Show me an example

Monday, July 30, 2007

लेम्पूनिंग@ करनी हो तो "ग्रेत लीदर" की करें





महामहिम राष्ट्रपति जी को लैम्पून करने का प्रयास किया जा रहा है हिन्दी ब्लॉगरी में. कहा जा रहा है कि उनके प्रति श्रद्धा नहीं है. श्रद्धा तो गली के दादा और माफिया डॉन के प्रति भी नहीं होती. उन्हे लैम्पून करने का प्रयास करें - वह भी ब्लॉगरी में नहीं, उपयुक्त फॉरम में - गली के नुक्कड़ पर या टाउन हॉल के सामने सभा कर. वहां श्रद्धा का भाव पता चलते देर नहीं लगेगी. ब्लॉगिंग के रूप में तो पिपिहरी मिल गयी है - लोग, जैसे मन आये बजा रहे है!

मैं जरा बाबा तुलसीदास को उद्धृत कर दूं, लैम्पूनिंग (निन्दा) के विषय में:
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा l पर निन्दा सम अघ न गरीसा ll
सब कै निन्दा जे जड़ करहीं l ते चमगादुर होई अवतरहीं ll 1

जरूरी है कि लैम्पूनिग न टांगी जाये अश्रद्धा पर. अगर श्रद्धा नहीं है तो उससे उस व्यक्ति का कुछ बनता बिगड़ता नहीं जिसके प्रति श्रद्धा नहीं है. वरन वह उस व्यक्ति के स्तर को दर्शाती है जिसे श्रद्धा नहीं है. "यो यत श्रद्ध: स एव स:"2 - जिसकी जैसी श्रद्धा (फेथ) होती है, वह वैसा ही होता है.

प्रश्न श्रद्धा का है भी नहीं. प्रश्न राष्ट्रपति पद की गरिमा और सम्मान का है. मात्र आलोचना और स्वस्थ आलोचना को असम्मान नहीं माना जाता. आलोचना तो कलाम जी की भी हुई थी, जब उन्होने बिहार में राष्ट्रपति शासन को आधी रात को मंजूरी दे दी थी. पर उससे कलाम जी का बतौर राष्ट्रपति सम्मान लैम्पूनिंग का पात्र नहीं बना था.

और भविष्य या भूत काल को क्या रेघना? शेषन महोदय काबीना सचिव बने - पूरे दन्द-फन्द के साथ. पर जब मुख्य चुनाव आयुक्त बन गये तो उस पद को जो गरिमा प्रदान की वह बेमिसाल है. उन्होने चुनाव आयोग को एक नया दैदीप्यमान आयाम प्रदान किया. उसी प्रकार महामहिम प्रतिभा ताई पाटीळ भविष्य में क्या करेंगी - कौन जाने?

और अगर लैम्पूनिग का शौक है भी तो "ग्रेत लीदर" की करें. ग्रेत लीदर की रोमनागरी हिन्दी की अच्छी लैम्पूनिग हो सकती है. यह तो आप पर निर्भर करता है कि आप अपनी अभिजात्य संस्कृतनिष्ठ देवनागरी हिन्दी को लैम्पूनिंग के लिये उपयुक्त मानते हैं या स्तरीय ब्लॉग/साहित्य निर्माण योग्य.

ग्रेत लीदर की लैम्पूनिग इस बात के लिये भी हो सकती है कि उन्हे पूरी योग्यता होने के बावजूद कलाम जी पोलिटिकली करेक़्ट च्वाइस नहीं लगे. अन्यथा लैम्पूनिंग साम्यवादियों की हो सकती है कि उन्हे प्रथम - द्वितीय - तृतीय - चतुर्थ (?) विकल्प पसन्द नहीं आये. या फिर लैम्पूनिंग भाजपा और मीडिया की हो सकती है कि उन्होने राष्ट्रपति के चुनाव को मुंसीपाल्टी के इलेक्शन के स्तर पर उतार दिया. लैम्पूनिग तथाकथित तीसरे मोर्चे की भी हो सकती है जो एक कदम आगे दो कदम पीछे चलता रहा. लैम्पूनिग समग्र राजनीति की हो सकती है जिसमें 2009 को ध्यान में रख कर खेल खेला जा रहा है. जब लैम्पूनिंग के लिये इतने लोग या मुद्दे हैं तो राष्ट्रपति पद को छोड़ा नहीं जा सकता?

