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Friday, August 29, 2008

कोई तो बताये ये है माज़रा क्या....




सुदर्शन मेरे मित्र हैं. पढ़ाते हैं. जब पढ़ते थे तो लिखते भी थे. कल कह रहे थे; "जल्दी-जल्दी बुजुर्ग होने की चाहत कभी-कभी बचपना करवा देती थी." आजकल नहीं लिखते. समय न मिलने की शिकायत है. समय के अभाव की बात होती है तो एक शेर टांक देते हैं. कहते हैं;

आसमाँ गर्दिश में था तो पुरशुकूं थी ज़िन्दगी
जब से घूमी है ज़मीं, हर आदमी चक्कर में है


बुजुर्ग बनने की चाहत में उनका किया हुआ एक बचपना पढिये.

कि महफ़िल में कल जिक्र उनका जो आया
मैं लब को सिये था, न कुछ मैंने बोला
मगर सारी नज़रें थीं मेरी तरफ़ ही
कोई तो बताये ये है माज़रा क्या

तुम्हारा शहर तो बहुत ही अजब है
सभी कुछ यहाँ जगमगाता ही रहता
मगर हर कोई दौड़ता, भागता है
कोई तो बताये, ये हा माज़रा क्या

वो, कल जिसका चर्चा था सारे शहर में
मिला आज मुझको तो तनहा बहुत था
जो मशहूर है, वो अकेला भी है क्यूं
कोई तो बताये ये है माज़रा क्या

ये क्या हो गया है, जुबानें हैं खामोश
सभी पर हैं पहरे, सभी हैं डरे से
वो जब चाहें, जो चाहें, करके निकल लें
कोई तो बताये ये है माज़रा क्या

---सुदर्शन अग्रवाल

Thursday, August 28, 2008

हलवा-प्रेमी राजा




उसने राजा के ऊपर कभी एहसान किया था. राजे-महाराजे होते ही ऐसे थे कि उनके ऊपर कोई न कोई एहसान कर गुजरता था. राजाओं की बेचारगी के किस्सों से इतिहास भरा है. सूर्यवंशी दशरथ जी भी कभी इतनी बेचारगी के दौर से गुजरे कि कैकेयी जी जैसों के एहसान तले दबे. नतीजा हम सभी जानते हैं.

मजे की बात ये कि एहसान से दबे राजा-महाराजा वादा कर डालते थे; "हम तुम्हें एक वचन देते हैं. अभी तो अपनी तिजोरी में रख लो. जब इच्छा हो, भंजा लेना." दशरथ जी से प्रभावित इस राजा ने भी इस आदमी को वचन की हुंडी थमा दिया था. एक दिन इस आदमी ने अपनी तिजोरी में रखे राजा के वचन को निकाला. उसे धोया-पोंछा और उसे लेकर राजा जी के पास पहुँचा. बोला; "वो आपने मुझे जो वचन दिया था, आज मैं उसे भजाने आया हूँ."

राजा जी के पास कोई चारा नहीं था. एक बार तो उन्होंने सोचा कि वचन की इस हुंडी को एक कटु-वचन कहकर बाऊंस करवा दें. लेकिन इस बात की चिंता थी कि अगर ऐसा हुआ तो ये आदमी उन्हें बदनाम कर सकता था. हल्ला मच देगा कि राजा जी के वचन की हुंडी तो बाऊंस हो गयी. एक प्रेस कांफ्रेंस ही तो करना था. राजा की इज्जत धूल में मिल जाती. टीवी न्यूज चैनल वाले चटखारे लेकर राजा की ऐसी-तैसी करने में देर नहीं लगाते.

इन्ही सब बातों को ध्यान में रखकर राजा जी बोले; "अच्छा मांगो. क्या चाहिए तुम्हें?"

वो बोला; "मैं कुछ दिनों के लिए राजा बनना चाहता हूँ. देखना चाहता हूँ कि क्या-क्या मज़ा लूटा जा सकता है."

राजा जी बोले; "ठीक है. तुम बन जाओ राजा." ये कहते हुए राजा जी ने उसे सिंहासन पर बैठा दिया.

इस आदमी ने कंधे पर लटक रही अपनी झोली को महामंत्री के हवाले किया और राजा के सिंहासन पर पसर गया. महामंत्री को हिदायत दी कि उसकी झोली को बहुत संभालकर रखा जाय. आख़िर अब वो एक राजा की झोली थी. बड़ी कीमती.

जिस दिन राज सिंहासन पर पसरा, उसी दिन से मज़ा लूटना शुरू कर दिया. दरबारियों को बुलावा भेजा. जब सारे दरबारी हाज़िर हुए तो उसने आदेश दिया; "सबके लिए सोने की कटोरी में हलवा पेश किया जाय."

हंसी-मज़ाक करते सबने हलवा खाया. दरबारियों को भी खूब मज़ा मिल रहा था. राजा और उसके दरबारियों की शाम हलवामयी होने लगी.

सुबह-शाम हलवे में डूबा ये राजा मस्त था. एक दिन मंत्री ने आकर कहा; "महाराज, पड़ोस के राजा ने हमारे राज्य पर चढ़ाई कर दी है." राजाओं को और काम ही क्या था? शिकार करने से बोर हुए तो पड़ोस के राज्य पर चढ़ाई कर दो.

मंत्री की बात सुनकर राजा बोला; "चढ़ाई कर दी? अच्छा कोई बात नहीं. दरबारियों को बुलाओ."

सारे दरबारी आ पहुंचे. सबके आने के बाद राजा ने फ़िर वही फरमाइस की; "सबके लिए हलवा ले आओ." हलवा खाकर सारे दरबारी खुश. दरबार खारिज.

दूसरे दिन मंत्री फिर दौड़ते हुए आया. बोला; "महाराज पड़ोस के राज्य का राजा तो हमारे नगर में प्रवेश कर चुका है."

राजा ने फिर दरबारियों को बुलाया. फिर वही हलवे की फरमाइस. फिर वही हलवा भक्षण कार्यक्रम और फिर से दरबार खारिज. ऐसे ही एक दिन और बीता.

तीसरे दिन मंत्री फिर दौड़ता हुआ आया. बोला; "महाराज, पड़ोस का राजा तो आपके महल में प्रवेश कर चुका है."

मंत्री की बात सुनकर उसने बिना किसी चिंता के कहा; "महल में प्रवेश कर चुका है? अच्छा, एक काम करो. मेरी झोली ले आओ. वही झोली जो मैंने तुम्हें रखने के लिए दी थी."

झोली को हाज़िर किया गया. उसने अपनी झोली कंधे पर टांगी और वहां से चलने लगा. मंत्री ने कहा; "महाराज कहाँ जा रहे हैं? इस समय सिंहासन छोड़कर जाना उचित नहीं. "

वो बोला; "भइया, मैं तो हलवा खाने आया था. मैंने पेट भरकर अपनी साध पूरी कर ली. अब तुम जानो और तुम्हारे राजा. मैं तो चला." ये कहते हुए वो आदमी निकल लिया.

इस हलवा-प्रेमी राजा का 'लेटेस्ट एडिशन' इस समय हमारे ऊपर शासन तो नहीं कर रहा?

Monday, August 25, 2008

स्टिंग आपरेशन और न्याय-व्यवस्था - एक री-ठेल पोस्ट




(सं) वैधानिक सूचना:

दिल्ली में हुए बीएमडब्लू केस में एनडीटीवी ने एक स्टिंग आपरेशन किया था. इस स्टिंग आपरेशन में दो महान वकील, श्री आर के आनंद और श्री आई यू खान खान को 'वकालत' करते पाया गया था. मैंने ये पोस्ट उस समय लिखी थी. वैसे पिछले दिनों दोनों वकीलों को अदालत ने दोषी करार दे दिया.

मैं इस पोस्ट को फिर से पब्लिश कर रहा हूँ. कारण यह है कि इस पोस्ट पर मुझे एक भी कमेन्ट नहीं मिला था. अब जैसा कि मैं हमेशा से कहता आया हूँ; "मैं कमेन्ट पाने के लिए लिखता हूँ." इसीलिए मेरी आप सब से गुजारिश है कि आप कमेन्ट जरूर करें. बिना पढ़े भी कमेन्ट करेंगे तो चलेगा. बस कमेन्ट कीजियेगा. प्लीज.
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करीब एक सप्ताह हो गया, देश की जनता का इस देश की न्याय व्यवस्था पर से विश्वास उठ गया है. वो भी इसलिये कि, देश के दो विख्यात वकील एक 'स्टिंग ऑपरेशन' में कुछ ऐसा करते दिखे जो न्याय व्यवस्था के हिसाब से ठीक नहीं माना जाता. टीवी चैनल ने इन वकीलों की करतूत दिखाने के साथ-साथ जनता के सामने एक सवाल भी दाग दिया;

'इस स्टिंग ऑपरेशन को देखने के बाद आपका विश्वास क्या देश कि न्याय व्यवस्था से उठा गया है?'

टीवी चैनल जब भी ऐसे सवाल करते हैं, जनता फूली नहीं समाती. जनता को लगता है कि देश के लिए कुछ करने का असली मौका आज हाथ लगा है. अगर उसने संदेश नहीं भेजे तो देश रसातल में चला जाएगा. नतीजा ये हुआ कि जनता ने संदेशों कि झड़ी लगा दी. टीवी चैनल को बताया कि 'आपने ये दिखाकर हमारी आंखें खोल दीं. कमाल कर दिया आपने. हमारा विश्वास सचमुच ऐसी न्याय व्यवस्था से उठ गया.

मानो कह रहे हों; "आज सुबह तक हम अपने देश कि कानून व्यवस्था को दुनिया में सबसे अच्छा मानते थे लेकिन आज हमने ऐसा मानने से इनकार करना शुरू कर दिया है." टीवी चैनल भी कुछ ऐसा बर्ताव करता है जैसे कह रहा हो; " देखा; अगर हम नहीं दिखाते तो तुम्हें कैसे पता चलता कि हमारे देश में क्या हो रहा है? एहसान मानो हमारा कि हम हैं."

सालों से हम ऐसी व्यवस्था देखते आ रहे हैं. लेकिन ऐसा क्यों है कि 'स्टिंग ऑपरेशन' देखने के बाद हमारे चेहरे पर ऐसे भाव हैं जैसे मिस वर्ल्ड का खिताब जितने के बाद उस सुंदरी के चेहरे पर होता है जिसने खिताब जीता है. हम सालों से ऐसी व्यवस्था के शिकार हैं. आंकड़े निकाले जायेंगे तो मिलेगा कि हम सभी न सिर्फ इस व्यवस्था के शिकार हैं, बल्कि इसका हिस्सा भी हैं. न्याय व्यवस्था कि धज्जी उड़ाते हुए न जाने कितनों को देखा जा सकता है. नेता हो या पुलिस, जनता हो या वकील, कोई अछूता नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने कावेरी जल-विवाद में फैसला दिया. लेकिन कर्णाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने नहीं माना. हड़ताल और बंद को लेकर न्यायालय के फैसले को कौन मानता है? हमारी मौजूदा केंद्र सरकार ने तो पिछले दो-तीन सालों में सुप्रीम कोर्ट के कितने ही फैसले विधेयक पास करके रद्द कर दिए हैं. आये दिन हमारी लोकसभा के स्पीकर न्यायपालिका को धमकी देते रहते हैं. तो फिर 'स्टिंग ऑपरेशन' देखकर चहरे पर ऐसे भाव क्यों हैं?

मुझे सत्तर के दशक कि एक हिन्दी फिल्म याद आती है. सुभाष घई ने बनाई थी. नाम था विश्वनाथ. उसमें प्राण साहब ने एक बड़ा ही मजेदार चरित्र निभाया था. गोलू गवाह का चरित्र. एक ऐसा आदमी जिसका काम ही है कोर्ट के बाहर मौजूद रहना और पैसे लेकर किसी के लिए गवाही देना. हम अंदाजा लगा सकते हैं; जब सत्तर के दशक में ऐसा हाल था, तो फिर आज कैसा होगा? तुलना की बात केवल इस लिए कर रह हूँ क्योंकि सुनाई पड़ता है कि ज़माना और खराब हो गया है. नैतिकता करीब ३० से ४० प्रतिशत और गिर गई है.

