरोध है कि अगड़म-बगड़म पोस्ट को सीरियसता के साथ न लें.

जाड़े के मौसम से हड़ताल का मौसम आ जुड़ा है. हड़ताल सुनकर मन में भाव उत्पन्न होते हैं जैसे कुछ लोग ताल ठोंककर बाकी लोगों को हड़का रहे हैं. अब देखिये न, ट्रक वाले हड़ताल पर हैं. सब्जी, आटा, चावल वगैरह की किल्लत तो थी लेकिन राहत की बात थी कि तेल मिल रहा था.

ऐसा नहीं है कि तेल मिल रहा है तो लोग तेल ही पी जायेंगे और सब्जी आटा वगैरह को भूल जायेंगे. बात दरअसल ये है कि तेल मिल रहा है, इस बात पर संतोष कर सकते थे कि कुछ तो मिल रहा है. लेकिन तेल मिलने से आम आदमी को मिल रही खुशी इन तेल अफसरों को नहीं भायी और इन्होने भी हड़ताल का नगाड़ा बजा दिया.

कल टीवी न्यूज़ चैनल वाले बता रहे थे कि तेल-वेल की बड़ी किल्लत है. इसके प्रमाण में उन्होंने पेट्रोल पम्पों पर खड़े लोगों का इंटरव्यू दिखाया. इंटरव्यू देने वाले बोलते समय तेल न मिलने के दुःख से थोडी देर के लिए ही सही, उबरे हुए दिखाई दे रहे थे.

आख़िर टीवी पर ख़ुद को देखने से दुःख कुछ तो कम होता ही है.

देखते-देखते मैंने सोचा कि ये अच्छा है कि हम ब्लॉगर लोग सरकारी ब्लॉगर नहीं हैं. अगर होते तो सरकार द्बारा सैलरी न बढ़ाए जाने पर हड़ताल पर चले जाते. तमाम तरह की डिमांड ठोक देते. डिमांड देखकर सरकार हलकान हो रही होती.

सोचिये जरा, कि क्या नज़ारा होता.....शायद कुछ ऐसा;

सरकार ने चिट्ठाकारों की सैलरी नहीं बढ़ाई. चिट्ठाकार चाहते हैं कि उनकी सैलरी में पूरे तीस प्रतिशत की बढोतरी हो. चिट्ठाकारों का एक गुट सुबह पोस्ट लिखने के एवज में साल के चार महीनों के लिए जाड़ा भत्ता मांग रहा है. महीने में तीस से ज्यादा पोस्ट लिखने वाले चिट्ठाकारों का एक गुट सैलरी में पूरे पचास प्रतिशत की बढोतरी चाहता है. पाँच से ज्यादा ब्लॉग लिखने वाले चिट्ठाकार क्वांटिटी अलावेंस की डिमांड कर रहे हैं.

पॉडकास्ट चढ़ाने वाले चिट्ठाकार इंटरटेनमेंट अलावेंस की डिमांड कर रहे हैं. कार्टून बनानेवाले चिट्ठाकार आर्ट अलावेंस की मांग कर रहे हैं.

चार्टर ऑफ़ डिमांड में सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि हिन्दी सेवा करने के एवज में चिट्ठाकारों ने सरकार के हिन्दी मंत्रालय से साहित्य अकादमी की तर्ज पर एक चिट्ठा अकादमी की मांग की है. चिट्ठा अकादमी के अध्यक्ष पद के लिए गुटबाजी शुरू हो चुकी है.

सरकार ने चिट्ठाकारों की डिमांड ठुकरा दी है. सरकार के इस 'ठुकराहट' के जवाब में सारे चिट्ठाकार हड़ताल पर चले गए हैं. आज हड़ताल का उन्नीसवां दिन है.