बन्धुओं, गलती लैम्पूनर्स की नहीं है. ब्लॉगरी में ताजा ताजा मिली अभिव्यक्ति की स्वच्छन्दता ने वातावरण लैम्पूनात्मक कर दिया है. अभी सिर स्वच्छन्द हो बैलून की तरह फूल रहा है - हवा से हल्की और विरल सोच के कारण. जब यह गैस लीक हो कर समाप्त हो जायेगी तभी हम सामान्य हो पायेंगे.

(मैं आपसे अनुरोध करूंगा कि महामहिम राष्ट्रपति के पद की गरिमा और सम्मान बनाये रखें. टिप्पणियों मे असम्मान न झलके और रबड़ का प्रयोग न करना पड़े.)

@ lampoon n आक्षेप, निन्दा; vt : आक्षेप करना, निन्दा करना. Source : shabdkosh.com
1. रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, 120-121
2. भग्वद्गीता, श्लोक 3, अध्याय 17.

Tuesday, July 24, 2007

संसाधन, मनोरंजन, आपसी समझ और ब्लॉगरी





समाज प्रगति कर रहा है. संसाधन बढ़ रहे हैं. अनुभूतियों की क्षमता कम हो रही है. स्वाथ्य के साधन बढ़ रहे हैं. पर मानव नैसर्गिक तरीके से स्वास्थ्य संतुलित रखना भूल रहे हैं. मनोरंजन के साधनों मे तो क्रांति हो रही है. पर सामान्य स्थितियों में मनोरंजन ढ़ूढ़ पाना कठिन होता जा रहा है. टेलीवीजन नये-नये हास्य/सीरियल/गेम/प्रतियोगितायें परोस रहा है पर जीवन में अवसाद से लड़ने की क्षमता कमतर होती जा रही है.

मनोरंजन व्योममण्डल में व्याप्त हो रहा है पर मन छीज रहा है. क्या कर सकते हैं हम? शायद वही जो शिव कुमार मिश्र करते हैं. शायद वही जो आलोक पुराणिक करते हैं. इन सज्जनों को हास्य बिखरा नजर आता है. हमें वह नहीं दीखता पर ये हर परिस्थिति में कुछ ऐसा देख लेते हैं जिसमें छिपा होता है हास्य और मनोरंजन.

लोग समूह में हों और एक परस्पर समझ की अंतर्धारा हो तो हास्य/मनोरंजन स्वत: चला आता है. एक दूसरे पर व्यंग भी बड़ी सहजता से लिया जाता है. पर जब वह अंतर्धारा न हो तो वैसा कुछ होता है जैसा हाल ही के ब्लॉगरों के जमावडों में और जमावड़ों के पहले और बाद में उपजी चर्चाओं में दिखाई पड़ा है. इस अंतर्धारा को अवरुद्ध करने में बहुतों ने बहुत प्रकार से योगदान दिया है. उसका लेखा-जोखा लेना तो विवाद बढ़ायेगा ही, सुलझायेगा नहीं.

आपसी समझ का अभाव मनोरंजन के अभाव का सूचक तो है ही, उसकी अंतत: विभेद में परिणति निश्चयात्मक है. संसाधन का विकास, और बेहतर तकनीक उस विभेद की प्रक्रिया को तेज ही करते हैं.

समझ टेलीवीजन नहीं बांटता. विकीपेडिया और अन्य ज्ञान के स्रोतों से युक्त इण्टरनेट भी नहीं बांटता. पुस्तकों का पढ़ना भी नहीं बांटता. वह तो मानव के अन्दर से उपजती है. मनोरंजन भी मानव के अन्दर से उपजता है.

जी हां; उटकमण्ड में फिल्माये गये दृष्यों में हास्य है, टीवी की खबर में हास्य है, शमशान में हास्य है, ट्रांसफार्मर में हास्य है. मनोरंजन ही मनोरंजन बिखरा है – पर दृष्टि कहां है?