१९९१ में इस देश में आर्थिक सुधारों की शरुआत हुई. वैसे मुझे आजतक समझ में नहीं आया कि अपने शासन को सबसे अच्छा बताने वाले लोगों को अपने द्वारा किये गए कामों में सुधार कि ज़रूरत क्यों महसूस होने लगी? चलिये ये एक अलग विषय है. आर्थिक सुधारों के साथ-साथ क्या सरकार को और बातों में सुधार की आवश्यकता महसूस नहीं हुई? न्याय व्यवस्था में सुधार, पुलिस में सुधार, शिक्षा में सुधार; ये बातें सरकार के कार्यक्रम में नहीं हैं क्या? चलिये सरकार कि बात अगर छोड़ भी दें, तो हमने क्या किया? आरक्षण पाने के लिए हम ऐसा 'आंदोलन' कर सकते हैं, जिसमें लोगों का मरना एक आम बात है. लेकिन हम ऐसा आंदोलन नहीं कर सकते जिसकी वजह से सरकार से सवाल कर सकें कि हे राजा क्या हमें इन सुधारों कि ज़रूरत नहीं है? और अगर है तो फिर कब शुरू करेंगे आप इन सुधारों को?

हमारी ताक़त केवल आर्थिक सुधारों को रोकने में और आरक्षण पाने के लिए झगड़ा करने में लगी हुई है. टीवी पर बहस करके बात ख़त्म कर दी जाती है. बहस में नेता और विशेषज्ञ आते हैं. साथ में तथाकथित जनता भी रहती है जो सवाल करती है. वास्तव में वह सवाल करने नहीं आती वहाँ पर. आती है ये देखने कि टीवी कि स्क्रीन पर दिखने में मैं कैसा लगता हूँ.

टीवी पर एक बहस देखी मैंने. उसमें एक वकील आये थे. उनसे पूछा गया कि उन्हें क्या लगता है; न्याय व्यवस्था की ऐसी हालत क्यों हैं? क्यों जज और वकील घूस लेते हुए देखे जाते हैं? क्यों गवाह तोड़े जाते हैं या किसी किसी-किसी केस में ख़त्म कर दिए जाते हैं? उन्होने इन सवालों का बड़ा रोचक जवाब दिया. उन्होने बताया; वकीलों को बैठने की जगह नहीं है, अदालत में टाईपराइटर ठीक से काम नहीं करते, बुनियादी सुविधाओं की कमी है. आप खुद सोचिये. सुविधाओं की कमी है, इसलिये लोग घूस लेते हैं! गवाह तोड़े जाते हैं. किसी ने उनसे ये नहीं पूछा कि अगर ऐसी बात है तो फिर आपने क्या किया? कहीँ पर किसी को सुविधाएं बढाने के लिए आवेदन भी किया क्या? शायद अच्छा ही हुआ कि किसी ने नहीं पूछा. उनका जवाब शायद ये होता कि भैया मुझसे क्यों पूछते हो; मैं आम इन्सान हूँ क्या? मैं तो वकील हूँ. मैं न्याय व्यवस्था से तो पीड़ित नहीं हूँ. फिर मुझे क्या पडी है कि मैं सरकार से कहूँ कि सुविधाओं को बढाया जाय.

जब तक हम टीवी कि तरफ देखेंगे कि वो हमें बताये कि हमारे साथ क्या बुरा हो रहा है; जब तक हम संदेश भेजकर अपना नाम टीवी कि स्क्रीन पर देखने कि ललक मन में रखेंगें; जब तक हमारा 'आंदोलन' टीवी के पैनल डिस्कशन तक आकर रूक जाएगा; तब तक कहीँ भी सुधार की संभावना नहीं है. क्योंकि न्याय-व्यवस्था से जुड़े बहुत सारे लोग न्याय नहीं होने देंगे.


आख़िर न्याय व्यवस्था उनके हाथों में है - वे व्यवस्था से पीड़ित नही है.

Thursday, August 21, 2008

कल हमारे शहर में हुए 'औद्योगिक बंद' के कुछ दृश्य....




कल हमारा शहर बंद रहा. कोई नई बात नहीं है. अगर दस दिन भी बिना बंद के निकल जाए तो लोग व्याकुल होने लगते हैं. एक-दूसरे से पूछना शुरू कर देते हैं; "क्या बात है? दस दिन हो गए, एक भी बंद नहीं?" राजनैतिक दलों की क्षमता पर ऊँगली उठाने लगते हैं. लोगों के ऐसा करने से राजनैतिक दलों को शर्म आती है और वे बंद कर डालते हैं.

बंद और हड़ताल सामाजिक जागरूकता की निशानी हैं. वैसे हर बंद के दिन मैं आफिस जरूर जाता हूँ. मेरा मानना है कि साल के ३६५ दिन मेरा आफिस मेरे हिसाब से चलेगा. किसी राजनैतिक पार्टी के हिसाब से नहीं. ये अलग बात है कि कल मुझे पैदल चलकर आफिस आना पड़ा और शाम को पैदल चलकर ही घर जाना पड़ा. कुल मिलाकर २० किलोमीटर पैदल चले. दोस्तों ने गाली भी दी. लेकिन मैंने सोचा अगर साठ किलोमीटर पैदल चलकर लोग सावन के महीने में 'भोले बाबा' को में जल चढ़ा आते हैं तो दस किलोमीटर पैदल चलकर मैं आफिस जा ही सकता हूँ.

इस आने-जाने में कुछ दृश्य दिखाई दिए. मैंने सोचा हमारे शहर के इन दृश्यों से ही शहर की पहचान बनी है. आप लोग भी ये दृश्य पढ़ें (देखेंगे कैसे?) और भविष्य में जब भी इस तरह के दृश्य दिखाई दें तो समझें कि कलकत्ते में हैं.

दृश्य-१

घर से निकलकर जैसे ही सड़क के हवाले हुए हमें आभास हो गया; "बहुत कठिन है डगर आफिस की." सड़क पर आठ-दस क्रांतिकारी टाइप लोग एक जगह खड़े थे. व्यवस्था और अवस्था से नाराज़ ये लोग केन्द्र सरकार को गालियाँ दे रहे थे. ये अलग बात है कि केन्द्र सरकार की तरफ़ से कोई भी इन गालियों को रिसीव कर नहीं आया था. इन क्रातिकारियों ने कुछ गाडियाँ रोककर उनकी हवा निकाल दी थी. एक टैक्सी भी खड़ी थी जिसकी हवा निकल गयी थी. टैक्सी ड्राईवर इस बात से खुश था कि उसकी धुनाई नहीं हुई. टैक्सी की हालत से उसे कोई परेशानी नहीं थी. हम छोटी-छोटी खुशियों से कितने खुश हो जाते हैं. ऐसा होने से हमें बड़े दुखों की परवाह नहीं रहती.

दृश्य - २

मैं करीब चार किलोमीटर पैदल चलकर मेट्रो स्टेशन पहुँचा. जब तक स्टेशन तक नहीं पहुंचे थे तब तक ख़ुद को हौसला देते रहे कि बस कुछ मेहनत और मेट्रो रेल मेरी थकावट दूर करेगा. वहां पहुंचकर देखा कि स्टेशन को बंद कर दिया गया है. स्टेशन के गेट पर पुलिस वाले खड़े थे. उनलोगों ने मुझे अन्दर जाने से रोकते हुए बताया; "ट्रेन सर्विस बंद है." मैंने सोचा बंद करने वाले कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं. आस-पास देखा तो कुछ झंडे लगे हुए थे. ध्यान से देखा तो कुछ दूर पर कामरेड (काम पर रेड मारने वाले) लोग बैठे दिखाई दिए. मैंने पुलिस जी से पूछा; "क्या बात है, आज आप ही बंद करवा रहे हैं?"

वे बोले; "हाँ, आज हम ही बंद करवा रहे हैं." उसके बाद उन्होंने कामरेडों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा; " वैसे भी एक ही बात है. हम बंद करायें चाहे वे"

मैंने कहा; "आप पुलिस हैं कि कामरेड?"

वे बोले; "जो समझ लें. आप हमें पुलिसरूपी कामरेड भी कह सकते हैं. या फिर कामरेडरुपी पुलिस."

उनकी बात सुनकर हम उनसे बड़े प्रभावित हुए. कामरेड से पिटने का जितना डर बना रहता है, उसका दो गुना ज्यादा इस पुलिसरुपी कामरेड से लगा. इतने में देखा कि अचानक एक लोकल टीवी न्यूज चैनल की गाड़ी आकर रुकी. जैसे ही गाड़ी के अन्दर से हाथ में कैमरा लिए संवाददाता उतरा, सारे कामरेड एक होकर मेट्रो रेल के गेट के सामने आ गए और नारा लगाने लगे; "इन्कलाब जिंदाबाद."

पता नहीं कैसा इन्कलाब है जिसे हर दिन नारा लगाकर री-न्यू करना पड़ता है.

दृश्य - ३

मैंने निश्चय किया कि अब तो आफिस जाऊंगा ही. पैदल जाऊंगा. मेट्रो स्टेशन से आफिस की तरफ़ पैदल चल दिया. कुछ दूर चलने पर देखा कि कलकत्ते की सबसे चौड़ी सड़कों में से एक पर क्रिकेट का मैच खेला जा रहा है. टुपलू, बापी, देबू, सोना, खोका टाइप लड़के अपने क्रिकेटीय गुड़ों का प्रदर्शन करने में जुटे हैं. बैट को घुमाया जा रहा है. बैट की मार खाकर गेंद मुहल्ले भर की सैर कर रही है.

इन खिलाड़ियों की हौसला आफजाई के लिए पाड़ा (मोहल्ला) के तमाम संतू काकू, सुजीत काकू टाइप बुजुर्ग बैठे हुए हैं. इनका चेहरा देखने से लग रहा है कि इन्हें सचिन तेंदुलकर को बैट करते देख उतनी खुशी नहीं होती जितनी इन टुपलू और सोना टाइप खिलाड़ियों के लिए हो रही है.

ये काकू लोग वही हैं जो सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं. जब तक नौकरी में थे, इनलोगों ने केवल फाईलें बनाने का काम किया. एक दिन इन्हें पता चला कि ये साठ साल के हो चुके हैं. ख़ुद की बनाई गई फाईलों को सरकारी आफिस के हवाले कर वहाँ से चलते बने. अब ये अपने सारे गुण मुहल्ले के इन लड़कों को दे रहे हैं. जिस दिन गुणों का ट्रान्सफर पूरा हो जायेगा, ये इस दुनियाँ से सटक लेंगे. ये तो केवल इसलिए जी रहे हैं ताकि गुणों को ट्रान्सफर पूरा कर सकें.

दृश्य - ४

हम करीब दो किलोमीटर और पैदल चले. रास्ता कम करने के चक्कर में गली कूचों से होकर निकल रहे थे. अचानक एक जगह देखा कि हमारे मुहल्ले के सुमू दा टाइप एक व्यक्ति तीन-चार लोगों को लिए बैठे थे. चाय की दूकान खुली हुई थी. उसी दूकान पर पान का भी इंतजाम था. मैं पान खाने के लिए रुका तो 'सुमू दा' को बात करते सुना. कह रहे थे; "अफगानिस्तान में असल में क्या हुआ वो मैं बताता हूँ. देखो, वहाँ तो पहले शासन में सारे भारतीय और रूसी लोग थे. अमरीका को ये बात अच्छी नहीं लगी इसलिए उसने अफगानिस्तान को अपने कब्जे में ले लिया."

विश्व राजनीति के उनके ज्ञान से प्रभावित बाकी के लोग उन्हें बड़े ध्यान से सुन रहे थे. मैंने सोचा 'सुमू दा' से अगर मैं कुछ बात करता तो बात-चीत कैसी रहती. शायद ऐसी;

- सुमू दा नमस्कार.
- ऐ, क्या करता है? आदमी देखकर अभिवादन करना नहीं आता तुम्हें?
- क्यों, क्या हुआ? नमस्कार करना आपको ठीक नहीं लगा.
- तुम्हें मेरी भेष-भूषा देखनी चाहिए और उसके हिसाब से अभिवादन करना चाहिए.
- मतलब?
- मतलब ये कि तुम्हें हमें कहना चाहिए; 'कामरेड सुमू दा, लाल सलाम.'
- अच्छा अच्छा. मैं करेक्ट कर देता हूँ. कामरेड सुमू दा, लाल सलाम.
- लाल सलाम. बोलो क्या बात करनी है?
- ये आपने औद्योगिक बंद क्यों किया?
- देखो, जब से बुद्धदेव बाबू मुख्यमंत्री बने हैं, वे उद्योग को बढावा देना चाहते हैं, इसलिए हमने ये औद्योगिक बंद किया.
- लेकिन उद्योग को बढावा देने के लिए कहा है उन्होंने.
- नहीं समझे तुम. उन्होंने कहा था कि जो कुछ भी करो, वो सब औद्योगिक होना चाहिए.
- फिर?
- फिर क्या? हम औद्योगिक क्रान्ति नहीं कर सकते तो औद्योगिक बंद कर रहे हैं. आख़िर औद्योगिक ही तो करना है.
- अच्छा, अब बात समझ में आई.
- ठीक है. मैंने आपकी बात समझ ली. अब मैं चलता हूँ.
- अरे, चाय तो पीकर जाओ.
- नहीं चाय नहीं, मैं तो केवल पान खाऊंगा.
- क्यों? केवल पान क्यों खाओगे?
- मुझे बहुत दूर तक पैदल चलना है. पान खाऊंगा तो लाल-पीक थूकते हुए आफिस तक पहुँच जाऊंगा.
- ऐ, ये तुम्हारा लाल-पीक थूकने में मुझे राजनीति की गंध आ रही है.
- नहीं-नहीं सुमू दा. आप ऐसा न समझें. पान खाना और पीक थूकना मूलरूप से मानवीय काम है. इसमें कोई राजनीति नहीं है.
- तुम सच बोल रहे हो?
- बिल्कुल सच.
- तब ठीक है. तुम पान खा सकते हो.