सरकार के हिन्दी मंत्रालय द्बारा चिट्ठाकारों को मनाने की कोशिश नाकाम हो चुकी है. हिन्दी मंत्री ने एक चिट्ठी लिखकर चिट्ठाकारों से हड़ताल ख़त्म करने की अपील की थी लेकिन उनकी अपील को ठुकरा दिया गया. ठुकराने का कारण बड़ा मजेदार है.

दरअसल हिन्दी मंत्री ने अपनी अपील में लिखा था;

"आप सब चिट्ठाकार हिन्दी की सेवा करते हैं. इसके लिए हम आपके आभारी हैं. सरकारी नीति के तहत जो काम हम नहीं कर पाते और वही कोई दूसरा कर देता है तो हम फट से उसके आभारी हो जाते हैं. लेकिन विगत कुछ दिनों से आपके लेखन स्थगित करने की वजह से हिन्दी सेवा-विहीन हो गई है. उसकी हालत बड़ी ख़राब है. आपलोगों की सेवा न पाकर हिन्दी दुखी हो गई है. इसलिए सरकार की तरफ़ से हिन्दी मंत्री की हैसियत से मैं आपसे अपील करता हूँ कि आप अपनी हड़ताल वापस ले लें."

सलाह-मशविरे के बाद चिट्ठाकार हड़ताल वापस लेने पर राजी हो गए थे. तभी आंग्ल-भाषा विरोधी एक चिट्ठाकार ने अड़ंगा लगा दिया. उनका कहना था कि; "सरकार का हिन्दी मंत्री अपने पत्र में अपील जैसे अंग्रेज़ी शब्द का इस्तेमाल कैसे कर सकता है? ये सरकार अभी भी अंग्रेजों की गुलाम है. हम हड़ताल वापस नहीं लेंगे."

लीजिये. हड़ताल वापस नहीं हुई.

चिट्ठाकारों की हड़ताल का असर सब क्षेत्रों में देखने को मिला. इस असर का असर यह हुआ कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक कमिटी का गठन किया. इस कमिटी में हिन्दी मंत्री, सांस्कृतिक मंत्री, सदाचार मंत्रालय के राज्य मंत्री थे. इस कमिटी ने चिट्ठकारों से मुलाकात की.

सदाचार राज्यमंत्री ने शास्त्री जी से हड़ताल तोड़ने का अनुरोध किया. साथ ही शास्त्री जी से तुंरत चिट्ठाकारिता शुरू करने का अनुरोध भी किया.

शास्त्री जी के भी हड़ताल में शामिल होने के असर के बारे में बताते हुए सदाचार राज्य मंत्री ने कहा; "शास्त्री जी, आपको ये जानकर दुःख होगा कि सरायकेला के राजेश ने अपनी माँ को वृद्धाश्रम भेज दिया. कह रहा था कि उसने आपसे सलाह लेने के लिए एक पत्र लिखा था. माँ को वृद्धाश्रम भेजने के बारे में आपका मार्गदर्शन चाहता था. लेकिन आपके चिट्ठालेखन स्थगित करने की वजह से उसे जवाब ही नहीं मिला. जब पन्द्रह दिन तक जवाब नहीं मिला तो बोर होकर उसने अपनी माँ को वृद्धाश्रम भेज दिया."

मंत्री जी की बात सुनकर शास्त्री जी को बहुत दुःख हुआ. उन्होंने हड़ताल के अपने निर्णय पर विचार करने का समय माँगा ही था कि मंच पर बैठे चिट्ठाकारों ने नारा लगाना शुरू आर दिया....

हमें फोड़ने की ये कोशिश
नहीं चलेगी नहीं चलेगी

नारे सुनकर सदाचार राज्य मंत्री मुस्कुराने लगे. उन्हें चिट्ठकारों में वोटर दिखाई देने लगे थे.