आइये उस दृष्टि के लिये विज्ञापन दें – और ब्लॉगरी में वह विज्ञापन उत्कृष्ट रचनात्मकता, सहिष्णुता के लेखन और समझ के माध्यम से ही आ सकता है. अगर हर एक लिखने वाला यह तय कर चले कि विवाद पर कुछ समय के लिये मोरेटोरियम लगा देगा और हर टिप्पणी करने वाला अपनी तल्ख टिप्पणी की बजाय मौन रख लेगा या कुछ ऐसा ढ़ूढ़ लेगा जो सकारात्मक हो, तो बात बन जायेगी. फिर तो प्रसन्नता और मनोरंजन के प्रवाह को कौन रोक पायेगा!
स्टीफन कोवी द्वन्द्व (Conflict) को सुलझाने के लिये अरुण गांधी (गांधी जी के पौत्र) के भाषण को उद्धृत कर तीन विकल्पों की बात करते हैं (The 8th Habit, Chapter 10, Page 186-188):
  • क्रोध, झल्लाहट, आंख के बदले आंख निकालने के संकल्प का विकल्प.
  • समस्या से दूर भागने, पलायन का विकल्प.
  • रचनात्मक तीसरा विकल्प. यह दो या दो से अधिक लोगों के खुले विमर्श से आता है. यह उनकी परस्पर सुनने की क्षमता और और खोज करने की जीजीविषा से विकसित होता है. कोई नहीं जानता कि यह अंतत: क्या होगा. बस इतना तय है कि यह वर्तमान से बेहतर होगा. अंतत: खुले विमर्ष से (1) समाधान का स्वरूप, (2) उसकी आत्मा और (3) सम्बन्धित लोगों की मंशा में परिवर्तन आ सकता हैं. कम से कम इन तीन में से एक बदलाव तो आयेगा ही.

मैं इस तीसरे विकल्प की बात कर रहा हूं.



Saturday, July 21, 2007

देवर्षि का दीन-दुनियां में दखल और दुर्गति!





किंकर्तव्यविमूढ़ नारद। पजल्ड नारद। अपनी कुर्सी पर बैठे मिल गए। वीणा आज हाथ में नहीं थी। टेबल पर एक कोने में पड़ी हुई थी। माथे पर पसीने की बूदें। देखने से लग रहा था जैसे एक महीने से केश-सज्जा के लिए भी समय नहीं मिला है, पूजा-पाठ तो दूर की बात। टेबल पर बहुत सारी नई-पुरानी पोस्ट। उन्ही को खंगाल रहे थे। परेशान बुजुर्ग से शरारती बच्चे जैसे सवाल करते हैं, ठीक वैसा ही सवाल मैंने किया; "क्या हुआ"?

बोले; "पूछो मत। वाट लग गई"।

"वाट लग गई! ये कैसी भाषा मुनिवर"? मैंने अचंभित होते हुए पूछा।

बोले; "ये कैसी भाषा से क्या मतलब तुम्हारा? तुम मुझसे और कैसी भाषा की उम्मीद लगाए बैठे हो"?

मैंने उन्हें बताया कि उनके द्वारा प्रयोग किया गया 'वाट' शब्द मुझे अचंभित कर गया। बोले; "तुम्हें वाट शब्द ने अचम्भे में डाल दिया! और तुम 'ब्लागिये' जिस तरह की भाषा प्रयोग करते हो आजकल, उसके बारे में कुछ नहीं सोचते? हाल में प्रकाशित पोस्ट नहीं पढी क्या? उनकी भाषा पर ध्यान नहीं दिया"? फिर कुछ सोचकर बोले; "ध्यान भी कैसे दोगे। नए ब्लागिये हो। पुराने होते तो रोज चार-पांच घंटे का समय जरूर निकालते पढ़ने के लिए"।

मैंने सोचा ठीक ही तो कह रहे हैं। बड़ी मुश्किल से मैं रोज तीन-चार पोस्ट ही तो पढता हूँ। फिर भी मैंने कुछ साहस जुटाकर पूछा; "बात क्या है, क्यों इतने परेशान लग रहे हैं"?

बोले; "ये पोस्ट देख रहा हूँ। जिसे देखो, आजकल मुझे ही संबोधित करके पोस्ट लिख रहा है। शीर्षक ऐसे कि पढ़कर रातों की नींद चली जाये। लगता है, लोगों के पास लिखने को और विषय नहीं रहे"। मुझे लगा, ठीक ही तो कह रहे हैं। मैंने भी यही महसूस किया है। पिछले दो महीने से लोग दो तिहाई पोस्ट इन्हें ही तो संबोधित करके लिख रहे हैं।

मैंने कहा; "तो इसमें परेशान होने की क्या बात है? हमारे ब्लागिये पोस्ट लिख रहे हैं, ये क्या कम है? वैसे भी आप फीड एग्रीगेटर बने हैं, तो ये सब तो झेलना ही पड़ेगा"।