पान खाकर मैं चल दूँगा. ये सोचते हुए कि पिछले कई सालों में जिस तरह से 'कामरेडी' बढ़ी है, आनेवाले पचास सालों के बाद बंगाल में इंसान पैदा ही नहीं होंगे. यहाँ केवल कामरेड पैदा होंगे.

Wednesday, August 20, 2008

एक चिट्ठी अनूप भइया के नाम




आदरणीय अनूप भइया,

प्रणाम

ज्ञात हो कि प्रणाम शब्द का उपयोग (प्रयोग नहीं) इसलिए किया क्योंकि हमारा हाथ संस्कृत में उतना ही तंग है जितना अंग्रेजी, उर्दू और फ्रेंच में. आपका लिखा हुआ 'अत्र कुशलम तत्रास्तु' लिख देते तो लोग कहते कि चिट्ठी का जवाब दे रहा है वो भी नक़ल करके. इसीलिए मैंने ऐसा नहीं किया. मैंने सोचा पहली चिट्ठी तो असल लिखें, सिलसिला अगर आगे बढ़ा तो नक़ल करने के लिए मौकों की कमी थोड़े न रहेगी..

आपकी चिट्ठी की पहली लाइन पढ़कर ही लगा कि आगे खतरा है. अब देखिये न, एक तरफ़ तो आपने लिखा है परम प्रिय भाई और उसके आगे शिवजी टिका दिया. इसे पढ़कर पता चल गया कि नाम के आगे जी लगाने का मतलब ही है कि चिट्ठी में आगे जी का जंजाल भरा मिलेगा. लिहाजा पहली लाइन पढ़कर कलेजा कड़ा कर लेना पड़ा.

मुझे मिले इस ऐतिहासिक उपाधि 'जेंटलमैन' से कानपुर में ऐसा हंगामा मचेगा, इसकी आशा नहीं थी. मुझे अगर इस बात का जरा भी आभास होता तो मैं प्रत्यक्षा जी से कहता कि वे इस उपाधि को अपने साथ वापस ले जाएँ और किसी ऐसे ब्लॉगर को दे दें जो कानपुर का हो. हाँ ऐसा होने से जेंटलमैन की कानपुरी व्याख्या के बारे में जानने का मौका हाथ से निकल जाता.

वैसे भी आज की ताजा ख़बर के अनुसार इंग्लैंड और अमेरिका सरीखे देशों में इस व्याख्या को लेकर हंगामा मच गया है. ब्रिटिश पार्लियामेंट ने तो एक प्रस्ताव पारित करके बताया कि जेंटलमैन के बारे में कानपुरी व्याख्या की वजह से इतिहास में दर्ज बहुत बड़े-बड़े जेंटलमैनों की बखिया उधड़ सकती है. लिहाजा किसी बड़े आदमी के नाम के साथ जेंटलमैन शब्द को न जोड़ा जाय. अब जब इतने बड़े-बड़े लोग धरासायी हो गए तो मेरी क्या विसात? इस एक व्याख्या की वजह से मेरी जेंटलमैनी एक दिन में ही टें बोल गयी.

वैसे मुझे खुशी इस बात की है कि एक दिन के लिए ही सही, मैं जेंटलमैनत्व को प्राप्त हो गया. लेकिन मुझे नहीं पता था कि इस उपाधि प्राप्ति कार्यक्रम के बाद इस तरह की बातें होंगी जिससे इस महान उपाधि को छोटा बताने के तर्क खोजे जायेंगे. इस छोटा बताने के कार्यक्रम के तहत इस उपाधि को जेंटील तक से धो डाला गया. नतीजा ये हुआ कि उपाधि लत्ता बन गयी. अब मैंने फैसला किया है कि इस लत्ते को ओढ़ने से कोई फायदा नहीं है.

जहाँ तक जेंटलमैन उपाधि के बारे में आपके द्बारा दिए गए कानपुरी तर्क की बात है तो मेरा यही कहना है कि आपको हमारे प्रियंकर भइया के पोएटिक जस्टिस वाली तलवार के वार की चिंता नहीं करनी चाहिए. आख़िर प्रियंकर भइया पोएट हैं. और पोएटिक जस्टिस की तलवार चलाने का हक़ एक पोएट से ज्यादा किसी को नहीं है. वैसे आपकी चिट्ठी के बारे में जब उन्हें जानकारी मिली तो उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि उन्होंने इसबार तलवार न उठाने का फ़ैसला कर लिया है. ऐसे में इस कानपुरी तर्क के बचे रहने की उम्मीद कायम है. हाँ, एक बात जरूर कहनी है कि ये उम्मीद तभी तक कायम है जब तक किसी और दिशा से तलवार नहीं उठ जाती.

कैसे-कैसे सपने संजोये थे. जब से ब्लागिंग में आए हैं, हर दो महीने पर इस बात की चर्चा होती रहती है कि हिन्दी ब्लागिंग में राजनीति होती है. इस राजनीति पर होने वाले चर्चे और लिखी गई पोस्ट से हमें बड़ा हौसला मिला था. जेंटलमैन की उपाधि से लैस हम भविष्य में होनेवाले अखिल भारतीय हिन्दी ब्लॉगर महासभा का चुनाव लड़ने के सपने संजो रहे थे और एक व्याख्या की वजह से सब गुड़ गोबर हो गया. कहाँ मैंने सोचा था कि जेंटलमैन उपाधि का सर्टिफिकेट चमकाते हुए प्रचार करेंगे. और भी हथकंडे अपनाते और इलेक्शन जीत लेते. आख़िर माना हुआ जेंटलमैन अगर धांधली न करे तो दो कौड़ी का जेंटलमैन. लेकिन एक व्याख्या ने सारे सपने चकनाचूर कर दिए.

एक बार फिर से साबित हो गया कि व्याख्या करने वालों और तर्क देने वालों ने इतिहास के बड़े-बड़े महापुरुषों, नेताओं, कवियों, लेखकों, प्रशासकों और यहाँ तक कि ब्लागरों की जेंटलमैनी धूल में मिला दी है. अब देखिये न, इस जेंटलमैनी व्याख्या के बहाने कितने लोग जमीन पर हैं. व्याख्या से साबित कर दिया गया कि समीर भाई की श्रृगाररस की कविता पॉडकास्टित होकर रौद्ररस को प्राप्ति कर लेती है. ये व्याख्या की वजह से ही हुआ है. धन्य हैं व्याख्या करनेवाले जिन्हें दूसरों की जेंटलमैनी जरा भी नहीं भायी.

जहाँ तक बालकिशन को निपटाने की बात है तो मैंने परम्परा का हवाला देकर उन्हें निपटाने की कोशिश की थी. लेकिन समस्या ये है कि बालकिशन अभी तक ख़ुद को यंग जनरेशन का समझता है. पैंतीस साल पार करने के बाद भी बन्दे पर अचानक कम्यूनिष्ट बनने का धुन सवार है. उसने मेरी परम्परा वाली बात को यह कहकर मानने से इनकार कर दिया कि वह यंग जनरेशन का है और यंग जनरेशन को परम्पाराओं पर जरा भी भरोसा नहीं है. उसने तो यहाँ तक कहा कि पैंतीस साल का होने के बाद उसने हर स्थापित परम्परा को तोड़ने का फैसला कर लिया है. अब ऐसे में इस यंग ब्लॉगर को कौन समझाता?

आपकी लिखी चिट्ठी पर प्रत्यक्षा जी ने कमेन्ट नहीं करते हुए लिखा है कि "शिव जी पहले टिप्पणी कर लें ..फिर हम". प्रत्यक्षा जी, मैंने टिप्पणी की जगह पूरी चिट्ठी ही लिख दी है. अब आप मेरी इस चिट्ठी पर कमेन्ट कीजियेगा.

बाकी क्या लिखूं? इस चिट्ठी को तार समझियेगा और एक टिप्पणी जरूर दीजियेगा.

आपका अनुज
शिव

Monday, August 18, 2008

कि ब्लॉगर बन गया जेंटलमैन....




प्रत्यक्षा जी ने रपट लिख डाली. ईस्टर्न इंडिया रीजनल ब्लागर्स मीट की. रपट के शीर्षक के बहाने उन्होंने एक सवाल कर दिया. सवाल है; "ब्लागरों में क्या सुर्खाब के पर लगे होते हैं?" पता नहीं ये सुर्खाब का पर क्या होता है. पता होता तो आर्डर देकर बनवा लेता और उसे लगाकर फोटो खिंचा लेता. प्रत्यक्षा जी के सवाल का जवाब देती उस फोटो को अपने ब्लॉग पर चिपकाता और लिख मारता कि; "बाकियों का तो नहीं मालूम लेकिन मुझमें सुर्खाब के पर लगे हैं. फोटो हाज़िर है. कृपया देख लें."

अनूप जी ने प्रत्यक्षा जी की पोस्ट पर कमेन्ट किया. लिखा; "अब इंतजार है इसकी रनिंग कमेंट्री का." अब अनूप जी के कमेन्ट के जवाब में क्या किया जाय? रनिंग कमेंट्री तो ये होती कि ऐन मीट के मौके पर नवजोत सिंह सिद्दू कमेंट्री कर रहे होते; "ओये गुरु छा गए यार, छा गए. कलकत्ता निवासी दोनों ब्लॉगर कॉफी टेबल पर बैठ चुके हैं. गुरु अब दिल्ली निवासी ब्लॉगर प्रत्यक्षा जी अपने कैमरे से फोटो खींच रही है. टेबल पर रखे सूरजमुखी के फूल की सुगंध हवाओं में वैसे ही रच-बस गई है जैसे हरभजन के उस थप्पड़ की आवाज़ गुरु, जो उसने श्रीसंत को जमाया था....... ब्लॉगर मीट करना उतना ही बड़ा काम है गुरु जितना संजीवनी बूटी से पटे हिमालय को उठा लंका में रखना. लेकिन ख़ुद महापुरुषों ने कहा है कि जहाँ चाह है, वहां राह है. गुरु इन ब्लागरों ने इस बात को एक बार फिर से साबित कर दिया."

लेकिन मीट के चार दिन बाद रनिंग कमेंट्री कैसे हो?

मन में ये बात ज़रूर है कि रनिंग कमेंट्री के बारे में क्या लिखें? लेकिन मैं ठहरा ब्लॉगर. ब्लॉगर इतनी जल्दी हार मान ले, ऐसा कैसे हो सकता है? एक ब्लॉगर को इस तरह से हारते देख बाकी के ब्लॉगर के मनोबल पर बुरा असर पड़ सकता है. इस मनोबल पर पड़ने वाले बुरे असर के सहारे एक पोस्ट ठेलने का मौका हाथ से क्यों जाने दें? नीति भी यही कहती है. ऊपर से इस बात की ललक भी मन में है कि आज से पचास साल बाद जब हिन्दी ब्लागिंग का इतिहास लिखा जायेगा तो हमारा नाम भी वहां दर्ज होगा.

तो हुआ ऐसा कि मुझे चौदह तारीख को पता चला कि प्रत्यक्षा जी कलकत्ते में हैं. मैंने उनसे फ़ोन पर बात की तो उन्होंने बताया कि उन्हें चार बजे तक अपने काम से फुरसत मिल जायेगी. पांच बजे वे एअरपोर्ट के लिए रवाना हो जायेंगी. मैंने प्रियंकर भइया से बात की और हमदोनों इस बात पर सहमत हो गए कि चार बजे तक प्रत्यक्षा जी के होटल पहुंचें. नोट किया जाय कि दो ब्लॉगर एक ही बात पर सहमत भी हो सकते हैं.