अभी वे मुस्कुरा ही रहे थे कि हिन्दी मंत्री ने अपने ज्ञापन में अपील शब्द पर फ़िर से विचार करने का आश्वासन देना शुरू किया. उन्होंने कुछ सोचने के बाद चिट्ठकारों से पूछा; "अच्छा, अगर मैं अपील की जगह अनुरोध शब्द यूज करूं तो आपलोग संतुष्ट हो जायेंगे?"

लीजिये अपील शब्द ठीक करने के चक्कर में यूज शब्द का इस्तेमाल कर डाला. हिन्दी रक्षक चिट्ठाकार और गरम हो गया. अब तो हड़ताल वापस लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता.

मंत्रियों और चिट्ठाकारों में फिर से बहस शुरू हो गई. बहस चल ही रही थी कि इस हड़ताल के असर के बारे में बताते हुए हुए सांस्कृतिक मंत्री बोले; "अब देखिये न. आपलोग तो हड़ताल पर बैठ गए. लेकिन इसका क्या असर हो रहा है उसके बारे में सोचा है आपने? कल ही जनता एक रेलवे स्टेशन पर नारे लगाने लगी. लोग कह रहे हैं कि चिट्ठाकारों की हड़ताल की वजह से जब से ज्ञान दत्त जी ने ब्लॉग लिखना बंद किया है, लोगों को रेल यातायात पर कोहरे के असली प्रभाव का पता ही नहीं चल रहा है. लोग सरकार से कह रहे हैं कि सरकार चिट्ठकारों की हड़ताल वापस करवाए. चारों तरफ़ हाहाकार मच गया है."

सांस्कृतिक मंत्री अभी ये बात बता ही रहे थे कि हिन्दी मंत्री बोले; "और वो वाली बात बताईये. वो इतिहास वाली."

उनकी बात सुनकर सांस्कृतिक मंत्री बोले; "हाँ. और वो. जब से आपलोग हड़ताल पर गए हैं, इतिहास प्रेमी दुखी हो गए हैं. डॉक्टर अमर कुमार जी ने काकोरी के शहीदों के बारे में पिछले सोलह दिनों से कुछ नहीं लिखा. आप ख़ुद सोचिये, इतिहास में सोलह दिनों का गैप बहुत बड़ा गैप होता है. इतिहास प्रेमी जनता सड़कों पर उतर आई है. इतिहास के बारे में जानने के लिए हाहाकार मचा हुआ है."

....जारी रहेगा....(?)

Tuesday, January 6, 2009

हत्या करने के कैसे-कैसे बहाने....




अखबार में छपी रिपोर्ट देख रहा था. दिल्ली पुलिस के अफसर ने प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि साल २००८ में दिल्ली में हत्या की जितनी वारदातें हुईं, उनमें से सत्रह प्रतिशत वारदातें छोटे-मोटे कारणों की वजह से हुईं. मतलब ये कि कारण ऐसे थे, जिनपर किसी की हत्या कर देना कुछ ज्यादा ही हो गया. पिछले साल आंकड़ा चौदह प्रतिशत था.

मतलब छोटी-छोटी बातों की वजह से हत्या की घटनाओं में ग्रोथ की ये रेट देश के जीडीपी की ग्रोथ रेट से भी ज्यादा है. ग्रोथ की ये रेट संतोषजनक है?

बातें भी कितनी छोटी-छोटी. पढ़कर मन छोटा हो गया. मसलन एक साहब अपने घर के सामने अपनी बकरी बाँधा करते थे. बकरी सूसू करती थी. बंधी बकरी और क्या करेगी? लेकिन बकरी की ये आदत उन साहब के पड़ोसी को अच्छी नहीं लगती थी. पड़ोसी ने उन साहब से शिकायत की. हर झगडे की जड़ शिकायत होती है. शिकायत नहीं तो झगड़ा नहीं. तो शिकायत के जवाब में हुए झगडे में बकरी के मालिक ने अपने पड़ोसी की हत्या कर दी.