बोले; "फीड एग्रीगेटर क्या इस लिए बने थे कि रोज सब की गालियाँ सुनने को मिलें? वो भी कैसी-कैसी गालियाँ। सुनते-सुनते मैं 'नारायण-नारायण' कहना भी भूल गया हूँ। कोई कहता है, मैंने चुड़ैल पाल रखी है। कोई कहता है कि मैंने लुच्चे पाल रखे हैं। कोई इस बात पर गाली दे रहा है कि उसके पोस्ट पर किसी ने टिप्पणी नहीं की। अब नहीं की तो मैं क्या कर सकता हूँ। मेरे बस की बात नहीं कि मैं टिप्पणी करने के लिए, दस-बीस लोगों को रिक्रूट कर लूं। क्या करूं, समझ में नहीं आता। कभी-कभी लगता है जैसे 'कलयुग' रोज अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है"।

मैंने कहा; "आपने फीड एग्रीगेटर का रोल लेने से पहले इन बातों के बारे में नहीं सोचा"?

बोले; "सोचा था। लेकिन मुझे क्या मालूम था कि इतनी दुर्गति होने वाली है। अब तो लगता है कि फीड एग्रीगेटर बन कर गलती कर बैठा"।

मैंने कहा; "मुनिवर आप भी गलती करते हैं! मैं तो सोचता था कि आप मुनि हैं। आपको तो सारी बातों की समझ है। आपसे तो गलती हो ही नहीं सकती"।

बोले; “देवलोक में एक ही बार गलती की थी जब विवाह करने के लिए भगवान विष्णु से अच्छा चेहरा माँगा था. लेकिन उन्होने मेरा मजाक बनाने के लिए मुझे बंदर का चेहरा दे दिया था. वहाँ स्वयंवर में क्या कुछ नहीं झेलना पड़ा मुझे. गनीमत ये थी की वहाँ देवों के बीच में था. लेकिन यहाँ! यहाँ तो अब ये भी नहीं कह सकता कि मानवों के बीच में हूँ”।

मैंने पूछा; “तो क्या आप अपनी इस गलती को पृथ्वीलोक पर पहली और आख़िरी गलती मनाते हैं”?

बोले; “पहली गलती तो तब की जब पृथ्वीलोक पर आकर ‘भोला राम’ को पेंशन दिलाने का बीड़ा उठाया था. फीड एग्रीगेटर बन कर तो दूसरी गलती की हैं”. मुझे याद आया. अरे, ठीक ही तो कह रहे हैं. भोला राम को पेंशन दिलाने का बीड़ा उठाया तो क्या था; वीणा ही पेंशन विभाग में घूस में देना पड़ गया था इन्हें।

मैने कहा; “मुनिवर पृथ्वीलोक पर आकर जब एक गलती कर चुके थे, तो दूसरी करने की क्या ज़रूरत थी”?

बोले; “असल में सरकारी विभाग में बाबुओं को झेल कर लगा था की अब तो किसी को भी झेल सकते हैं. लेकिन मुझे नहीं मालूम था की ‘साहित्यकारों’ और 'ब्लॉगरों' को झेलना इतना कठिन काम हैं. अब तो मैं पस्त हो गया हूँ. कुछ समझ में नहीं आता क्या करूं. भोला राम का पेंशन रिलीज करवाने में तो दुर्गति हो गई थी. लेकिन फीड एग्रीगेटर बनकर तो पूरी ‘वाट’ लग गई”।

बेचारे नारद. ऑफिस में आते-जाते हर चहरे पर अपने लिए तरस ढूँढ रहे हैं. अरे, कोई तो तरस खाओ।
पोस्ट लिखी शिव कुमार मिश्र ने। यह तकनीकी चूक है कि नाम नीचे ज्ञान दत्त पाण्डेय का आ रहा है. शिव कुमार मिश्र सशक्त सटायर लिखते हैं - ज्ञानदत्त पाण्डेय.

Sunday, July 15, 2007

नौटंकी से टीवी न्यूज तक की मनोरंजन यात्रा




सालों पहले गाँव में रहते थे। मनोरंजन के साधन बहुत कम थे। रेडियो सुन लेते थे। कभी-कभी गाँव में 'राम सिंह कि नौटंकी' आती थी। दोस्तो के साथ जेठ कि दुपहरिया में दो किलोमीटर पैदल चल कर देख आते थे। बड़ा आनंद मिलता था। नौटंकी में संवाद अदायगी बड़ी दिलचस्प होती थी। सारे संवाद कविता में होते थे। एक नमूना हाज़िर है:

बात हमसे सुनो मामा माहिल मेरे
आज गंगा-दशहरा नहाऊँगा मैं;
जिद हमारी ये भैया को समझाय दो
तेग से शीश वर्ना उड़ाऊँगा मैं

या फिर

ज्यादा बढ-बढ के बातें ना कर बेशरम
जो गरजता है, ज्यादा बरसता नहीं;
आज तक ऎसी धमकी सहा ना उदल
गीदड़ों की तरह वो चहकता नहीं

देखकर बड़ा मज़ा आता था। देखने के बाद घंटो तक ऐक्टर की संवाद अदायगी की प्रशंसा या फिर बुराई करते थे। सितम्बर और अक्टूबर के महीने में रामलीला देखते थे। यूपी में रामलीला बड़ी दिलचस्प होती है। वहाँ भी संवाद कविता में ही कहे जाते थे। उसका भी एक नमूना:

मैं परशुराम कहलाता हूँ
तुम केवल राम कहाते हो;
मेरा ही आधा नाम छीन
मुझपर ही धाक जमाते हो

सबसे मजेदार बात ये होती कि संवाद बीच में ही रोक कर माइक पर एलान शुरू हो जाता। "ईक्यावन रुपये का चन्दा श्री लाल साहब सिंह ने कमिटी को प्रदान किया। हम उनका शुक्रिया अदा करते हैं"।

मैंने तो एक बार रामलीला में राक्षस का रोल भी किया था। हमारे गाँव में एक बुजुर्ग थे। नाम था चंद्र बली मिश्र। उन्हें शेर सुनाने का बड़ा शौक़ था। लेकिन रहते थे गाँव में और वहाँ श्रोता खोजना बड़ा मुश्किल काम है। कौन उनसे शेर सुनता। इसलिये शेर न सुना पाने की भड़ास रामलीला में निकालते थे। जामवंत का रोल करते थे। मुझे याद है; मैं जिस दिन अपने चहरे पर कोयले से बनाई गई मूंछ और एक पुरानी जंग लगी तलवार लेकर राक्षस का रोल करने वाला था, चंद्र बली मिश्र मुझे स्टेज के पीछे ले गए। मुझसे कहा; "जब मैं तुम्हारे सामने लड़ने के लिए आऊंगा तब तुम मुझसे कहना कि तू क्या तलवार चलाएगा बुड्ढे। तब मैं एक शेर बोलूँगा"। वैसा ही हुआ। मैं राक्षस बन कर 'जामवंत' के सामने आया और फट से उनका सिखाया हुआ डायलाग दे मारा; "तू क्या तलवार चलायेगा बुड्ढे"? और मौक़े का फायदा उठाकर उन्होने एक शेर दाग दिया:

बूढा हुआ तो क्या हुआ पर ठाट वही है
तलवार पुरानी है मगर काट वही है

कुछ ऐसा होता था मनोरंजन उन दिनों! मुझे अभी तक याद है। रात में कोयले से बनाई गई मूंछ चिपकी रह गई। सुबह माँ ने देखा और मुझे तुरंत दो झापड़ मारे।

कालांतर में मनोरंजन करने के लिए हिंदी सिनेमा आया। मनोरंजन का साधन बदल गया. आजकल सुबह आफिस जाने से पहले मिथुन दा कि फिल्में टीवी पर दिख जाएँ तो नाश्ता करते-करते देखता हूँ। बड़ा मज़ा आता है। ऊंटी में फिल्माई गई मूवी। एक जगह डान्स और उसी जगह फाइट के फिल्माये सीक्वेंस देख कर आनंद आ जाता है। मेरे दोस्त मुझे ये कहते हुए गालियाँ देते हैं कि "तुम बडे कमीने किस्म के इन्सान हो। कहीँ भी मनोरंजन ढूँढ लेते हो"।

शाम को मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन हिंदी न्यूज चैनल हो गए हैं। एक से बढकर एक न्यूज़ दिखाते हैं। मैं ऐसे समाचार देख कर आनंद ले लेता हूँ। न्यूज़ के शीर्षक सुनकर ही मज़ा आ जाता है। एक नमूना देखिए:

क्रिकेट पर 'विशेष' हो तो शीर्षक कुछ भी सकता है; जैसे 'कटा दी नाक', 'हम नहीं सुधरेंगे', 'फिर गरज उठा बूढ़े शेर का बल्ला' (सचिन तेंदुलकर के शतक बनाने पर। ये अलग बात है कि उसके ठीक एक दिन पहले बेकार खेल पर 'खतम हुआ शेर' शीर्षक से 'विशेष' दिखाया गया हो)। और विषयों पर भी शीर्षक कुछ कम दिलचस्प नहीं होते। सबसे प्रिय विषय है दाऊद इब्राहिम और उनके कार्य-कलाप। उसके बाद मेरठ, दिल्ली, कानपुर, गाजियाबाद और ऐसे कई शहरों के प्रेम प्रसंग का नंबर आता है। कुछ शीर्षक बडे हिट हैं; जैसे 'डॉन की महबूबा', 'वो कौन थी', 'पति, पत्नी और वो', 'भेजा फ्राई', 'लौट आई कल्पना'

'अँधेरे में सूरज', ये शीर्षक था उस प्रोग्राम का जो आजतक पर प्रसारित हो रहा था। एक क्षण के लिए लगा, शायद इंडोनेशिया के जंगलों में सालों से लगी आग के बारे में बात हो रही है, जिसकी वजह से सारे इलाक़े में धुआं फ़ैल गया है और सूरज बड़ी मुश्किल से दिखाई देता है। लेकिन थोड़ी ही देर में बात समझ में आ गई। पता चला कि सूरज नाम का लड़का किसी बोर-वेल में गिर गया है और उसे निकालने के लिए इस न्यूज़ चैनल ने 'मुहिम' चला रखी है। सूरज को निकालने के लिए किये जा रहे प्रयास का प्रसारण हो रहा था। साथ में ये भी कह रहे थे; "आप हमें अपनी राय दें"। मुझे लगा हमारी राय से क्या होगा। राय नहीं हुई कोई रस्सी हुई जिसे मिलते ही सूरज उसे पकड़कर अँधेरे से उजाले में आ जाएगा। ये क्या बात हुई? अगर हमारी राय के सहारे ही सूरज बाहर आ जाएगा तो फिर सेना की क्या ज़रूरत है वहाँ? इतने सारे मजदूर काम कर रहे हैं। मशीनें लाई गईं हैं। क्यों मजदूर वहाँ पर गड्ढा खोद रहे हैं। आख़िर इस चैनल ने 'मुहिम' तो चला ही रखी है। फिर हमारे राय की ज़रूरत क्यों आन पड़ी?

लेकिन राय से कुछ नहीं होने वाला है, ये तो केवल मेरी सोच थी। मैंने देखा कि थोड़ी देर में ही देश के कोने-कोने से लोगों ने अपनी राय रूपी रस्सी भेजना शुरू कर दिया। इनमें से कुछ ऐसे भी होंगे जो ढाई सौ ग्राम टमाटर इस लिए नहीं खरीदते क्योंकि टमाटर बहुत 'मंहगा' हैं। लेकिन जब एस एम एस करके राय देने की बात आती है, तो सबसे आगे रहते हैं। खैर; बहुत से लोगों ने अपनी राय दी। लेकिन शायद राय देने से बात बनी नहीं। इसलिये उन्होने हार कर मंदिरों में पूजा और यज्ञ शुरू कर दिया। न्यूज़ चैनल वालों ने ऐसे यज्ञ का प्रसारण भी किया। सताई हुई आम और गरीब जनता जो दो वक़्त की रोटी के लिए तड़पती रहती है, कितना पैसा खर्च करके एस एम एस भेजती है। पूजा और यज्ञ करती है।

मेरे मन में एक विचार आया। आख़िर 'इम्प्रूवमेंट' का स्कोप हर क्षेत्र में रहता है। इस तरह के प्रोग्राम में भी आने वाले दिनों में इम्प्रूवमेंट नज़र आएगा। हो सकता है आनेवाले दिनों में एस एम एस और फ़ोन के द्वारा भेजे गए जनता की राय को चैनल बच्चे तक पहुंचा सकता है। उसके बाद खुद बच्चा ही फैसला कर ले कि वो कौन से राय के सहारे बाहर निकलना चाहता है। जैसे चैनल का प्रतिनिधि बच्चे से कह सकता है; "सूरज, नाशिक से मंगेश बापत ने राय दी है कि आपके गड्ढे के ठीक बगल में एक और गड्ढा खोदा जाया। फिर दोनो गड्ढों को जोड़ दिया जाय और आपको बाहर निकाल लिया जाय। क्या आप उनके राय से सहमत हैं"? हो सकता है बच्चे को ये राय पसंद आ जाये और वो इसी राय के सहारे बाहर आने का मन बना ले। ऐसा भी हो सकता है कि बच्चे को ये राय पसंद ना आये और वो कहे; "नहीं। इस तरह से तो 'प्रिन्स' को बाहर निकाला गया था। मैं उसकी नक़ल करके क्यों बाहर आऊँ"?