खैर, हम दोनों चार बजे तक होटल पहुँच गए. लेकिन प्रत्यक्षा जी तब तक होटल वापस नहीं आई थीं. हमदोनो बैठे ब्लागिंग के बारे में बात करते रहे. साथ में समाज में घटती नैतिकता पर दुखी भी हुए. हमदोनो होटल के कैफे के बाहर बैठे बात कर ही रहे थे कि हमें वहां नए-नए सेलेब्रिटी बने राखी सावंत के बॉयफ्रेंड दिखाई दिए. मैं तो धन्य हो लिया क्योंकि इससे पहले मैंने किसी सेलेब्रिटी के दर्शन नहीं किए थे. वे मुझे देखकर मुस्कुराए. जैसे कह रहे हों; "मैं वही हूँ, जो तुम समझ रहे हो." साथ में याचक की दृष्टि भी थी. उन्हें लगा कि मैं हाथ में एक कागज़ लिए ऑटोग्राफ के लिए उनकी तरफ़ बढ़ने ही वाला हूँ. सच बात तो ये है कि साथ में प्रियंकर भइया न होते तो मैं उनसे ऑटोग्राफ मांग भी लेता. लेकिन मैंने उनकी तरफ़ इस नज़र से देखा जैसे कह रहा होऊँ कि; "केवल ख़ुद को सेलेब्रिटी मत समझो. हम भी सेलेब्रिटी ही हैं. हिन्दी ब्लॉगर हैं हम."

करीब आधे घंटे के इंतजार के बाद प्रत्यक्षा जी आईं. हमने उन्हें नमस्कार किया. उन्होंने हमारी सराहना की. सराहना इस बात की थी कि हमदोनों ने उनका इंतजार किया. उसके बाद हम तीनों कैफे की तरफ़ बढ़ लिए. वहां जाकर हमलोगों ने एक टेबल का स्ट्रेटेजिक सेलेक्शन किया और कुर्सी पर बैठ गए. पांच मिनट तक बात हुई. मेरी और प्रत्यक्षा जी की यह पहली ब्लॉगर मीट थी. शायद यही कारण था कि मैं बहुत खुश था. थोडी देर बाद प्रत्यक्षा जी यह कह कर अपने रूम की तरफ़ चली गईं कि वे अपना सामान वगैरह बाँध लें उसके बाद वापस आयें तो बात आगे बढे.

उनके जाते ही वेटर आया और उसने अपनी अमेरिकी अंग्रेजी में कुछ पूछा. उसके कहने का मतलब निकाला तो समझ में आया कि वह यह जानना चाहता था कि हम कैसा पानी पीना चाहते हैं. टेबल पर रखी दो सौ मिलीलीटर पानी की जो बोतल थी उसका मूल्य पूरे एक सौ पचहत्तर रूपये था. सेल टैक्स, खेल टैक्स वगैरह ऊपर से. उसके कहने का मतलब यह था कि; "मुझे ये बताओ कि टेबल पर रखी पानी की इस बोतल को अफोर्ड कर सकोगे या नहीं?" मैंने उसे अपनी 'यूपोरियन अंग्रेजी' में कुछ कहा जिसका मतलब ये था कि; "भइया अभी अपने ही शहर में हम मेहमान हैं. प्रत्यक्षा जी आएँगी तब हम बताते हैं." वो वेटर ओके ओके करते चला गया. लगा जैसे कह रहा हो; "समझ गए, समझ गए. तुमलोग हिन्दी के ब्लॉगर हो."

खैर, थोडी ही देर में प्रत्यक्षा जी वापस आ गईं. उनके आने के बाद ब्लागिंग पर चर्चा हुई. जिन बातों पर चर्चा हुई, उनके बारे में प्रत्यक्षा जी ने अपनी पोस्ट में लिखा ही है. मेरे बारे में उन्होंने लिखा;

"शिवजी मेरे बनाये परसेप्शन से कहीं ज़्यादा जेंटलमैन लगे , हैं ।"

ब्लागिंग में आकर बहुत कुछ मिला है जी. यही देखिये न कि प्रत्यक्षा जी ने मुझे जेंटलमैन की मानद उपाधि से नवाजा. इतिहास गवाह है कि इतने शहरों में न जाने कितनी ब्लॉगर मीट हुई लेकिन मजाल है कि किसी ब्लॉगर को जेंटलमैन उपाधि से नवाजा गया हो. बहुत सारे ब्लागर्स को अच्छा कहा गया, महान बताया गया लेकिन जेंटलमैन किसी को नहीं कहा गया.

कल देर रात को जब पोस्ट पढ़ रहा था तो एक बार मन में बात आई; 'काश कि डिनर करने से पहले ये पोस्ट दिखाई दी होती. कम से कम दो रोटी ज्यादा खाता. आख़िर जेंटलमैन कहे जाने का गौरव कितने ब्लॉगर को मिलता है?' खैर, इस खुशी को मैंने सुबह नाश्ते में एक पराठा ज्यादा खाकर मनाया. ऊपर से प्रत्यक्षा जी की पोस्ट पर मनीष भइया का कमेन्ट देखा. उन्होंने भी मुझे जेंटलमैन मान लिया. मन तो कर रहा है कि इस उपाधि का एक सर्टीफिकेट बनवा लूँ और दोनों से साइन करवाकर रख लूँ. क्या पता भविष्य में ये सर्टिफिकेट किस-किस काम में आए. हो सकता है अगर अखिल भारतीय हिन्दी ब्लॉगर महासभा के अध्यक्ष पद का चुनाव लडूं तो चुनावी पोस्टर के साथ ये सर्टिफिकेट चिपकाने का मौका मिलेगा.

अब तो ये लगने लगा है कि आगे से किसी ब्लॉगर मीट में गए और अगर कोई नया ब्लॉगर मेरी तरफ़ इशारा करते हुए किसी पुराने ब्लॉगर से पूछ बैठे; "ये कौन हैं?" पुराना ब्लॉगर कहेगा; "अरे तुम्हें नहीं मालूम? यही तो हैं वो जिन्हें कोलकाता ब्लॉगर मीट में जेंटलमैन की मानद उपाधि से नवाजा गया था." मन में तो ये भी आता है कि अपना उपनाम "जेंटलमैन" रख लूँ. बहुत खुश हूँ. खुशी इस बात से और बढ़ गई है कि मैंने और प्रियंकर भइया, दोनों ने प्रत्यक्षा जी से पंगे लिए लेकिन उन्होंने जेंटलमैन केवल मुझे माना.

प्रत्यक्षा जी ने ये भी लिखा;

"प्रियंकर जी और शिव जी से जितने मेरे पंगे हुये उसका तफ्सील से हिसाब किया । कुछ लोगों को गालियाँ दी और कुछ की तारीफ की । फोटो खींची और ब्लॉगर मीट के विधि विधान का पालन किया ।"

पंगों की बात हुई. हमें इस इस पंगे की खूब याद आई. ये वही पंगा था जब हम 'चिरईबुद्धि' नामक उपाधि से नवाजे गए थे. आगे बात ये है कि ब्लॉगर बंधु इस बात पर सोचकर दिमाग खपा सकते हैं कि इन तीनों ने किसे गालियाँ दी और किसकी तारीफ़ की? अब इसके जवाब में क्या कहें. आज सुबह प्रत्यक्षा जी की पोस्ट पढ़कर बालकिशन मुझसे पूछ रहे थे; "मुझे भी गाली दी है क्या?" समझ में नहीं आया कि क्या कहें? हमने तो ये कहकर पल्ला झाड़ लिए कि; "हम नहीं बताएँगे. हमने ब्लॉगर बनते समय पद और गोपनीयता की शपथ खाई थी. अच्छा होगा कि ब्लॉगर बंधु अनुमान लगाते रहें."

हाँ, ये फोटो खीचने के लिए मैं प्रत्यक्षा जी का बहुत आभारी हूँ. उनके पास कैमरा था तो फोटो में हम उतार लिए गए. नहीं तो ऐसा नहीं होता. हमारे फ़ोन का कैमरा काम नहीं करता. प्रत्यक्षा जी के कैमरे ने बचा लिया नहीं तो ये ब्लॉगर मीट बिना फोटो के वैसे ही लगती जैसे सलमान खान शूट पहनकर लगते हैं. प्रियंकर भइया जो पत्रिका लेकर आए थे, उसे मैंने हाथ में लेकर देखा. पत्रिका तो क्या, पूरी किताब थी. उन्होंने मुझे उस पत्रिका की एक प्रति देने का वादा किया है. अगली बार उनसे मिलूंगा तो शायद पत्रिका के साथ लौटूं.

उपसंहार में जी हम तो यही कहेंगे कि ब्लागर्स को मिलते रहना चाहिए. मिलने के मौके मिलें, तो हाथ से निकलने नहीं चाहिए. जिन्हें हम उनके लेखन से जानते हैं, उनसे बात करके उनके बारे में सही-सही जानने का मौका मिलता है. और जैसा कि प्रत्यक्षा जी ने लिखा है;

"और लोगों से मिलने के बाद का कम्फर्ट लेवेल अलग ही होता है । इस लिहाज़ से भी ये मिलना बेहद ज़रूरी रहा."

उन्होंने ये भी लिखा है कि; "फिर फिर साबित हुआ कि पहला इम्प्रेशन हमेशा सही नहीं होता ।"

प्रत्यक्षा जी, मैं आपकी बात से पूरी तरह से सहमत हूँ. यह भी कहना चाह्ता हूँ कि ब्लागिंग में आने के बाद आपसे मिलना मेरे लिए सबसे अच्छी बात रही.

Thursday, August 14, 2008

कल पन्द्रह अगस्त है....




क्लब की छत पर रखा लाऊडस्पीकर आस-पास के वातावारण में देशभक्ति का संचार कर रहा है. कारण है उससे निकलनेवाला गाना, मेरे देश की धरती सोना उगले...हीरा-मोती वगैरह भी उगले... भोंपू के पास ही लहरा रहा तिरंगा क्लब वालों की देशभक्ति को हवा दे रहा है. क्लब के सर्वे-सर्वा सुमू दा अपने लड़कों के साथ बैठे पन्द्रह अगस्त का प्रोग्राम फिक्स कर रहे हैं. दस लड़कों को आना था लेकिन पाँच ही आए. तीन तो सिंह इस किंग देखने गए हैं. बाकी के दो चंदा इकठ्ठा करके अभी तक नहीं लौटे. जो पाँच आए हैं, वे एक बात पर अड़ गए हैं कि शाम के खाने में ड्रिंक के साथ चिकेन बिरियानी रहना चाहिए. सुमू दा चाहते हैं कि मटन बिरियानी रहे. मामला यहीं पर बहुत देर से अटका पड़ा है......कल पन्द्रह अगस्त है.

जनता से निकलकर कुछ लोग गृहमंत्री के कार्यालय के सामने खड़े हैं. ये लोग शिकायत लेकर आए हैं. हर साल पन्द्रह अगस्त आते-आते कम से कम चालीस-पचास आतंकवादी अरेस्ट हो लेते हैं. लेकिन इस बार अभी तक एक भी अरेस्ट नहीं हुआ. जनता को विश्वास ही नहीं हो रहा है कि पन्द्रह अगस्त पहुँच गया है. वे ज्ञापन देकर गृहमंत्री से पूछना चाहते हैं कि कहीं सरकार भूल तो नहीं गई कि पन्द्रह अगस्त के चार-पाँच दिन पहले से आतंकवादी अरेस्ट होने लगते हैं? ...कल पन्द्रह अगस्त है.

सुबह से ये तीसरी बार है कि प्रधानमंत्री का मुख्य सचिव प्रधानमंत्री द्बारा कल पढ़े जाने वाले भाषण को रिजेक्ट कर चुका है. पहली बार रिजेक्ट करने का कारण था भाषण में किसान शब्द का इस्तेमाल केवल चौदह बार होना. सचिव चाहता है कि किसान शब्द की पुनरावृत्ति कम से कम पैंतीस बार होनी चाहिए. दूसरी बार रिजेक्ट करने का कारण था समाज के कमजोर और गरीब लोगों से किया जानेवाला वादा. मुख्य सचिव चाहते थे कि भाषण में कम से कम आठ मौके ऐसे आयें जब प्रधानमंत्री कमजोर और गरीब लोगों से वादा करें. तीसरी बार रिजेक्ट करने का कारण था देश की विकास दर और मंहगाई जैसे शब्दों का आठ बार आना. सचिव जी चाहते थे कि इन शब्दों की पुनरावृत्ति दो से ज्यादा बार न हो....कल पन्द्रह अगस्त है.