न रहेगा पड़ोसी, न होगा झगड़ा की तर्ज पर अपना काम कर दिया.

ऐसे ही एक ढाबे पर एक साहब ने पापड़ नहीं दिए जाने पर ढाबे के एक कर्मचारी की हत्या कर दी. एक साहब ने उनके कपड़े न धोने की वजह से अपने भाई की पत्नी की हत्या कर दी. कपड़ा धुला नहीं इसलिए साहब ने हत्या का दाग अपने दामन पर लगा लिया.

अच्छा है. दाग कहीं तो लगना चाहिए. धुले हुए कपड़ों पर न सही, तो दामन पर ही सही.

समाचार तो क्या है, समाज में हो रहे क्रांतिकारी परिवर्तनों का लेखा-जोखा है. इसी रेट से छोटी-छोटी बातों पर हत्या करने का अपना कर्तव्य निभानेवाले ऐसे ही काम करते रहे तो कुछ ही सालों में अभूतपूर्व प्रगति देखने को मिलेगी.

सोचिये कि क्या नज़ारा होगा. घर पहुंचकर साहब देखेंगे कि बच्चा कार्टून चैनल देख रहा है. साहब रियल्टी शो देखना चाहते हैं. बच्चा रिमोट देने के लिए तैयार नहीं है. जिद कर रहा है. साहब ने आव देखा न ताव बच्चे को उठाकर ज़मीन पर पटक दिया. न रहेगा बच्चा न चलेगा कार्टून चैनल.

अगर मेरी इस बात पर किसी को ऐतराज हो तो मैंने बताता चलूँ कि इसी साल हमारे शहर में एक साहब ने अपने बेटे की इसलिए हत्या कर दी क्योंकि उनका बेटा टेनिस खेलने में मन नहीं लगाता था. वो क्रिकेट खेलना चाहता था इसलिए साहब ने एक दिन क्रिकेट का बैट बच्चे के सर पर दे मारा. बच्चा मर गया.

अब साहब टेनिस की प्रैक्टिस शायद अकेले करते होंगे.

हत्या की सम्भावनाओं के न जाने कितने नए-नए कारण देखने को मिलेंगे. साहब बाज़ार जाने के लिए रिक्शे पर बैठे. रिक्शा वाला तेज नहीं चला पा रहा है. साहब ने गुस्से में रिक्शा रोकवाया. रिक्शा रोककर साहब ने पास पड़े पत्थर को उठाया और रिक्शेवाले के सिर पर दे मारा.

चलती बस को कोई साहब अपने घर के सामने रोकना चाहेंगे. वहां, जहाँ बस स्टाप नहीं है. कंडक्टर मना करेगा. साहब जेब से पिस्तौल निकालेंगे और चला देंगे. गोली कंडक्टर के दिल के एड्रेस पर. कंडक्टर वहीँ टें बोल जायेगा. साहब अपना कालर ऊपर करते हुए बोलेंगे; "कह रहा हूँ कि गुस्सा मत दिलाओ."

क्या-क्या कारण दिखाई देंगे. आहा...एक साहब ने अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखी. अपने पड़ोसी ब्लॉगर को उस पोस्ट पर टिपियाने के लिए कहा. पड़ोसी आज कुछ ज्यादा ही बिजी है. अपने बच्चे के साथ कंचा खेल रहा है. तीसरी बार रिमाईंड करने पर भी पड़ोसी टिपियाने के लिए समय नहीं निकाल पा रहा है.

बस, पोस्ट-लेखक भाई साहब उठेंगे अपना लैपटॉप हाथ में लेकर आयेंगे और पड़ोसी ब्लॉगर के सिर पर दे मारेंगे..पड़ोसी वहीँ ढेर.

क्या कहा आपने? ऐसा नहीं हो सकता? क्या बात कर रहे हैं? अगर पापड़ न मिलने पर कोई हत्या कर सकता है तो फिर किसी वजह से कर सकता है.