एक और राय सुना सकते हैं चैनल वाले। "सूरज, मथुरा से कन्हैया चौबे ने राय दी है कि आपको कृष्ण के नाम का जाप करना चाहिए। इससे दो बातें होंगी। एक तो आप डरेंगे नहीं और दूसरा आप बोर होने से बच जायेंगे"। हो सकता है बच्चे को राय पसंद आ जाये। अगर नहीं आई तो वो साफ-साफ बोल देगा; "नहीं। मैं उनके राय से सहमत नहीं हूँ। कृष्ण के नाम का जाप करने से अच्छा होगा कि मैं फिल्मी गाने गाकर अपनी बोरियत दूर करूं"।

एक और चैनल का दृश्य याद आ गया तो उसके बारे में भी बताता चलूँ। चार साल की उपासना को तीन दिन पहले याद आया कि असल में वो उपासना नहीं बल्कि कल्पना चावला है। आप पूछेंगे कौन कल्पना? अरे वही जो अंतरिक्ष में गई थी और वापस आते समय जिनकी मृत्यु हो गई। कितनी दुखद घटना थी। टीवी चैनल वाले पंहुच गए हैं केमरा लेकर और चार साल की बच्ची से प्रश्न पूछ रहे हैं:

"बेटी तुम्हारा नाम कल्पना चावला है"?
"हाँ", बच्ची ने जवाब दिया।
"तुम्हारे पिताजी का नाम बनारसी लाल चावला है"?
"हाँ", बच्ची ने फिर जवाब दिया।

स्टूडियो में बैठा एंकर इस बात के पीछे पड़ा है कि कल्पना के मरने में और उपासना के पैदा होने में पूरे ५१ दिन का अंतर था। तो ५१ दिन तक कल्पना की आत्मा कहॉ थी। उसके चहरे के भाव देख कर लग रहा था जैसे इसके बस में होता तो तुरंत एक जांच कमीशन बैठा देता। टीवी चैनल ने कल्पना चावला के पिता को भी बुला रखा है। यहाँ भी वही बात। "आप अपनी राय हमें लगातार दीजिए"। आप बतायें कि ये क्या है।

अरे हम कैसे बतायें कि ये क्या है। ये बच्ची हमसे पूछ कर कल्पना चावला बनी थी क्या? उसके बारे आप (टीवी वाले) तो बता ही रहे हैं। फिर हम नया क्या बतायेंगे।

तकनीक विकसित हो रही है, मनोरंजन परिष्कृत हो रहा है. पर चंद्र बली मिश्र के जबरी ठूंसे शेर की रामलीला का मजा क्यों नहीं आ रहा है? आप कोई राय देंगे? बस मोबाइल उठाइये और एस एम एस कीजिये - 0420 पर! वैसे आप चाहें तो इस पोस्ट पर टिप्पणी भी कर सकते हैं. :)

Monday, July 2, 2007

बुद्धदेब भट्टाचारजी सही काम कर रहे हैं




कोई दो राय नहीं कि पश्चिम बंगाल पिछले दशकों से पिछड़ता गया है. पर भूतकाल में तब झांकना जब एक मुख्यमंत्री किसी तरह से कुछ करने का यत्न कर रहा हो; मुझे सही नजर नहीं आता. साम्यवादियों ने ऐसा किया कि कारखाने चौपट हो गये. पर अगर 70-80 के दशक की कांग्रेस होती अथवा बड़बोली ममता बैनर्जी होतीं तो यह प्रांत प्रगति की कुलांचें भरता मुझे घोर सन्देह है. बंगाल को अपनी बेकारी के कारणों का पता लगाने के लिये साम्यवादियों को सलीब पर चढ़ा कर शोध कार्य की इति नहीं मान लेनी चाहिये.

क्या सत्ता परिवर्तन कुंजी है पश्चिम बंगाल के विकास की? व्यापक जन असंतोष ने जब निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया का वाहन पाया तो बिहार और उत्तरप्रदेश में सत्ता परिवर्तन कर दिया. वही फिनॉमिना बंगाल में देखने को नहीं मिला. यह नहीं कहा जा सकता कि वहां चुनाव आयोग ने ढ़िलाई बरती. कुछ लोग यह कहते हैं कि साम्यवादी काडर बड़े सुनियोजित ढ़ंग से काम करता है जो चुनाव आयोग के मेकेनिज्म से पकड़ में नहीं आयेगा. पर अगर वैसा है तो हम विकास के लिये सत्ता परिवर्तन की बाट क्यों जोहें, जब विकल्प में भी बहुत आशा नजर न आती हो? इस स्थिति में मुझे बुद्धदेब भट्टाचारजी पर दाव लगाना बेहतर लगता है.