पूरे साल टैक्स की चोरी का प्लान बनाने वाले मित्तल साहब सुबह-सुबह बेटे को एक थप्पड़ लगा चुके हैं. कल शाम की ही बात है. जब एक ट्रैफिक सिग्नल पर गाड़ी खड़ी थी तो उन्होंने तिरंगा बेचने वाले हाकर से एक जोड़ी तिरंगा खरीद कर कार में गाड़ा था. सुबह-सुबह बेटे ने तिरंगे की ऐसी-तैसी कर दी. मित्तल साहब की देशभक्त आत्मा ऐसी रोई कि उन्होंने बेटे को थप्पड़ जड़ दिया....कल पन्द्रह अगस्त है.

न्यूज चैनल के विद्वान संवाददाता हाथ में माइक लिए सड़क पर उतर चुके हैं. हर आते-जाते को पकड़ कर सवाल दाग देते हैं. गांधी जी का पूरा नाम क्या था? नेहरू जी की माँ का क्या नाम था? भारत का पहला राष्ट्रपति कौन था?...कल पन्द्रह अगस्त है.

म्यूजिक चैनल के वीजे टाइप प्राणी तिरंगे की टी-शर्ट पहने देशभक्ति की धारा बहाए नाच रहे हैं....कल पन्द्रह अगस्त है.

चलिए उदय प्रताप सिंह जी की ये कविता पढिये....

कोई खुशबू, न कोई फूल, न कोई रौनक
उसपर कांटों की जहालत नहीं देखी जाती
हमने खोली थीं इसी बाग में अपनी आंखें
हमसे इस बाग की हालत नहीं देखी जाती

बुलबुलें खुश थीं उम्मीदों के तराने गाये; कि
लेकर पतझड से बहारों को चमन सौंप दिया
अब तो मासूम गुलाबों की ये घायल खुशबू
शीश धुनाती कि खारों को चमन सौंप दिया

रात बस रात जो होती तो कोई बात न थी
उसका आकार मगर दूना नजर आता है
कितने चमकीले सितारे थे, कहां डूब गये
सारा आकाश बहुत सूना नजर आता है

कवि की आवाज बगावत पर उतर आई है
दल के दलदल से हमें कोई सरोकार नहीं
तुमने इस देश की तस्वीर बिगाडी ऐसे
जैसे इस देश की मिट्टी से तुम्हें प्यार नहीं

तुमने क्या काम किया ऐसे अभागों के लिए
जिनकी मेहनत से तुम्हें ताज मिला, तख्त मिला
उनके सपनों के जनाजों में तो शामिल होते
तुमको शतरंज की चालों से नहीं वक्त मिला

तुमने देखे ही नहीं भूख से मरते इन्सान
सिलसिले मौत के जो बन्द नहीं होते हैं
इनके पैबन्द लगे चिथडे ये गवाही देते; कि
इनके किरदार में पैबन्द नहीं होते हैं

जिस जगह बूंद पसीने की गिरा देते हैं
ठौर सोने के उसी ठौर निकल आते हैं
किंतु बलिहारी व्यवस्था की है जिसमे बहुधा
मुंह में बच्चों के दिये कौर निकल आते हैं

पूछता हूं मैं बता दो ऐ सियासत वालों
आदमी अपने ही ईमान का दुश्मन क्यों है
एक ईश्वर है पिता उसपर सगी दो बहनें
आरती और नमांजों में ये अनबन क्यों है

इनकी आदत में नहीं खून से कपडे रंगना
कोई मजबूरी रही होगी यंकीदा तो नहीं
अपने दामन में जरा झांक कर तुम ही कह दो
अपने मतलब के लिये तुमने खरीदा तो नहीं

बात करने को उसूलों की सभी करते हैं
वोट लेने का ये नाटक हैं इसे खत्म करो
ऐसी आजादी, गुलामी से बहुत बदतर है
ये वो चिंतन है, जो घातक है, इसे खत्म करो

वर्ना अंजाम वही होगा, जो पहले भी हुआ
कुर्सी तो कुर्सी, निगाहों से उतर जाओगे
मौत जब आयेगी तब आयेगी तुम्हारी खातिर
वक्त से पहले, बहुत पहले ही मर जाओगे।

Wednesday, August 13, 2008

जनता और अर्थशास्त्री




- क्या कर रहे हो?

- इन्फ्लेशन नाप रहे हैं.

- मंहगाई कब नापोगे?

- मंहगाई नापने का काम जनता का है. हमारा काम केवल इन्फ्लेशन नापना है.

- अच्छा, नाप लिया?

- हाँ.

- कितने मीटर का है?

- इन्फ्लेशन को मीटर में नहीं व्यक्त किया जाता.

- तो गज में व्यक्त किया जाता है?

- नहीं उसे प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है.

- प्रतिशत में क्या शुद्धता बढ़ जाती है?

- इन्फ्लेशन में कैसी शुद्धता?

- क्यों नहीं? जनवरी में जब प्रतिशत में नापते थे और हमेशा चार प्रतिशत से नीचे आता था, वह शुद्ध था?

- उसका जवाब वित्तमंत्री देंगे.

- उनसे सवाल कौन पूछेगा?

- तुम जनता हो. तुमने वोट दिया है. तुम पूछो.

- क्यों, तुम जनता नहीं हो?

- नहीं.

- तो क्या हो तुम?

- हम तो अर्थशास्त्री हैं.

- हाँ. मैं तो भूल गया था कि तुम जनता नहीं हो, तुम तो अर्थशास्त्री हो.

- ऐसे भूलोगे तो कैसे चलेगा?

- चल ही तो रहा है. सब कुछ भूल जाने के बाद भी चल रहा है. वैसे और क्या करते हो?

- हमारी हैसियत केवल यही तक है.

- अपनी हैसियत बढाते हुए और कुछ करो न जनता के लिए.

- और क्या करें? इन्फ्लेशन नाप रहे हैं, यही क्या कम है?

- मेरा मतलब अर्थशास्त्र का कोई सिद्धांत लगाकर जनता का कुछ भला करो.

- अर्थशास्त्र के सिद्धांत पढने के लिए होते हैं.

- चलो सिद्धांत को छोड़ो, कोई मन्त्र ही दे दो मंहगाई रोकने के लिए.

- हमें क्या ओझा समझ रखा है.

- नहीं, तुम्हें ओझा समझने की भूल कैसे करें? तुम ओझा जैसे गुनी कभी नहीं थे.

Tuesday, August 12, 2008

अभिनव बिंद्रा से दुखी (?) लोग




ब्लॉगर जिन कारणों से दुखी हो सकता है, उन कारणों की कम्प्रेहेंसिव सूची अभी तक नहीं बनी है. या फिर बनी भी है तो अभी तक जारी नहीं की गई. पोस्ट पर कमेन्ट न मिलना आपार दुःख का एक कारण हो सकता है. पोस्ट में लिखी बातों के ख़िलाफ़ कमेन्ट मिलना दुःख का दूसरा कारण हो सकता है. ऐसी ही और भी बातें हैं जो एक ब्लॉगर को दुखी कर सकती हैं. लेकिन कोई ब्लॉगर किसी खिलाड़ी को ओलिम्पिक में मिले गोल्ड मेडल से दुखी हो जाए, इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती. हुआ ऐसा कि कल दोपहर के करीब बारह बजे बालकिशन ने मुझे फ़ोन किया. मैंने फ़ोन पर हैलो कहा तो उधर से आवाज़ आई; "मैंने एक बहुत ज़रूरी बात जानने के लिए तुम्हें फ़ोन किया है."

मैंने कहा; "हाँ-हाँ बोलो. कौन सी बात के बारे में जानना चाहते हो?" मुझे लगा इनकम टैक्स से सम्बंधित कोई समस्या होगी. या फिर किसी शेयर के बारे में जानकारी चाहते होंगे. लेकिन मेरा अनुमान पूरी तरह से ग़लत निकला.

उन्होंने मुझसे पूछा; "अच्छा, क्या ये सच है कि भारत को ओलिम्पिक में एक गोल्ड मेडल मिला है."

मैंने कहा; "हाँ भाई ये सच है. अभिनव बिंद्रा को शूटिंग में गोल्ड मेडल मिला है. हमसब के लिए सचमुच आज खुशी का दिन है."

मेरी बात सुनकर चुप हो लिए. उधर से आवाज़ नहीं सुनाई दी तो मैंने कहा; "हैलो, क्या हुआ? कुछ बोल क्यों नहीं रहे हो?"

उनकी चुप्पी के बारे में सोचकर एक बार तो मन में ये बात भी आई कि शायद बन्दे ने किसी के साथ शर्त लगा ली हो. मैंने जब उनकी चुप्पी के बारे में दुबारा याद दिलाया तो बड़ी ठंडी साँस लेते हुए बोले; "सत्यानाश हो गया. मेडल मिल गया, वो भी गोल्ड मेडल."

उनकी बात सुनकर मुझे बड़ा अजीब लगा. मैंने सोचा एक तरफ़ पूरा देश खुशी मना रहा है. कितने ब्लॉगर बन्धुवों ने पोस्ट लिखकर अभिनव और देशवासियों को बधाई दी और ये कह रहे है कि सत्यानाश हो गया. ऐसा भी क्या हो गया? मैंने पूछा; "क्या कह रहे हो ये? किसी से कोई शर्त लगा लिए थे क्या?"

मेरी बात सुनकर बोले; "पूछो मत यार. पिछले दो दिनों से ओलिम्पिक में भारत की हार देखकर मुझे लगा था कि एक ब्लॉग पोस्ट लिखूंगा. हरिशंकर परसाई जी की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि देने के बाद सोचा था कि लगे हाथों शरद जोशी जी को भी श्रद्धांजलि दे डालूँगा. मैंने उनका लेख 'ओलिम्पिक' कल ही टाइप करके रख लिया था. सोचा था परसाई जी वाला लेख ब्लॉगवाणी से हटेगा तो तुंरत शरद जोशी जी वाला लेख पब्लिश कर डालूँगा. आज सुबह ही नेट पर जोशी जी की तस्वीर खोजकर ब्लॉग पोस्ट पर चढ़ा ली थी लेकिन इस अभिनव बिंद्रा ने सब किए कराये पर पानी फेर दिया."

उनकी बात सुनकर मुझे उनसे सचमुच बड़ी सहानुभूति हुई. एक बार तो मन में आया कि कह दूँ कि भइया उस पोस्ट को डैशबोर्ड पर ऐसे ही पड़े रहने दो, हो सकता है चार साल बाद काम आए. फिर भी मैंने उनसे कहा; "कोई बात नहीं है. अब दुबारा एक पोस्ट डाल दो, अभिनव बिंद्रा को शाबासी देते हुए. साथ में देशवासियों को मुबारकबाद भी दे डालो."

मेरी बात सुनकर भी उनका दुःख कम नहीं हुआ. बोले; "टाइप तो करना पड़ेगा न. कितनी मेहनत करनी पड़ेगी तुम्हें तो पता ही है."

एक बार तो सोचा कि उनसे कह दूँ कि कम से कम बीस पोस्ट आई हैं, अभिनव के गोल्ड मेडल जीतने के बारे में. किसी एक को कॉपी करके अपने ब्लॉग पर डाल दो लेकिन मैंने सोचा ऐसा करने पर उनके ऊपर चोरी का आरोप न लग जाए और फिर किसी ब्लॉगर को शाम तक एक और पोस्ट लिखनी पड़े; "मिलिए एक और ब्लॉग चोर से."

अच्छा, ऐसा नहीं है कि अभिनव के गोल्ड मेडल से केवल बालकिशन ही दुखी हैं. एक और महाशय मिल गए. मैं अपने निंदक जी की बात कर रहा हूँ. कल रतीराम की पान दुकान पर मिल गए. मैंने पूछा; "कैसे हैं?"

बोले; "का कहें, बड़ी दुखी हैं."

मैंने कहा; "क्या हुआ? आज किसी की निंदा करने का मौका हाथ से निकल गया क्या?"

बोले; "हाँ, अईसा ही समझ लीजिये. असलियत में एगो प्रोगराम बनाए थे कि एक प्रदर्शन का आयोजन करेंगे लेकिन सब गडबडा गया."

मैंने पूछा; "किसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वाले थे जो मामला गड़बड़ हो गया?"

निंदक जी मुझे देखा और मेरे पास आकर बोले; "अब आपको का बताएं. ओलिम्पिक में देश का खिलाड़ी लोग जइसन खेल देखा रहा था, सोचे थे कि सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करेंगे. नारा-वोरा लिख लिए थे. पोस्टर तैयार कर लिए थे. लेकिन ई बिन्दरा तो गोल्ड मेडल जीतकर सब गड़बड़ कर दिया."

मैंने कहा; "लेकिन सरकार के ख़िलाफ़ क्यों प्रदर्शन करना चाहते थे? खिलाडी खेल रहे हैं, इसमें सरकार क्या करेगी?"

मेरी बात सुनकर बोले; "काहे? सरकार का जिम्मेदारी नहीं बनता का? ई देखने का कि पईसा कहाँ खर्चा करे? आप ही बताईये, एक तरफ़ देश का किसान सब मर रहा है दूसरा तरफ़ सरकार एतना पईसा खरचा करके खिलाड़ी लोगों को भेजता है. और एक्कौ मेडल भी नहीं जीत पाता ई लोग."

मैंने पूछा; "हाँ, आपकी बात अपनी जगह ठीक है. वैसे अब क्या करेंगे?"

बोले; "देखिये, हम ठहरे राजनीतिक लोग. आ हम लोगों को रास्ता ढूढने का तकलीफ नहीं है. अब हम ई फैसला किए हैं कि प्रदर्शन तो सरकार के ख़िलाफ़ ही करेंगे. हाँ, अब मुद्दा बदल देंगे."

मुझे उनकी बात सुनकर उत्सुकता हुई. मैंने पूछा; "अब किस मुद्दे पर प्रदर्शन करेंगे?"

बोले; "अब सोचे हैं ई बात पर रैली निकालें कि सरकार खेल पर बहुत कम बजट खरचा करती है. आज अगर ठीक से और बजट खरचा करे तो हमारे देश में बिन्दरा जैसन और भी खिलाड़ी उभर कर आएगा सामने. देश में प्रतिभा का कमी नहीं है."

उनकी बात सुनकर लगा जैसे मनुष्य चाहे तो हर दुःख से निकल सकता है, बस एक अदद आईडिया की ज़रूरत है.

Monday, August 11, 2008

ब्लॉगर प्रोफाइल - लालमुकुंद जी के विचार




ब्लॉगर की प्रोफाइल बड़ी मारक चीज होती है. उसके ऊपर ब्लॉगर अगर अपनी हिन्दी का हो तो प्रोफाइल के मार करने की क्षमता कई गुना बढ़ जाने का चांस रहता है. ब्लॉगर ने बीए, एमए में भले ही इतिहास, भूगोल, अंग्रेज़ी, हिन्दी जैसे विषयों की पढाई की पढाई की हो लेकिन जब प्रोफाइल लिखने की बात आती है तो जिस विषय पर सबसे पहले हाथ फेरता हैं वह है दर्शनशास्त्र. कोशिश रहती है कि अपने बारे में कुछ ऐसा लिख दिया जाय कि पढने वाले को लगे कि उसकी आँखें अचानक जेठ की दुपहरिया के सूरज से टकरा गई हैं. ऐसा कुछ लिख देने की ललक रहती है जिससे पढ़नेवाले को पता चल जाए कि आदमी ऊंची सोच वाला है. ऊंची सोच मतलब माडर्न आर्ट समझता है, सत्यजीत रे की फिल्में न केवल देखता है बल्कि समझता भी है और बचपन से ही ऋत्विक घटक जैसे लोगों के संपर्क में था.

हुआ ऐसा कि कल लालमुकुंद जी मिल गए. बता रहे थे कि हाल ही में उनकी मुलाक़ात ऐसे ही एक ब्लॉगर प्रोफाइल से हो गई. लालमुकुंद थोड़े तैश में थे. मुझसे कहने लगे; " अब क्या बताऊँ तुम्हें, कि क्या लिखा था. लिखा था 'मैं ख़ुद को खोजने निकल पड़ा हूँ. कितना खोज पाया हूँ, यह तो नहीं पता लेकिन कोशिश जारी है. यह खोजने की, कि ख़ुद को किस हद तक खोज पाया." आगे बोले; " आँख रगड़-रगड़ कर पढा मैंने. लगा कि बीच-बीच में पानी भी मार लूँ तो शायद समझ में आ जाए. लेकिन इस खोज नामक शब्द की भूल-भुलैया में ऐसा फंसा है कि निकलने की कोई तरकीब समझ नहीं आ रही थी."

इतना उखड़े हुए थे कि पूछिए मत. आगे मुझसे बोले; " इच्छा तो हुई कि ब्लॉगर जी सामने मिलते तो पूछ लेता कि प्रभु, ख़ुद को क्यों खोज रहे हैं? कितने दिनों से खोये हैं? और अगर आपको पूरा यकीन हो ही गया है कि आप खो गए हैं तो चिंता न करें. अभी तक तो आपके घर वालों ने आपके गायब होने की रपट किसी थाने में लिखा ही दी होगी. अब आप ख़ुद न खोजें, पुलिस आपको खोजकर आपके घरवालों के हवाले कर देगी......हम तो आए थे आपके बारे में जानने के लिए. यह जानने के लिए कि आप कहाँ रहते हैं? आप क्या करते हैं? आपकी पसंद क्या है? लेकिन अब तो हमें लग रहा है कि हमारा आना ही व्यर्थ हुआ. आप जब ख़ुद ही ख़ुद को खोज रहे हैं तो अपने बारे में बताएँगे भी क्या?"

हम लालमुकुंद जी की शिकायत वैसे ही सुन रहे थे जैसे गृहस्थगति को प्राप्त कोई व्यक्ति शाम को घर पहुंचकर टीवी देखते-देखते पत्नी से घर की समस्याओं के बारे में सुनता है. लालमुकुंद थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. एक और ब्लॉगर प्रोफाइल के बारे में शुरू हो गए. बोले; "तुम्हें क्या बताऊं? एक और ब्लॉगर प्रोफाइल देखी मैंने. देखकर लगा जैसे गुलज़ार साहब और जद्दू कृष्णमूर्ति ने मिलकर लिखा है."

मैंने कहा; "क्यों, ऐसा क्या लिखा था उसमें?"

मेरी बात सुनकर और उत्तेजित हो गए. अचानक शर्ट की जेब में हाथ डालते हुए बोले; "सुनोगे? रुको मैं लिखकर ले आया हूँ. हाँ, तो सुनो. इसमें लिखा है; 'बचपन से ही बिखरे शब्दों को बटोरने का प्रयास कर रहा हूँ. शब्द हैं कि पकड़ में ही नहीं आते. कभी हवा के झोंके के साथ उड़ चलते हैं तो कभी कागज़ की नाव में बैठे बरसात में जमें पानी पर तैरते निकल जाते हैं. कई बार तो शब्दों को आसमान से गिरते देखा. जब भी बाँधने का प्रयत्न किया, हाथ से फिसल गए. दूर पहुँच मुझे चिढ़ाते हैं. फिर एक दिन दादी ने बताया कि आसान नहीं है शब्दों को बाँधना. कठिन ही सही लेकिन शब्दों को पकड़ने की कवायद अभी तक जारी है. दो-चार एक साथ पकड़ पाता हूँ तो उन्हें मिलकर वाक्य बनाने की कोशिश करता हूँ."

इस ब्लॉगर की प्रोफाइल पढ़कर मुझे हंसी आ गयी. मुझे हँसता देख लालमुकुंद बिदक गए. बोले; "तुम्हें हंसी आ रही है! तुम बताओ, ये प्रोफाइल है? न तो ब्लॉगर के शहर का पता चलता है. न ही ये पता चलता है कि करते क्या हैं?"

मैंने कहा; "ऐसा हो ही सकता है. ये ब्लॉगर शायद कवि हैं. शब्दों के बारे में इस तरह से कोई कवि ही लिख सकता है."

बोले; " हाँ, ठीक पहचाना तुमने ये कवि ही हैं."

मैंने कहा; "देखो कवि का ब्लॉग है. इस ब्लॉगर के पास कवि का ह्रदय है. तो ऐसा होगा ही कि ये प्रोफाइल में भी कविता ही लिखेगा."

मेरी बात सुनकर बोले; "अरे भाई कविता करने के लिए तो पूरा ब्लॉग पड़ा है. दिन में कम से कम तीन-चार कवितायें लिखते है ब्लॉगर कवि. इतनी कविता तो मैथिलीशरण और दिनकर जी भी एक दिन में लिखते होंगे, इस बात पर डाऊट है. और फिर कविता तो रोज ही लिखते हैं. प्रोफाइल तो एक बार लिखा जाता है. तो भइया प्रोफाइल में तो अपने बारे में लिखे."

मैंने कहा; "ऐसा एक-दो केस में दिखा होगा आपको. हर केस में थोड़े न मिलेगा."

मेरी बात सुनकर भड़क गए. बोले; "एक-दो केस? मुझे तो सब जगह ऐसा ही लिखा मिला. एक और ब्लॉगर- कवि का प्रोफाइल देखा. लिखा था; शब्द मेरे लिए आसमान हैं. शब्द मेरे लिए तारे हैं. शब्द मेरे लिए बादल हैं. मुझे इस बात का यकीन है कि दुनियाँ शब्दों से बनी है. शब्द न रहें तो कुछ भी न रहेगा. न तो ये आसमान, न बादल, न तारे और न ही सूरज. नहीं रहेंगे ये पेड़, ये पत्ते और ये झंझावात. कहाँ मिलेगी ज़मीन और कहाँ मिलेगी मिटटी? समुंदर नहीं मिलेगा और न ही मिलेगा अमृत. गरल को गले से नीचे उतरते देखेंगे और खोजेंगे जीवन के उस रास्ते को जो सीधा चाँद तक जाता है.क्योंकि शब्दों से बनी इस दुनियाँ में अगर कुछ जिन्दा रहेगा तो वह है एहसास. एक ऐसा एहसास जिसे शब्दों की तलाश रहती है. और अगर शब्द मर गए तो एहसास मर जायेगा."

इस ब्लॉगर-कवि की प्रोफाइल पढ़ते-पढ़ते बोले; "तुम्ही बताओ. ऐसे ब्लॉगर-कवि के बारे में जानना हो तो मुझ जैसा पाठक कहाँ जाए? अरे दिनकर, बच्चन और गुप्त जी की किताबों पर भी उनकी जीवनयात्रा के बारे में लिखा रहता है. यहाँ तक लिखा रहता है कि इनलोगों ने कहाँ-कहाँ की विदेश यात्राएं की. लेकिन ब्लॉगर-कवि के बारे में उन्ही की प्रोफाइल पर किसी दर्शनशास्त्र की किताब का आठवां अध्याय लिखा हुआ मिलता है. ये ठीक है क्या?"

मैंने कहा; "बात तो आपकी ठीक है. हमलोगों को प्रोफाइल के मामले में कुछ करना चाहिए."

मुझे लगा मेरी इस बात पर कुछ ठंडा होंगे लेकिन वे तो और तैश में आ गए. मुझसे बोले; " तुम क्या करोगे? तुम करोगे भला. दूसरों की क्यों, ख़ुद अपनी प्रोफाइल के बारे में सोचो. क्या लिखा है ये; कविता - हिन्दी और उर्दू में रूचि. परसाई और दिनकर के भीषण प्रशंसक....तुम्हें क्या लगता है? दिनकर और परसाई का नाम लेकर दूसरों को इम्प्रेस कर लोगे क्या? पढ़कर लगता है जैसे किसी कस्बे के छुटभैया नेता ने किसी राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष के साथ खिचाई अपनी तस्वीर को ड्राईंग रूम में लगा रखा है जिससे सबको इम्प्रेस कर सके."

उन्होंने अपने कमेन्ट से मुझे भी ढेर कर दिया. लालमुकुंद जी के साथ ब्लॉगर प्रोफाइल के और हिस्से पर चर्चा शुरू हुई. मुझसे बोले; "जिसे देखो उसी ने प्रोफाइल में लिख दिया है पसंदीदा फ़िल्म दो आँखें बारह हाथ, दो बीघा ज़मीन और नवरंग. इन लोगों में से किसी से भी पूछ लो कि आपने पिछले तीन सालों में इन फिल्मों के दर्शन कितनी बार किए? कोई अगर ये कह दे कि उसने दो बार भी देखा तो मैं मान जाऊंगा.........

खैर, लालमुकुंद जी के साथ ब्लॉगर प्रोफाइल ही नहीं, ब्लॉगर की ब्लागिंग के किस्से हम फिर सुनायेंगे.....