मुझे स्थानीय स्थिति की पर्याप्त जानकारी नहीं है. पर इतना जरूर लगता है कि बुद्धदेब बदलाव का यत्न कर रहे हैं. वे जो कुछ कर रहे हैं उससे कॉपी-बुक स्टाइल साम्यवादी को हाजमे की शिकायत हो रही है. पार्टी के तथाकथित बुद्धिजीवी उनका साथ नहीं दे रहे. पार्टी भी विभ्रम की अवस्था में है कि बुद्धदेब के साथ चले या पुरानी लाइन पर.पार्टी के तीन दशक के शासन के पूरा होने पर बुद्धदेब स्वयम कह रहे हैं कि 32 लाख बेरोजगारों को काम दिलाना है और यह स्टील तथा रसायन क्षेत्र के उद्योगों के तेज विकास से ही हो सकेगा.

तेजी से औद्योगिक विकास पश्चिम बंगाल की जरूरत है. बुद्धदेब यह समझ रहे हैं. कृषि लोगों को पर्याप्त संख्या में और स्तर पर रोजगार नहीं दे सकती. लिहाजा कृषि से उद्योग/जानकारी पर आधारित अर्थ व्यवस्था में ट्रांजीशन और कल कारखानों का विकास होना जरूरी है. उसे धुर-साम्यवादी सोच रोक नहीं पायेगी. अत: जो परिवर्तन बुद्धदेब करने का यत्न कर रहे हैं; उसे मात्र इस आधार पर कि पहले सब चौपट इन्ही साम्यवादियों ने किया था; नकारने या हिकारत के कोण से देखा जाये जायज नहीं है. सिंगूर या नन्दीग्राम में पोलिटिकल गलतियां हुई हैं. पर उनका नफा स्टेटस-को-एण्टे चाहने वालों को नहीं मिलना चाहिये. किसानो से जमीन के लिये जाने में किसानो के हितों की जो अनदेखी हुई है और विकास के फल में उनका हिस्सा न स्पष्ट किये जाने का भ्रम या दादागिरी नजर आयी है; उसकी संयत भाषा में समझाइश और निराकरण होना चाहिये. बुद्धदेब उस दिशा में बोलते-करते प्रतीत होते हैं. उन्हें पर्याप्त बैकिंग मिलनी चाहिये.

भारत के साम्यवादी दल; (1)चीन में जैसा विकास का माडल है और (2) जैसी वे सोच भारत के लिये रख कर केन्द्र की सरकार को दबेरते रहे हैं दोनो के बीच दिग्भ्रमित से प्रतीत होते रहे हैं. पर केन्द्र में वे जैसी भी राजनीति करें, अगर वे बंगाल में विकास पथ पर चलने की कोशिश करने की पहल करते हैं तो उसका स्वागत होना चाहिये. असल में वह दल जिसके पास जन समर्थन का आधार हो; परिवर्तन का कार्य बखूबी कर सकता है. जो दशकों बाद सत्ता में आने का यत्न कर रहे हैं, वे तो मात्र पॉपुलिस्ट बात कर सकते हैं. वोट की चाहत विकास के एजेण्डे को सामने रख कर नहीं पूरी हो रही. और सत्ता में आने को ललचाते लोग बंगाल के तेजी से विकास को प्रतिबद्ध हों- ऐसा लगता नहीं है.

परिस्थितियां बदल रही हैं. विचारधाराओं और वादों की वह पकड़ आज नहीं है जो दो दशक पहले थी. आज जो विकास और परिवर्तन की दिशा में काम करता नजर आयेगा चाहे वह बुद्धदेब हों, नीतिश कुमार हों या नरेन्द्र मोदी हों उनका उनकी पृष्ठभूमि को नजर-अन्दाज करते हुये स्वागत होना चाहिये.
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बुद्धदेब-अटल का चित्र जानबूझ कर चस्पां किया है. यह बताने को कि प्रगति की बात चाहे वामपंथी करे या दक्षिणपंथी, सब स्वीकार्य है.