Friday, August 8, 2008

इम्तिहान है - मुशर्रफ़ साहब के आईडिया का और शरीफ बाबू के बालों का




चुनाव बड़े-बड़े नेताओं का समय पलट देते हैं. देखिये न, पाकिस्तान में हुए चुनावों ने मुशर्रफ़ साहब का समय ख़राब कर दिया. कल टीवी पर समाचार देखा रहा था. पता लगा कि पाकिस्तान के राजा पर अब महाभियोग का मुकदमा चलने वाला है. नवाज शरीफ और ज़रदारी साहब को एक साथ देखा. दोनों प्रेस को संबोधित कर रहे थे. कह रहे थे कि अब मुशर्रफ़ साहब का बचना मुश्किल है. मुशर्रफ़ साहब ने भी अपने पिछले कई साल राजनीति करने में जाया कर दिए. कितना कुछ किया जिससे सत्ता में बने रहे. उनके लिए अच्छा रहता अगर वे थोड़ा समय निकाल कर रफी साहब का गाया गाना सुन लेते. अरे वही गाना; 'आदमी को चाहिए वक्त से डर के रहे, कौन जाने किस घड़ी में वक्त का बदले मिजाज़.' लेकिन बिजी शासक ने पूरा समय सत्ता में बने रहने और पूरी दुनियाँ को गुमराह करने में लगा दिया.

कल मुझे एक बार फिर पक्का विश्वास हो गया कि समय बहुत बलवान होता है. अब देखिये न. एक समय था कि नवाज़ शरीफ प्रधानमंत्री थे. मुझे याद है जब उनका तख्त मुशर्रफ़ साहब ने पलट दिया था. शरीफ बाबू ने लाख कोशिश थी कि मुशर्रफ़ साहब, जो लंका के दौरे पर थे, उनका विमान पकिस्तान में नहीं उतरे, लेकिन ऐसा हो न सका और मुशर्रफ़ जी न सिर्फ़ पाकिस्तान में उतरे बल्कि उन्होंने शरीफ बाबू की खटिया खड़ी करने में जरा भी समय जाया नहीं किया.

आज समय बदला है. आज शरीफ बाबू प्रधानमंत्री तो क्या मंत्री भी नहीं हैं. लेकिन उनके अन्दर गजब का आत्मविश्वास आ गया है. मुझे लगा ऐसा क्यों हुआ कि शरीफ बाबू आज इतने निर्भीक हो गए हैं. अचानक मन में आया कि जब उनका तख्त पलटा था तो उनके सर पर बाल नहीं थे. आज बाल हैं. बालों की वजह से ये आत्मविश्वास आ गया है. बेचारे जब प्रधानमंत्री थे तो तमाम तरह की चिंताओं से घिरे रहते होंगे लिहाजा बाल उड़ गए. लेकिन जब देश निकाला मिला तो अरब देशों में रहते हुए सूखे फलों और मेवे का जमकर सेवन किया होगा. ऊपर से गद्दी की भी चिंता नहीं थी तो बाल वापस आ गए. इसमें थोडी-बहुत मदद उनके तमाम यूरोप दौरों से मिली होगी.

आदमी के आत्मविश्वास में बालों का विकट योगदान होता है. ऐसा मैं नहीं कह रहा. ऐसा कहना है बाल उगाने वाले डॉक्टरों का. हमारे शहर के बाल उगाने वालों डॉक्टरों का विज्ञापन हर रविवार को समाचार पत्रों में छपता है. लिखा रहता है; "री-गेन योर कांफिडेंस.' मतलब ये कि आपका जो कांफिडेंस बाल उड़ जाने से चला गया है उसे हम बाल उगाकर वापस कर देंगे. बस आप मेरे पास आ जाइये.

वैसे सुना है कि मुशर्रफ़ साहब चीन के दौरे पर हैं. वहां ओलिम्पिक्तोसव देखने गए हैं. लेकिन मुशर्रफ़ साहब क्या ऐसे हार मान लेंगे? कहते हैं "ऐन आईडिया कैन चेंज योर लाइफ." और मुशर्रफ़ साहब वैसे भी बड़े आईडियावान व्यक्ति हैं. हो सकता है इस बात को ध्यान में रखते हुए मुशर्रफ़ साहब जिम्नास्टिक का कोई मुकाबला देख रहे हों और जिमनास्ट को उलटते-पलटते देख उनके दिमाग में कोई आईडिया आ जाय और वे भी कोई उलटन-पलटन कर डालें. खैर, ये तो वक्त बतायेगा कि उनक क्या होता है. हम अभी भी सोचते हैं कि मुशर्रफ़ साहब किसी न किसी उलटन-पलटन कार्यक्रम की तैयारी कर रहे होंगे.

अब तो मुशर्रफ़ साहब के किसी आईडिया का और शरीफ बाबू के बालों का इम्तिहान है.

Wednesday, August 6, 2008

थोडी चिरकुटई स्टिंग आपरेशन पर




देश में आजकल दो ही बातों पर चर्चा हो रही है. एक है अमर सिंह और दूसरा है स्टिंग आपरेशन. पिछले कुछ सालों में स्टिंग आपरेशन इस तरह से फ़ैल चुका है जैसे पहले हैजा और प्लेग जैसी बीमारियाँ फैलती थीं. ऊपर से संसंद में हुए विश्वास प्रस्ताव समारोह ने स्टिंग आपरेशन को एक अलग ऊंचाई प्रदान कर दी है. आज हालत यह है कि कबाड़ चुनते-चुनते अगर किसी कबाड़ी को कोई सीडी मिल जाती है तो वह उस सीडी को धो-पोंछ कर डीवीडी प्लेयर पर चढ़ा लेता है. इस आशा के साथ कि अगर सीडी में किसी नेता का स्टिंग आपरेशन स्टोर्ड होगा तो सीडी को किसी न्यूज चैनल को बेंचकर कुछ पैसा कमाया जा सकता है.

कल सुदर्शन से बात हो रही थी. सुदर्शन ने कहा; "अरे सर, ये उमा भारती तो फंस गई. उन्होंने जिस सीडी का उदघाटन इतने ताम-झाम के साथ किया उसमें तो पोस्टर दिखने की वजह से सब गड़बड़ हो गया."

मेरे मुंह से निकला; "कोई बात नहीं. उस पोस्टर को दीवार से हटाकर फिर से शूटिंग कर लेंगे ये लोग."

मेरी बात सुनकर सुदर्शन हंसने लगा. लेकिन मुझे लगा कि ये भी अजीब बात है. कितना सरल हो गया है 'स्टिंग आपरेशन' करना. फिर मन में आया कि अगर आज से कुछ सालों बाद रि-डिस्कवरी चैनल पर अगर भारत में स्टिंग आपरेशन के इतिहास पर एक डाक्यूमेंट्री दिखाई जायेगी तो कैसे होगी? शायद कुछ ऐसी;

भारत में स्टिंग आपरेशन का इतिहास पुराना है. स्टिंग आपरेशन के पुरातन होने की पुष्टि इस बात से होती है कि भागलपुर में हुए आँख-फोडू काण्ड का भेद सबसे पहले स्टिंग आपरेशन के चलते ही खुला था. इसके आलावा इंडियन एक्सप्रेस नामक समाचार पत्र ने एक स्टिंग आपरेशन की मदद से राजस्थान में लगने वाली औरतों की एक मंडी का पर्दाफाश किया था. शुरू में स्टिंग आपरेशन में स्टिल कैमरे और टेप रिकॉर्डर का उपयोग किया जाता था लेकिन बाद में विडियो शूटिंग के प्रयोग की वजह से स्टिंग आपरेशन में एक क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिला.

इक्कीसवीं शताब्दी के आरम्भ में तहलका ने स्टिंग आपरेशन के जरिये ढेर सारे क्रिकेट खिलाड़ियों और नेताओं के भ्रष्ट होने के सुबूत इकठ्ठा किए. हथियारों में दलाली की बात हो या फिर क्रिकेट में पैसा लेकर न खेलने का साहसिक कार्य, सबकुछ स्टिंग आपरेशन की मदद से सामने लाये गए. स्टिंग आपरेशन को नई ऊंचाई तब मिली जब तमाम टीवी न्यूज चैनल स्टिंग आपरेशन के धंधे में उतर गए. पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने का कार्यक्रम हो या फिर शारीरिक शोषण के जरिये हिन्दी फिल्मों में हिरोइन का रोल दिलाने के वादे, सब स्टिंग आपरेशन करके जनता के सामने लाये गए.

स्टिंग आपरेशन का विकास कुछ इस तरह से हुआ कि इसके जरिये बहुत सारे लोगों को सताने की प्रथा भी चल निकली. हालत यह हो गयी कि जो समाजशास्त्री पहले स्टिंग आपरेशन को इलाज समझते थे, साल २००८ आते-आते उन्ही समाजशास्त्रियों ने स्टिंग आपरेशन को एक बीमारी मानना शुरू कर दिया. साल २००८ में तत्कालीन सरकार द्बारा विश्वास मत प्राप्ति हेतु लेन-देन के मामले को स्टिंग आपरेशन करके सामने लाने की कोशिश हुई.

स्टिंग आपरेशन के फैलते प्रभाव की वजह से बहुत सारी विदेशी कम्पनियों को भारत एक नए बाज़ार के रूप में दिखने लगा. साल २००८ में संसद में विश्वास मत प्राप्ति कार्यक्रम में स्टिंग आपरेशन के रोल ने विदेशी उद्योगपतियों को बहुत प्रभावित किया. वित्त मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार साल २००८ के सितम्बर महीने में विदेशी पूंजी निवेश के कुल अट्ठारह प्रस्ताव आए जिनमें से आठ सीडी निर्माण, तीन स्पाई विडियो कैमरा निर्माण और चार स्टिंग आपरेशन की शिक्षा हेतु कालेज स्थापना के थे. सरकार ने विदेशी पूँजी निवेश के इन प्रस्तावों को बड़े उत्साह के साथ पास कर दिया. साल २०११ तक विदेशी तकनीक को और आगे बढाते हुए भारतीय उद्योगपतियों ने स्टिंग आपरेशन में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों में क्रांतिकारी बदलाव किया.

साल २००९ तक लगभग सभी राजनैतिक दलों ने अपने-अपने दल में माईनोरिटी सेल, इकनॉमिक सेल, सोशल जस्टिस सेल की तर्ज पर स्टिंग आपरेशन सेल भी स्थापित किए. इन पार्टियों ने अपने इस सेल में काम करने के लिए उन नेताओं को लगाया जिन्हें स्टिंग आपरेशन में फंसने का गौरव प्राप्त था. इन राजनैतिक पार्टियों का मानना था कि स्टिंग आपरेशन में फंसा हुआ नेता ही ऐसे सेल की अध्यक्षता करने का पर्याप्त अनुभव रखता था. कुछ राजनैतिक दलों ने तो विज्ञापन के जरिये अपने स्टिंग आपरेशन सेल के लिए स्क्रिप्ट राईटर्स और कैमरा मैन की भर्ती भी की.

साल २०१० तक लगभग सारे राजनैतिक दल इस बात बार सहमत हो चुके थे कि स्टिंग आपरेशन की पढाई को देश में हाई स्कूल से अनिवार्य कर दिया जाय. नतीजा यह हुआ कि स्टिंग आपरेशन की पढाई करने वाले छात्रों को सरकार की तरफ़ से वजीफे देने का कार्यक्रम शुरू हुआ. विशेषज्ञों का मानना था कि साल २०२० तक रोजगार के सबसे ज्यादा अवसर स्टिंग अपारेशन की पढाई करने वाले छात्रों के लिए ही उपलब्ध होने वाले थे.

स्टिंग आपरेशन की सफलता ने हिन्दी फ़िल्म उद्योग के पुराने निर्देशकों और पटकथा लेखकों को रोजगार के अवसर दिए. कुछ पुराने निर्देशक जिन्हें कोई काम नहीं था, उन्होंने स्टिंग आपरेशन के निर्देशन में हाथ आजमाया और उनमें से कुछ तो काफी सफल भी हुए. इन लोगों को सबसे ज्यादा रोजगार के अवसर टीवी न्यूज चैनल ने उपलब्ध करवाए.

आज भारत में स्टिंग आपरेशन उद्योग का कारोबार करीब सत्तर हजार करोड़ रूपये तक पहुँच चुका है. भारतीयों द्बारा किए गए स्टिंग आपरेशन की ख्याति दुनियाँ भर में फैली हुई है. यही कारण है कि अमेरिका, यूरोप और दक्षिण पूर्व एशिया के कई देश स्टिंग आपरेशन की आउटसोर्सिंग के लिए भारतीय आपरेटरों पर सबसे ज्यादा विश्वास दिखाते हैं. साल २०४५ तक भारतीय स्टिंग आपरेशन उद्योग का कारोबार बढ़कर एक लाख आठ हज़ार करोड़ रूपये तक पहुँच जाने की संभावना है.

Monday, August 4, 2008

बेशर्मी का स्वर्णकाल कितने सालों का होगा?




मेरे एक मित्र को लालू प्रसाद यादव जी ने अपना फैन बना लिया है. मित्र पिछले दस दिनों में करीब पचहत्तर बार लालू जी का गुणगान कर चुके हैं. जब-तब शुरू हो जाते हैं; "मान गए यार. है लेकिन गट्सी आदमी. क्या भाषण दिया विश्वास प्रस्ताव में. हंसा-हंसा कर लोट-पोट कर दिया. देखो तुम मानोगे नहीं लेकिन ऐतिहासिक भाषण था वो." मैं हूँ कि सुनने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकता.

उठते-बैठते बोर करते रहते हैं; देखा कि नहीं गुरुदास दासगुप्ता को क्या बोले?....बोले; "आ एक गुरुदास गुप्ता जी हैं. कहते हैं रोटी चाहिए, रोटी चाहिए. पता नहीं केतना दिन से भूखा हैं? रोटी कहाँ से आएगा? रोटी आसमान से टपकेगा? बरसेगा? नै...देशवासियों, रोटी आएगा इन्फ्रास्ट्रक्चर से."

सचमुच इन मित्र महोदय ने बहुत परेशान कर दिया है. लेकिन फिर सोचता हूँ तो लगता है जैसे यही क्यों, पूरा भारत ही फैन बन गया है लालू जी का. टीवी न्यूज चैनल पर केवल लालू जी का भाषण बार-बार दिखाया जा रहा है. जैसे बाकी किसी ने भाषण दिया ही नहीं. कहीं आधे घंटे का प्रोग्राम दिखाया जा रहा है तो कहीं एक घंटे का. किसी चैनल वाले को दया आजाती है तो ओमर अब्दुला का भाषण भी दिखा देता है.

इस भाषण के बारे में लोगों का उत्साह देखकर लगता है जैसे आज से सौ साल बाद यह भाषण इतिहास की किताबों में पढ़ाया जायेगा. चैप्टर का नाम होगा पिछले तीन सौ साल के दस सबसे महान भाषण. सोचिये जरा क्या सीन होगा. विवेकानंद जी के शिकागो में दिए गए भाषण, गांधी जी द्बारा आजाद मैदान में दिया गया भाषण और नेहरू जी द्बारा पन्द्रह अगस्त १९४७ की रात दिए गए भाषण के साथ लालू जी का संसद में विश्वास मत के दौरान दिया गया भाषण चैप्टर में रखा जायेगा. बच्चे परीक्षा की तैयारी करते हुए भाषण को कुछ इस तरह से याद करेंगे;

और फिर लालू जी लोकसभा के स्पीकर से बोले; "स्पीकर महोदय, ..और एक बात बोलना था हमको. रुकिए हमको याद आ गया है. हम लिख कर लाये हैं. हम संसद के माध्यम से कहना चाहता हूँ कि तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं....आ तुम किसी और को चाहोगी तो? का...तो मुश्किल होगी."

इतिहास की किताब ही तो है. कहीं कोई यह भी लिख सकता है; 'लालू जी के भाषण से यह पता चलता है कि सरकार को विश्वास मत इसलिए मिला कि प्रस्ताव पर चर्चा सोमवार को शुरू हुई थी जो कि भोले बाबा का दिन है. और इस प्रस्ताव पर वोटिंग मंगलवार को हुई जो कि महावीर का दिन है. इससे इतिहासकार इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सरकार बचाने के लिए धर्मनिरपेक्ष दल भी संसद के पटल पर देवताओं का सहारा लेते थे.'

ऐसा भी हो सकता है कि भविष्य में जब लालू जी के इस भाषण की गिनती भारत के दस सबसे महान भाषणों में होने लगेगी तो कोई न्यूज चैनल इन दस सबसे महान भाषणों पर एस एम एस वोटिंग करवा कर इन भाषणों को नंबर दे दे. हो सकता है कि लालू जी का भाषण प्रथम स्थान प्राप्त कर ले. अगर ऐसा हो गया तो फिर चैनल उनके इस भाषण को विश्व के दस सबसे महान भाषणों में डालने के लिए अभियान शुरू कर दे. जरा सोचिये. अगर ऐसा हो गया तो क्या होगा? उनके इस भाषण की गिनती जॉन ऍफ़ कैनेडी, अब्राहम लिंकन और मार्टिन लूथर किंग, नेल्शन मंडेला और चर्चिल के भाषणों के साथ होगी.

क्या कहा आपने? ऐसा नहीं हो सकता. एक बार फिर से सोचिये. बेशर्मी का स्वर्णकाल कितने सालों का होगा कोई नहीं जानता.

Saturday, August 2, 2008

सरकार का चिंता कार्यक्रम




सरकार काम कर रही है, जब इस बात को साबित करना रहता है तो प्रधानमंत्री किसी समस्या का जिक्र करते हुए उसपर चिंतित हो लेते हैं. समस्या के बारे में बात करते हुए बताते हैं कि वे बहुत चिंतित हैं. कल बारी थी अमेरिका में आए आर्थिक संकट पर चिंतित होने की. प्रधानमंत्री बता रहे थे कि वे बहुत चिंतित हैं. सारी चिंता इस बात को लेकर है कि अमेरिका में आए आर्थिक संकट का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा. वाकई, चिंतित होने की बात ही है. वैसे तो प्रधानमंत्री लगभग सभी समस्याओं को लेकर चिंतित रहते हैं, लेकिन आर्थिक समस्याओं के लिए उन्होंने अपनी पूरी चिंता का सत्ताईस प्रतिशत आरक्षित रख छोड़ा है.

वे जहाँ भी जाते हैं, उस जगह के मुताबिक चिंतित हो लेते हैं. महाराष्ट्र गए तो विदर्भ के किसानों की समस्या पर चिंतित हो लेते हैं. आसाम जाते हैं तो वहाँ हो रही हिंसा पर चिंतित हो लेते हैं. विदेश जाते हैं तो पाकिस्तान की समस्याओं को लेकर चिंतित रहते हैं. जिस जगह पर चिंतित होते हैं, वहाँ के लोगों को विश्वास हो जाता है कि 'प्रधानमंत्री जब ख़ुद ही चिंतित हैं, तो इसका मतलब सरकार काम कर रही है.' लोग आपस में बातें करते हुए सुने जा सकते हैं कि; 'मान गए भाई. यह सरकार वाकई काम कर रही है. देखा नहीं किस तरह से प्रधानमंत्री चिंतित दिख रहे थे.'

प्रधानमंत्री की चिंता के बारे में सोचते हुए मुझे लगा कि उनके और उनके निजी सचिव के बीच में वार्तालाप कैसी होती होगी? शायद कुछ इस तरह;

प्रधानमंत्री: "भाई, कल मैंने जो नक्सली समस्या पर चिंता जाहिर की थी, उसकी रिपोर्टिंग किस तरह की हुई है मीडिया में?"

सचिव: " सर, बहुत बढ़िया रिपोर्टिंग हुई है. आपकी चिंता पर चार टीवी न्यूज चैनल्स पर पैनल डिस्कशन भी हुए."

प्रधानमंत्री: "अच्छा कल तो २० तारीख है, कल किस बात पर चिंतित होना है?"

सचिव:" सर, कल आपको किसानों के प्रतिनिधियों से मिलना है. तो मेरा सुझाव है कि कल आप किसानों की हालत पर चिंतित हो लें."

प्रधानमंत्री: "हाँ, बात तो आपकी ठीक ही है. बहुत दिन हुए, किसानों की समस्याओं पर चिंतित हुए."

सचिव: "हाँ सर, किसानों की समस्याओं पर पिछली बार आप १५ अगस्त को लाल किले पर चिंतित हुए थे."

प्रधानमंत्री: " और, उसके बाद वाले दिन का क्या प्रोग्राम है?"

सचिव: "सर, २१ तारीख को आपको न्यूक्लीयर डील के मामले पर एक अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल से मिलना है. सो, मेरा सुझाव है कि उनसे मिलने के पहले आप अगर मीडिया को संबोधित कर लेते तो सरकार को मिले 'फ्रैकचर्ड मैनडेट' पर चिंता जाहिर कर सकते थे."

प्रधानमंत्री: " हाँ, आपका सुझाव अच्छा है. ठीक है, मीडिया से मिल लेंगे. लेकिन उसके बाद वाले दिनों में क्या प्रोग्राम है."

सचिव: "सर, २३ तारीख को गुजरात चुनावों का रिजल्ट आएगा. उस दिन रिजल्ट के हिसाब से चिंतित होना पड़ेगा. बीजेपी जीत जाती है तो साम्प्रदायिकता पर चिंतित हो लेंगे. लेकिन अगर हार जाती है तो फिर चिंता जताने की जरूरत नहीं है. हाँ, असली चिंता की जरूरत पड़ सकती है. चिंता इस बात की होगी कि मुख्यमंत्री किसे बनाना है."

प्रधानमंत्री: "ठीक है. वैसा कर लेंगे."

सचिव: "सर, एक बात और बतानी थी आपको. उड़ती ख़बर सुनी है कि गृहमंत्री शिकायत कर रहे थे कि उन्हें चिंतित होने का मौका नहीं दिया जा रहा है. कह रहे थे कि देश में कानून-व्यवस्था की स्थिति ख़राब है, बम विस्फोट हो रहे हैं लेकिन उन्हें चिंतित नहीं होने दिया जाता. और तो और, सर, वित्तमंत्री भी शायद ऐसा ही कुछ कह रहे थे. ख़बर है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर वे ख़ुद चिंतित होना चाहते थे, लेकिन आप के चिंतित होने से उनके हाथ से मौका जाता रहा."

प्रधानमंत्री: "एक तरह से इन लोगों का कहना ठीक ही है. मैं ख़ुद भी सोच रहा था कि चिंतित होने का काम मिल-बाँट कर कर लें तो अच्छा रहेगा. वैसे आपका क्या ख़याल है?"

सचिव: "सर, आपकी सोच बिल्कुल ठीक है. आर्थिक मामलों वित्तमंत्री को एक-दो बार चिंतित हो लेने दें. बहुत दिन हुए गृहमंत्री को कश्मीर की समस्या पर चिंतित हुए. उन्हें भी चिंतित होने का मौका मिलना चाहिए. लेकिन सर यहाँ एक समस्या है. शिक्षा की समस्या पर मानव संसाधन विकास मंत्री ख़ुद चिंतित नहीं होना चाहते. उनका मानना है कि उन्हें केवल आरक्षण के मुद्दे पर चिंतित होने का हक़ है."

प्रधानमंत्री: "देखिये, यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती. मैं उनको आरक्षण के मुद्दे पर चिंतित होने से नहीं रोकता. लेकिन उन्हें भी सोचना चाहिए कि शिक्षा का भी मुद्दा है. मैं ख़ुद महसूस कर रहा हूँ कि पिछले कई महीनों में उन्होंने प्राथमिक शिक्षा की हालत पर कोई चिंता जाहिर नहीं की. और फिर उन्हें ही क्यों दोष देना. कानूनमंत्री को भी किसी ने चिंतित होते नहीं देखा."

सचिव: "सर, आपका कहना बिल्कुल ठीक है. लोगों का मानना है कि बहुत सारे पुराने कानून बदलने चाहिए. और फिर कानून बदलें या न बदलें, कम से कम चिंतित तो दिखें. पिछली बार वे तब चिंतित हुए थे जब क्वात्रोकी जी को अर्जेंटीना में गिरफ्तार किया गया था. करीब डेढ़ साल हो गए उन्हें चिंतित हुए."

प्रधानमंत्री: "मसला तो वाकई गंभीर है. आज आपसे बातें नहीं करता तो मुझे तो पता भी नहीं चलता कि कौन सा मंत्री कब से चिंतित नहीं हुआ. एक काम कीजिये, चिंता को बढ़ावा देने वाली कैबिनेट कमेटी की मीटिंग कल ही बुलवाईये. मुझे तमाम मंत्रियों के चिंता का लेखा-जोखा चाहिए."

निजी सचिव कैबिनेट कमेटी के सचिव को चिट्ठी टाइप करने में व्यस्त हो जायेगा. शनिवार को चिंता का लेखा-जोखा ख़ुद प्रधानमंत्री लेंगे, इस बात की जानकारी देने के लिए.